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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 77 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 77/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यो अ॑ध्व॒रेषु॒ शंत॑म ऋ॒तावा॒ होता॒ तमू॒ नमो॑भि॒रा कृ॑णुध्वम्। अ॒ग्निर्यद्वेर्मर्ता॑य दे॒वान्त्स चा॒ बोधा॑ति॒ मन॑सा यजाति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । अ॒ध्व॒रेषु॑ । शम्ऽत॑मः । ऋ॒तऽवा॑ । होता॑ । तम् । ऊँ॒ इति॑ । नमः॑ऽभिः । आ । कृ॒णु॒ध्व॒म् । अ॒ग्निः । यत् । वेः । मर्ता॑य । दे॒वान् । सः । च॒ । बोधा॑ति । मन॑सा । य॒जा॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अध्वरेषु शंतम ऋतावा होता तमू नमोभिरा कृणुध्वम्। अग्निर्यद्वेर्मर्ताय देवान्त्स चा बोधाति मनसा यजाति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। अध्वरेषु। शम्ऽतमः। ऋतऽवा। होता। तम्। ऊँ इति। नमःऽभिः। आ। कृणुध्वम्। अग्निः। यत्। वेः। मर्ताय। देवान्। सः। च। बोधाति। मनसा। यजाति ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 77; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यूयं योऽग्निरध्वरेषु शन्तम ऋतावा होताऽस्ति यद्यो मर्त्ताय देवान् वेस्स मनसा सर्वान् बोधाति यजाति च तमु नमोभिराकृणुध्वम् प्रसन्नं कुरुध्वम् ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (यः) विद्वान् (अध्वरेषु) अहिंसनीयेषु (शन्तमः) अतिशयेनानन्दप्रदः (ऋतावा) सत्यगुणकर्मस्वभाववान् (होता) सर्वस्य जगतो विज्ञानस्य वा दाता (तम्) (उ) वितर्के (नमोभिः) नमस्कारैरन्नैर्वा (आ) समन्तात् (कृणुध्वम्) कुरुध्वम् (अग्निः) विज्ञानस्वरूपः (यत्) यः (वेः) आवहति (मर्त्ताय) मनुष्याय (देवान्) दिव्यगुणान् विज्ञानादीन् (सः) (च) समुच्चये (बोधाति) जानीयात् (मनसा) विज्ञानेन (यजाति) सङ्गच्छेत ॥ २ ॥

    भावार्थः

    नह्याप्तेन मनुष्येण विना मनुष्याणां विद्याऽऽध्यापको विद्यते, नहि तं विहायान्यः कश्चित् सत्कर्त्तुमर्होऽस्तीति वेद्यम् ॥ २ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम लोग (यः) जो (अग्निः) विज्ञानस्वरूप परमेश्वर वा विद्वान् (अध्वरेषु) सदैव ग्रहण करने योग्य यज्ञों में (शन्तमः) अत्यन्त आनन्द को देनेहारा तथा (ऋतावा) शुभ गुण, कर्म,और स्वभाव से सत्य है (होता) सब जगत् और विज्ञान का देनेवाला है तथा (यत्) जो (मर्त्ताय) मनुष्य के लिये (देवान्) विज्ञान और श्रेष्ठ गुणों को (बोधाति) अच्छे प्रकार जाने (च) और (यजाति) संगत करें, इसलिये (तम् उ) उसी परमेश्वर वा विद्वान् को (नमोभिः) नमस्कार वा अन्नों से प्रसन्न (आ कृणुध्वम्) करो ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। परमेश्वर और धर्मात्मा मनुष्य के विना मनुष्य को विद्या का देनेवाला कोई दूसरा नहीं है तथा उन दोनों को छोड़ के उपासना तथा सत्कार भी किसी का न करना चाहिये ॥ २ ॥

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    विषय

    देवों का सम्पर्क

    पदार्थ

    १. (यः) = जो प्रभु (अध्वरेषु) = हिंसारहित यज्ञादि उत्तम कर्मों में (शन्तमः) = अधिक - से अधिक शान्ति देनेवाले हैं, अर्थात् जो भी प्रभु का उपासक होता है वह अध्वर वृत्तिवाला बनता है और प्रभु उसे शान्ति प्राप्त कराते हैं, वे प्रभु (ऋतावा) = ऋत का अवन व रक्षण करनेवालें हैं, (होता) = सब - कुछ देनेवाले हैं । (तम् उ) = उस प्रभु को ही (नमोभिः) = नमस्कारों के द्वारा (आकृणुध्वम्) = अपने अभिमुख करो । नमस् - नम्रता के द्वारा हम प्रभु की अनुकूलता का सम्पादन करें । २. (यत्) = जब (अग्निः) = यह अग्रणी प्रभु मर्ताय मनुष्य के लिए (देवान्) = विद्वानों को (वेः) = [आवहति] प्राप्त कराते हैं तब (सः) = वह मनुष्य (बोधाति) = बोध प्राप्त करता है, (च) = और (मनसा) = मनन - शक्ति से (यजाति) = [संगच्छते] संगत होता है । प्रभुकृपा से ही हमारा सम्पर्क उत्तम ज्ञानियों से होता है और हम बोध प्राप्त करनवाले तथा मननशील बन पाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम नमन से प्रभु को अपने अनुकूल करें । वे प्रभु हमें ज्ञानियों के सम्पर्क से उत्कृष्ट ज्ञान - प्राप्त कराएँगे ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    पूर्व मन्त्र में कहे ‘कथं’ का उत्तर इस मन्त्र में बतळाते हैं । ( यः ) जो (अध्वरेषु ) हिंसा रहित, न नाश करने योग्य श्रेष्ठ कर्मों और श्रेष्ठ पुरुषों में भी ( शतमः ) अत्यन्त अधिक शान्तिदायक, कल्याणकारी, ( ऋतावा ) सत्य गुण कर्म स्वभाव वाला, ( होता ) सब सुखों का दाता है (तम् उ) उसको ही ( नमोभिः ) नमस्कारों द्वारा (आकृणुध्वम्) अपने अभिमुख करो, उसको प्राप्त करो और प्रसन्न करो । और ( या ) जो स्वयं ( अग्निः ) सब का आग्रणी, ज्ञान प्रकाशक ( मर्ताय ) मनुष्य के हित के लिये ( देवान् ) दिव्यज्ञानों, प्रकाश की किरणों तथा उत्तम विद्वानों को ( वेः ) प्रकाशित करता और या स्वयं धारण करता है । ( सः च ) वही ( बोधाति ) सब को ज्ञान प्रदान करता और ( मनसा ) ज्ञान से ( यजाति ) सबको युक्त करता है। इससे यह सबके पूजा के योग्य है। विद्वान् राजा के पक्ष में—सबका कल्याणकारी, सत्य न्यायवाला होकर मनुष्यों के हितार्थ विद्वानों को नियुक्त करता और उत्तम २ गुणों को प्रकट करता है, ज्ञान से सबको ज्ञानवान् करता और सबको परस्पर संगत करता है वह ( अग्निः ) अग्रणी नायक, विद्वान् है । उसको ( नमोभिः ) आदर सत्कार और अन्नों से प्रसन्न करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ निचृत्पंक्तिः । २ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ५ विराट् त्रिष्टुप् । पंचर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वह विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मनुष्याः ! यूयं यः अग्निः अध्वरेषु शन्तमः ऋतावा होता अस्ति यद् यः मर्त्ताय देवान् वेः स मनसा सर्वान् बोधाति यजाति च तम् उ नमोभिः आ कृणुध्वम् प्रसन्नं कुरुध्वम् ॥२॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यूयम्)=तुम सब, (यः) विद्वान्= जो विद्वान्, (अग्निः) विज्ञानस्वरूपः= विशेष ज्ञान के स्वरूपवाला, (अध्वरेषु) अहिंसनीयेषु=हिंसा से रहित यज्ञों में, (शन्तमः) अतिशयेनानन्दप्रदः= अतिशय आनन्द प्रदान करनेवाला, (ऋतावा) सत्यगुणकर्मस्वभाववान्= सत्य, गुण, कर्म के स्वभाववाला, (होता) सर्वस्य जगतो विज्ञानस्य वा दाता=अथवा समस्त संसार को विशेष ज्ञान प्रदान करनेवाला, (अस्ति)=है। (यत्) यः=जो, (मर्त्ताय) मनुष्याय= मनुष्य के लिये, (देवान्) दिव्यगुणान् विज्ञानादीन्= दिव्य गुण और विशेष ज्ञान आदि, (वेः) आवहति=प्राप्त कराता है, (सः)=वह, (मनसा) विज्ञानेन= विशेष ज्ञान से, (सर्वान्)=सबको, (बोधाति) जानीयात्=जानता है, (यजाति) सङ्गच्छेत=संगति करण करता है, (च) समुच्चये=और, (तम्)=उसको, (उ) वितर्के=अथवा, (नमोभिः) नमस्कारैरन्नैर्वा=नमस्कार या अन्न को, (आ) समन्तात्= हर ओर से (कृणुध्वम्) कुरुध्वम्=कीजिये, (प्रसन्नम्) =प्रसन्न, (कुरुध्वम्)= कीजिये ॥२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। परमेश्वर और धर्मात्मा मनुष्य के विना मनुष्य को विद्या का देनेवाला कोई दूसरा नहीं है तथा उन दोनों को छोड़ के उपासना तथा सत्कार भी किसी का न करना चाहिये ॥२॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी-आप्त-यह शब्द मन्त्र ०१.७६.०५ में परिभाषित किया गया है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यूयम्) तुम सब (यः) जो विद्वान् (अग्निः) विशेष ज्ञान के स्वरूपवाला, (अध्वरेषु) हिंसा से रहित यज्ञों में (शन्तमः) अतिशय आनन्द प्रदान करनेवाला, (ऋतावा) सत्य, गुण, कर्म के स्वभाववाला, (होता) अथवा समस्त संसार को विशेष ज्ञान प्रदान करनेवाला (अस्ति) है। (यत्) जो (मर्त्ताय) मनुष्य के लिये (देवान्) दिव्य गुण और विशेष ज्ञान आदि (वेः) प्राप्त कराता है, (सः) वह (मनसा) विशेष ज्ञान से (सर्वान्) सबको (बोधाति) जानता है (च) और (यजाति) संगति करण करता है। (तम्) उसको, (उ) अथवा (नमोभिः) नमस्कार या अन्न से (आ) हर ओर से (प्रसन्नम्) प्रसन्न (कुरुध्वम्) कीजिये ॥२॥

    संस्कृत भाग

    यः । अ॒ध्व॒रेषु॑ । शम्ऽत॑मः । ऋ॒तऽवा॑ । होता॑ । तम् । ऊँ॒ इति॑ । नमः॑ऽभिः । आ । कृ॒णु॒ध्व॒म् । अ॒ग्निः । यत् । वेः । मर्ता॑य । दे॒वान् । सः । च॒ । बोधा॑ति । मन॑सा । य॒जा॒ति॒ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- नह्याप्तेन मनुष्येण विना मनुष्याणां विद्याऽऽध्यापको विद्यते, नहि तं विहायान्यः कश्चित् सत्कर्त्तुमर्होऽस्तीति वेद्यम् ॥२॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. परमेश्वर व धर्मात्मा विद्वान माणसाखेरीज मनुष्यांना विद्या देणारा दुसरा कुणी नाही. तसेच त्या दोघांना सोडून कुणाचीही उपासना व सत्कार करता कामा नये. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    All ye yajakas, do honour and homage with salutations and oblations in yajna to Agni, harbinger of peace and bliss, ever true in nature, attributes and functioning, most creative and generous performer in yajna, who invokes the divinities for humanity, knows and awakes all to knowledge and self-awareness, and guides and leads the yajakas with his heart and soul.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Agni is taught further in the 2nd Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, please with reverence a learned person who is giver of great bliss in Yajnas (non-violent sacrifices) truthful in thought, word and deed or observant of truth, giver of knowledge. He brings divine virtues and wisdom to men (helps in their attainment) as he knows them and unites men with them with the aid of knowledge.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (ऋतावा) सत्यगुणकर्मस्वभावान् = Absolutely truthful. (होता) सर्वस्य विज्ञानस्य दाता = Giver of all knowledge. (वे:) आवहति = Brings or causes to attain. (मनसा) विज्ञानेन = With knowledge.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    None can be a true teacher except a wise man who is absolutely truthful in mind, word and deed. None can be honoured except such a virtuous person.

    Translator's Notes

    Even Prof. Wilson's translation of Ritava as “observant of truth as in previous Mantra and the translation of स च बोधाति मनसा यजाति as 'Agni' knows those who are to be worshipped, and worships them with reverence, substantiates Rishi Dayananda's contention that here means a fear or learned person मन-अवगमे बोत्रे वा hence मनसा विज्ञानेन । हु-दानादनयो: here it has been taken by Rishi Dayananda in the sense of विज्ञानस्य दाता = Giver of knowledge.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of that scholar should be?This topic has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (yūyam) =all of you, (yaḥ) =that scholar, (agniḥ) =who has the form of special knowledge, (adhvareṣu)= in yajnas without violence, (śantamaḥ)= extremely pleasurable, (ṛtāvā)=having the nature of truth, virtue and action, (hotā)= or the one who provides special knowledge to the whole world, (asti) =is, (yat) =that, (marttāya) =for human, (devān)=divine qualities and special knowledge etc., (veḥ) =gets attained, (saḥ) =he, (manasā) =by special knowledge, (sarvān) =to all, (bodhāti) =knows, (ca) =and, (yajāti) = keeps company, (tam) =to him, (u) =or, (namobhiḥ) =by salutation or food, (ā) =from every side, (prasannam) =pleased, (kurudhvam) =do.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! The scholar who has the form of special knowledge, who gives immense pleasure in yajnas without violence, who has the nature of truth, virtues and karmas, or who provides special knowledge to the entire world and is extremely pleasurable. The one who helps humans attain divine qualities and special knowledge etc., he knows everyone with special knowledge and keeps company. All of you please him from all sides with salutations or food.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    It should be known that there is no preceptor who can impart knowledge to human beings except the āpta person; apart from him, no one else is worthy of worship.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    Apt-This word is defined in mantra 01.76.05.

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