ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 77/ मन्त्र 4
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स नो॑ नृ॒णां नृत॑मो रि॒शादा॑ अ॒ग्निर्गिरोऽव॑सा वेतु धी॒तिम्। तना॑ च॒ ये म॒घवा॑नः॒ शवि॑ष्ठा॒ वाज॑प्रसूता इ॒षय॑न्त॒ मन्म॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसः । नः॒ । नृ॒णाम् । नृऽत॑मः । रि॒शादाः॑ । अ॒ग्निः । गिरः॑ । अव॑सा । वे॒तु॒ । धी॒तिम् । तना॑ । च॒ । ये । म॒घऽवा॑नः । शवि॑ष्ठाः । वाज॑ऽप्रसूताः । इ॒षय॑न्त । मन्म॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स नो नृणां नृतमो रिशादा अग्निर्गिरोऽवसा वेतु धीतिम्। तना च ये मघवानः शविष्ठा वाजप्रसूता इषयन्त मन्म ॥
स्वर रहित पद पाठसः। नः। नृणाम्। नृऽतमः। रिशादाः। अग्निः। गिरः। अवसा। वेतु। धीतिम्। तना। च। ये। मघऽवानः। शविष्ठाः। वाजऽप्रसूताः। इषयन्त। मन्म ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 77; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
यो नोऽस्माकं नृणां मध्ये नृतमोऽग्निरिवावसा गिरो धीतिं च कामयते स नो नृणां मध्ये सभाध्यक्षत्वं वेतु प्राप्नोतु। ये नोऽस्माकं नृणां मध्ये रिशादा वाजप्रसूताः श्रविष्ठा मघवानस्तना मन्म चात् सद्गुणानिषयन्त ते नोऽस्माकं सभासदः सन्तु ॥ ४ ॥
पदार्थः
(सः) (नः) अस्माकम् (नृणाम्) मनुष्याणां मध्ये (नृतमः) अतिशयेनोत्तमो नरः (रिशादाः) यो रिशान् हिंसकान् शत्रूनत्ति नाशयति सः। अत्रादधातोरसुन्। (अग्निः) उत्कृष्टगुणविज्ञानः (गिरः) वाणी (अवसा) रक्षणादिना (वेतु) कामयताम् (धीतिम्) धारणाम् (तना) विस्तृतानि धनानि। तनेति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) (च) विद्यादिशुभगुणानां समुच्चये (ये) (मघवानः) प्रशस्तधनाः (शविष्ठाः) अतिशये बलवन्तः (वाजप्रसूताः) विज्ञानादिगुणैः प्रकाशिताः (इषयन्त) एषयन्ति प्राप्नुवन्ति। अत्र लङि वा च्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति गुणाभावोऽडभावश्च। (मन्म) विज्ञानम्। अत्रान्येभ्योऽपि दृश्यन्त इति मनधातोर्मनिन् ॥ ४ ॥
भावार्थः
मनुष्यैः सपरमोत्तमसभाध्यक्षमनुष्यां सभां निर्माय राज्यव्यवहारपालने चक्रवर्त्तिराज्यं प्रशासनीयं नैवं विना कदाचित् स्थिरं राज्यं कस्यचिद्भवितुमर्हति। तस्मादेतत्सदानुष्ठायैको राजा नैव मन्तव्यः ॥ ४ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह उक्त विद्वान् कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
जो (नः) हमारे (नृणाम्) मनुष्यों के बीच (नृतमः) अत्यन्त उत्तम मनुष्य (अग्निः) पावक के तुल्य अधिक ज्ञान प्रकाशवाला (अवसा) रक्षण आदि से (गिरः) वाणी और (धीतिम्) धारणा को चाहता है (सः) वह मनुष्य हमारे बीच में सभाध्यक्ष के अधिकार को (वेतु) प्राप्त हो, जो (नृणाम्) मनुष्यों में (रिशादाः) शत्रुओं को नष्ट करनेहारे (वाजप्रसूताः) विज्ञान आदि गुणों से शोभायमान (शविष्ठाः) अत्यन्त बलवान् (मघवानः) प्रशंसित धनवाले (तना) विस्तृत धनों की और (मन्म) विज्ञान (च) विद्या आदि अच्छे-अच्छे गुणों की (इषयन्त) इच्छा करते हैं, इसीसे हमारी सभा में वे लोग सभासद् हों ॥ ४ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि अत्युत्तम सभाध्यक्ष मनुष्यों के सहित सभा बना के राज्यव्यवहार की रक्षा से चक्रवर्त्तिराज्य की शिक्षा करे, इसके विना कभी स्थिर राज्य नहीं हो सकता, इसलिये पूर्वोक्त कर्म का अनुष्ठान करके एक को राजा नहीं मानना चाहिये ॥ ४ ॥
विषय
नृणां नृतमः
पदार्थ
१. (सः) = वे प्रभु (नः) = हम (नृणाम्) = उन्नतिपथ पर आगे बढ़नेवाले को [नये] (नृतमः) = अतिशयेन आगे ले - चलनेवाले हैं, (रिशादाः) = [रिशतां अत्ता] हिंसक कामादि शत्रुओं को खा जानेवाले हैं, वे प्रभु हमारे नाश के कारणभूत काम - क्रोधादि शत्रुओं को समाप्त करनेवाले है । २. इस प्रकार (अग्निः) = हमें निरन्तर आगे ले - चलनेवाले वे प्रभु (अवसा) = हमारे रक्षण के लिए (गिरः) = ज्ञान की वाणियों को (धीतिम्) = ज्ञानपूर्वक किये जानेवाले कर्मों को अथवा ध्यानवृत्ति को [धारणाम् - द०] (वेतु) = [कामयताम्] चाहें और प्राप्त कराएँ । प्रभु की कृपा से हमें ज्ञान की वाणियाँ प्राप्त हों, ज्ञानपूर्वक किये जानेवाले कर्म प्राप्त हों तथा ध्यान की वृत्ति व उपासना प्राप्त हो । ३. (च) = और प्रभु हमें ऐसा बना दें जैसाकि (तना) = विस्तृत धनों से (ये) = जो (मघवानः) = [मघ मख] यज्ञशील होते हैं, (शविष्ठाः) = अत्यन्त शक्तिसम्पन्न होते हैं तथा (वाजप्रसूताः) = शक्ति व ज्ञान से प्रेरित हुए - हुए जो (मन्म इषयन्त) = स्तोत्रों की कामना करते हैं, शक्तिसम्पन्न व ज्ञानी बनकर जो प्रभु का स्तवन करनेवाले होते हैं, बस, ऐसा प्रभु हमें बना दे ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ही हमें ज्ञान, कर्म व ध्यानवृत्ति को प्राप्त कराते हैं । प्रभुकृपा से हम धनों का यज्ञों में विनियोग करनेवाले हों ।
विषय
missing
भावार्थ
जो ( रिशादाः ) हिंसक दुष्ट पुरुषों और शत्रुओं का नाश करने हारा ( अग्निः ) अग्नि के समान तेजस्त्री है ( सः ) वह ही ( नः ) हमारे ( नृणां ) समस्त नायकों मे से ( नृतमः ) सबसे श्रेष्ठ पुरुष होकर ( अवसा ) अपने ज्ञान और पालन समार्थ्य से ( धीतिम् ) राष्ट्र के धारण करने वाली शक्ति और ( गिरः ) उपदेश युक्त वाणी और शासनकारिणी आज्ञाओं को ( वेतु ) प्राप्त करें । ( ये च ) और जो ( शविष्ठाः ) अति वलवान्, ( वाजप्रसूतः ) बल, वीर्य, ज्ञान और ऐश्वर्यों से उत्तम पदों को प्राप्त, ( मघवानः ) ऐश्वर्य सम्पन्न पुरुष हैं वे ( तना ) नाना धन और ( मन्म ) मनन करने योग्य ज्ञान को ( इषयन्त ) प्राप्त करे। वे भी ( अवसा धीतिम् गिरः यन्तु ) अपने ज्ञान और रक्षण सामर्थ्य से उत्तम वाणियें प्रकाशित करें, राष्ट्र के कार्य में प्रतापी पुरुष सभापति और विद्वान् ऐश्वर्यवान् पुरुष सभासद् हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ निचृत्पंक्तिः । २ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ५ विराट् त्रिष्टुप् । पंचर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर वह उक्त विद्वान् कैसा हो, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- यः नः अस्माकं नृणां मध्ये नृतमः अग्निः इव अवसा गिरः धीतिं च कामयते स नः नृणां मध्ये सभाध्यक्षत्वं वेतु प्राप्नोतु। ये नः अस्माकं नृणां मध्ये रिशादाः वाजप्रसूताः श्रविष्ठाः मघवानः तना मन्म च आत् सद्गुणान् इषयन्त ते नः अस्माकं सभासदः सन्तु ॥४॥
पदार्थ
पदार्थः- (यः)=जो, (नः) अस्माकम्=हमारे, (नृणाम्) =मनुष्यों के, (मध्ये)=बीच में, (नृतमः) अतिशयेनोत्तमो नरः=अतिशय उत्तम मनुष्य, (अग्निः) उत्कृष्टगुणविज्ञानः= उत्कृष्ट गुण और विशेष ज्ञान के, (इव)=समान, (अवसा) रक्षणादिना=रक्षा आदि के द्वारा, (गिरः) वाणी= वाणी को, (धीतिम्) धारणाम्=धारण करने में और, (च) विद्यादिशुभगुणानां समुच्चये= विद्या आदि शुभ गुणों की, (कामयते) =कामना करता है, (सः) =वह, (नः)=हम, (नृणाम्) मनुष्याणां मध्ये=मनुष्यों के बीच में, (सभाध्यक्षत्वम्)= सभा के अध्यक्ष होने की, (वेतु) कामयताम्=कामना करते हुए, उसे, (प्राप्नोतु)=प्राप्त करे, (ये) =जो (नः) अस्माकम्= हमारे, (नृणाम्)=मनुष्यों के, (मध्ये)=बीच में, (रिशादाः) यो रिशान् हिंसकान् शत्रूनत्ति नाशयति सः=हिंसक जानवर शत्रुओं को खाने और उनका नाश करनेवाला, (वाजप्रसूताः) विज्ञानादिगुणैः प्रकाशिताः=विशेष ज्ञान आदि गुणों से प्रकाशित, (शविष्ठाः) अतिशये बलवन्तः= अतिशय बलवान्, (मघवानः) प्रशस्तधनाः=उत्कृष्ट धनों का, (तना) विस्तृतानि धनानि=विस्तारित धनों का, (च)=और, (आत्) =इसके बाद, (मन्म) विज्ञानम्= विशेष ज्ञान को, (सद्गुणान्)=उत्तम गुणों की, (इषयन्त) एषयन्ति प्राप्नुवन्ति=इच्छा करते हुए उन्हें प्राप्त करते हैं, (ते)=वे, (नः) अस्माकम्=हमारे, (सभासदः)= सभासद, (सन्तु)=होवें॥४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- मनुष्यों के द्वारा मनुष्यों की सभा बना करके, उस परमोत्तम सभाध्यक्ष के विना राज्य का कार्य और चक्रवर्त्ति राज्य का प्रसासन सम्भवतः किये विना स्थिर राज्य नहीं हो सकता है। इसलिये इसके अनुष्ठान के लिये सदा एक राजा को ही नहीं मानना चाहिये, अर्थात् सभा का होना भी अनिवार्य है ॥४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (यः) जो (नः) हमारे (नृणाम्) मनुष्यों के (मध्ये) बीच में (नृतमः) अतिशय उत्तम मनुष्य, (अग्निः) उत्कृष्ट गुण और विशेष ज्ञान के (इव) समान, (अवसा) रक्षा आदि के द्वारा (गिरः) वाणी को (धीतिम्) धारण करता है और (च) विद्या आदि शुभ गुणों की (कामयते) कामना करता है। (सः) वह, (नः) हम (नृणाम्) मनुष्यों के बीच में (सभाध्यक्षत्वम्) सभा के अध्यक्ष होने की (वेतु) कामना करते हुए, [उस पद को] (प्राप्नोतु) प्राप्त करे। (ये) जो (नः) हम (नृणाम्) मनुष्यों के (मध्ये) बीच में (रिशादाः) शत्रु हिंसक-जानवरों को खाने और उनका नाश करनेवाला है, (वाजप्रसूताः) विशेष ज्ञान आदि गुणों से प्रकाशित है, (शविष्ठाः) अतिशय बलवान् है, (मघवानः+तना) उत्कृष्ट व विस्तारित धनों [का स्वामी है] (च) और (आत्) इसके बाद (मन्म) विशेष ज्ञान और (सद्गुणान्) उत्तम गुणों की (इषयन्त) इच्छा करते हुए प्राप्त करते हैं, (ते) वे (नः) हमारे (सभासदः) सभासद (सन्तु) होवें॥४॥
संस्कृत भाग
सः । नः॒ । नृ॒णाम् । नृऽत॑मः । रि॒शादाः॑ । अ॒ग्निः । गिरः॑ । अव॑सा । वे॒तु॒ । धी॒तिम् । तना॑ । च॒ । ये । म॒घऽवा॑नः । शवि॑ष्ठाः । वाज॑ऽप्रसूताः । इ॒षय॑न्त । मन्म॑ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैः सपरमोत्तमसभाध्यक्षमनुष्यां सभां निर्माय राज्यव्यवहारपालने चक्रवर्त्तिराज्यं प्रशासनीयं नैवं विना कदाचित् स्थिरं राज्यं कस्यचिद्भवितुमर्हति। तस्मादेतत्सदानुष्ठायैको राजा नैव मन्तव्यः॥४॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी अत्युत्तम सभाध्यक्ष व माणसांची सभा बनवावी आणि राज्यव्यवहाराचे रक्षण करून चक्रवर्ती राज्याचे शिक्षण द्यावे. त्याशिवाय राज्य स्थिर होऊ शकत नाही. त्यासाठी पूर्वोक्त कर्माचे अनुष्ठान करून एकाला राजा मानता कामा नये. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
He who among our people is the most human and gracious, destroyer of violence, is Agni, lord of light, power and leadership. May he join our voices and the powers of governance with defence, protection and progress and hold it together with the wealth of the nation and those who are men of honour, strongest in courage, endowed with food and energy and have the desire for knowledge and wisdom.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Agni is taught further in the 4th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
May he who is the best among men, destroyer of violent enemies, who like a highly educated person desires with protection, speech and upholding, with the Presidentship of the of the Assembly. May those of us be the members of the Assembly, who are destroyers of their foes, shining with virtues like the knowledge and wisdom, very powerful possessors of good wealth, desirous of prosperity, knowledge and other virtues.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(वाजप्रसूताः) विज्ञानादिगुणै: प्रकाशिताः । Shining on account of knowledge and other vitrues. (तना) विस्तृतानि धनानि = Vast Wealth तनेतिधननाम (निघ०२.२)
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should administer vast and good Government and conduct other State works, having organised an assembly with the best persons as its President. Without this, there cannot be any stability. Therefore these should be done always and no single king should be accepted by any man.
Subject of the mantra
Then, how should that afore said scholar be?This subject has been discussed in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yaḥ) =Those, (naḥ) =our, (nṛṇām) =of humans, (madhye) =among, (nṛtamaḥ)= very good men, (agniḥ)=of excellent qualities and special knowledge, (iva) =like, (avasā) =by protection etc., (giraḥ) =to speech, (dhītim) =possesses and, (ca) =of good qualities like knowledge etc., (saḥ) =that, (naḥ) =we, (nṛṇām) =among humans, (sabhādhyakṣatvam) =of being President of the Assembly, (vetu) =desiring, [usa pada ko]=to that post, (prāpnotu) =should attain, (ye) =those, (naḥ) =we, (nṛṇām) =of humans, (madhye) =among, (riśādāḥ)= is going to eat and destroy enemy predatory animals, (vājaprasūtāḥ) =Is illuminated with special knowledge etc. qualities, (śaviṣṭhāḥ)= is very strong, (maghavānaḥ+tanā)=of excellent and extended wealth, [kā svāmī hai]=is owner, (ca) =and, (āt) =afterwards, (manma) special knowledge and, (sadguṇān)=of excellent qualities, (iṣayanta) =desire and get them, (te) =they, (naḥ) =our, (sabhāsadaḥ) = councilors, (santu) =be.
English Translation (K.K.V.)
One who is the most excellent man among our human beings, having excellent qualities and special knowledge, who adopts speech through protection etc. and desires auspicious qualities like knowledge etc. May he, desiring to be the President of the Assembly among us humans, attain that position. Among us the one who eats and destroys enemy predatory animals, is illuminated with special knowledge etc. qualities, is extremely powerful, is the owner of excellent and extensive wealth and after this, desiring special knowledge and good qualities, we attain them, may they be our councilors.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There cannot be a stable state by forming an Assembly of human beings through human beings and possibly carrying out the work of the state and the administration of the rotating state without that supreme President. Therefore, for its establishment, not only one king should always be considered, that is, it is also mandatory to have an Assembly.
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