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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 77 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 77/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स हि क्रतुः॒ स मर्यः॒ स सा॒धुर्मि॒त्रो न भू॒दद्भु॑तस्य र॒थीः। तं मेधे॑षु प्रथ॒मं दे॑व॒यन्ती॒र्विश॒ उप॑ ब्रुवते द॒स्ममारीः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । हि । क्रतुः॑ । सः । मर्यः॑ । सः । सा॒धुः । मि॒त्रः । न । भू॒त् । अद्भु॑तस्य । र॒थीः । तम् । मेधे॑षु । प्र॒थ॒मम् । दे॒व॒ऽयन्तीः । विशः॑ । उप॑ । ब्रु॒व॒ते॒ । द॒स्मम् । आरीः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स हि क्रतुः स मर्यः स साधुर्मित्रो न भूदद्भुतस्य रथीः। तं मेधेषु प्रथमं देवयन्तीर्विश उप ब्रुवते दस्ममारीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। हि। क्रतुः। सः। मर्यः। सः। साधुः। मित्रः। न। भूत्। अद्भुतस्य। रथीः। तम्। मेधेषु। प्रथमम्। देवऽयन्तीः। विशः। उप। ब्रुवते। दस्मम्। आरीः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 77; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स विद्वान् कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    देवयन्तीः कामयमाना आरीर्ज्ञानवत्यो विशः प्रजाः मेधेषु तं दस्मं सभाध्यक्षत्वेन प्रथममुपब्रुवते। यो मित्रो न सर्वस्य हृदिव भूद् भवेत्, स हि खलु सर्वथा ऋतः स मर्यो मनुष्यस्वभावः स साधुरद्भुतस्य सैन्यस्य रथो रथवान् भवेत् ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (सः) अग्निर्ज्ञानवान् विद्वान् (हि) खलु (क्रतुः) प्रज्ञाकर्मयुक्तः प्रज्ञाकर्मज्ञापको वा (सः) (मर्यः) मनुष्यः (सः) (साधुः) परोपकारी सन्मार्गस्थितो विद्वान् (मित्रः) सुहृत् (न) इव (भूत्) भवेत्। अत्राडभावः। (अद्भुतस्य) आश्चर्यकर्मयुक्तस्य सैन्यस्य (रथीः) प्रशस्तरथः। अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति सोरलुक्। (तम्) (मेधेषु) अध्ययनाध्यापनसंग्रामादियज्ञेषु (प्रथमम्) सर्वोत्कृष्टम् (देवयन्तीः) कामयमानाः। अत्र वा छन्दसीति पूर्वसवर्णादेशः। (विशः) प्रजाः (उप) (ब्रुवते) (दस्मम्) दुःखानामुपक्षेत्तारम् (आरीः) ज्ञानवत्यः। अत्र ऋ धातोः सर्वधातुभ्य इन्नितीन्। कृदिकारादक्तिन इति ङीष् पूर्वसवर्णादेशश्च ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्यः सर्वोत्कृष्टगुणकर्मस्वभावः सज्जनः सर्वोपकारी मनुष्योऽस्ति, स एव सभाध्यक्षत्वेन राजा मन्तव्यः। नैव कस्यचिदेकस्याज्ञायां राज्यव्यवहारोऽधिकर्त्तव्यः। किन्तु शिष्टसभाधीनान्येव सर्वाणि कार्याणि रक्षणीयानि ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    (देवयन्तीः) कामनायुक्त (आरीः) ज्ञानवाली (विशः) प्रजा (मेधेषु) पढ़ने-पढ़ाने और संग्राम आदि यज्ञों में (तम्) उस (दस्मम्) दुःखनाश करनेवाले को सभाध्यक्ष मान कर (प्रथमम्) सबसे उत्तम (उपब्रुवते) कहती है कि जो (मित्रः) सबका मित्र (न) जैसा (भूत्) हो (स हि) वही सब प्रकार (क्रतुः) बुद्धि और सुकर्म से युक्त (सः) वही (मर्य्यः) मनुष्यपन का रखनेवाला और (सः) वही (साधुः) सबका उपकार करने तथा श्रेष्ठ मार्ग में चलनेवाला विद्वान् (अद्भुतस्य) आश्चर्यकर्मों से युक्त सेना का (रथीः) उत्तम रथवाला रथी होवे ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि जो सबसे अधिक गुण, कर्म और स्वभाव तथा सबका उपकार करनेवाला सज्जन मनुष्य है, उसीको सभाध्यक्ष का अधिकार देके राजा माने अर्थात् किसी एक मनुष्य को स्वतन्त्र राज्य का अधिकार न देवें, किन्तु शिष्ट पुरुषों की जो सभा है, उसके आधीन राज्य के सब काम रक्खें ॥ ३ ॥

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    विषय

    उपासनापूर्वक कार्यों का प्रारम्भ

    पदार्थ

    १. (सः हि) = वे प्रभु ही (क्रतुः) = सब कर्मों के करनेवाले हैं । सब उसी की शक्ति से तो हो रहा है, हम तो उसके निमित्तमात्र हैं । (सः मर्यः) = वे प्रभु ही सब मनुष्यों के [मारयिता] समाप्त करनेवाले हैं । (सः साधुः) = वे ही सब कार्यों को सिद्ध करते हैं । वे प्रभु (मित्रः न भूत्) = सूर्य के समान तेजस्वी हैं । (अद्भुतस्य) = आश्चर्यजनक शक्ति के वे (रथीः) = [रंहयिता, प्रापयिता] प्राप्त करानेवाले हैं । २. (तम्) = उस (दस्मम्) = दर्शनीय प्रभु को (आरीः) = जाती हुई (देवयन्तीः विशः) = दिव्यगुणों को अपनाने की कामनावाली प्रजाएँ (मेधेषु) = सब यज्ञों में (प्रथमम्) = सबसे पूर्व (उपब्रूवते) = स्तुत करती हैं । सब यज्ञों के आरम्भ में उस प्रभु के गुणों का ही उच्चारण करती हैं और वस्तुतः वे प्रजाएँ समझती हैं कि उस प्रभु की कृपा से ही इन यज्ञों की पूर्ति होती है, अतः सब उत्तम कर्मों को वे प्रभु की उपासना से ही प्रारम्भ करती हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - सब यज्ञ प्रभु की कृपा से ही पूर्ण होते हैं, अतः सब उत्तम कर्मों को प्रभु के आराधन से ही प्रारम्भ करना चाहिए ।

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    विषय

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    भावार्थ

    ( स हि ) वह ही ( क्रतुः ) उत्तम कर्मों का कर्त्ता और उत्तम ज्ञानों का प्रकाशक, (सः मर्यः) वह उत्तम मनुष्य, शत्रुओं का मारनेवाला, (सः साधुः) वही परोपकार, सन्मार्ग में स्थित सब कार्यों का साधक, शत्रु को वश करने में समर्थ, ( मित्रः न ) सूर्य के समान तेजस्वी, ( अद्भुतस्य ) आश्चर्यजनक युद्ध करनेवाले सैन्यबल का (रथीः) महारथी, अथवा आश्चर्यजनक ऐश्वर्य को लानेहारा ( भूत् ) हो । ( तम् ) उस ( दस्मम् ) शत्रुओं के नाशक दर्शनीय पुरुष को ( देवयन्तीः ) चाहती हुई, ( आरीः विशः ) ज्ञानयुक्त प्रजाएं ( मेधेषु ) यज्ञों और श्रेष्ठ कार्यों और संग्राम के अवसरों में भी ( प्रथमम् ) सबसे प्रथम, ( उपब्रुवते ) प्रस्तुत करती हैं, उसको सर्वश्रेष्ठ जानकर अग्रासन देती हैं।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ निचृत्पंक्तिः । २ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ५ विराट् त्रिष्टुप् । पंचर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वह विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- देवयन्तीः कामयमाना आरीः ज्ञानवत्यः विशः प्रजाः मेधेषु तं दस्मं सभाध्यक्षत्वेन प्रथमम् उप ब्रुवते। यः मित्रः न सर्वस्य हृत् इव भूत् भवेत् स हि खलु सर्वथा ऋतः {क्रतुः} स मर्यः मनुष्यस्वभावः स साधुः अद्भुतस्य सैन्यस्य {रथीः} रथः रथवान् भवेत् ॥३॥

    पदार्थ

    पदार्थः- (देवयन्तीः) कामयमानाः=कामना करते हुए, (आरीः) ज्ञानवत्यः=ज्ञानवान्, (विशः) प्रजाः=सन्तानों को, (मेधेषु) अध्ययनाध्यापनसंग्रामादियज्ञेषु= अध्ययन, अध्यापन और संग्राम आदि यज्ञों में, (तम्)=उसको, (दस्मम्) दुःखानामुपक्षेत्तारम्=दुःखों की उपेक्षा करनेवाले, (सभाध्यक्षत्वेन)= सभाध्यक्ष के कार्य को, (प्रथमम्) सर्वोत्कृष्टम् =सर्वोत्कृष्ट, (उप)=समीप से, (ब्रुवते)=कहता है, (यः)=जो, (मित्रः) सुहृत्= मित्र के, (न) इव=समान, (सर्वस्य)=सबके, (हृत्)=हृदय के, (इव) =समान, (भूत्) भवेत्=होवे, (सः) अग्निर्ज्ञानवान् विद्वान्=ज्ञानवान् विद्वान्, (हि) खलु=निश्चित रूप से ही, (सर्वथा)=सर्वथा, (ऋतः)= सार्वभौमिक सत्य या पूजित, {क्रतुः} प्रज्ञाकर्मयुक्तः प्रज्ञाकर्मज्ञापको वा=प्रज्ञा और कर्म युक्त व प्रज्ञा और कर्म का ज्ञान करानेवाला है, (सः) =वह, (मर्यः) मनुष्यः= मनुष्य, (मनुष्यस्वभावः)= मनुष्य के स्वभाव से, (सः) =वह, (साधुः) परोपकारी सन्मार्गस्थितो विद्वान्= परोपकारी और सत्य मार्ग पर चलनेवाला विद्वान् है, (अद्भुतस्य) आश्चर्यकर्मयुक्तस्य सैन्यस्य= आश्चर्यजनक कर्मों से युक्त सेना के, {रथीः} प्रशस्तरथः=उत्कृष्ट रथ का, (रथवान्)= रथी, (भवेत्)=होवे ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- मनुष्यों के द्वारा जो सर्वोत्कृष्ट गुण, कर्म और स्वभाववाला तथा सबका उपकार करनेवाला सज्जन मनुष्य है, उसी को सभाध्यक्ष का अधिकार दे करके राजा के व्यवहार करवाने चाहिएँ। किन्तु शिष्ट सभा के अधीनों के द्वारा ही राज्य के सब कार्य और रक्षा की जानी चाहिए ॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (आरीः) ज्ञानवान् (विशः) सन्तानों की, (देवयन्तीः) कामना करते हुए, (मेधेषु) अध्ययन, अध्यापन और संग्राम आदि यज्ञों में, (तम्) उस (दस्मम्) दुःखों की उपेक्षा करनेवाले को (सभाध्यक्षत्वेन) सभाध्यक्ष के कार्य को (प्रथमम्) सर्वोत्कृष्टता से और (उप) समीप से (ब्रुवते) कहता है। (यः) जो (मित्रः) मित्र के (न) समान और (सर्वस्य) सबके (हृत्) हृदय के (इव) समान (भूत्) होवे। (सः) ज्ञानवान् विद्वान् (हि) निश्चित रूप से ही (सर्वथा) सर्वथा (ऋतः) सार्वभौमिक सत्य या पूजित होता है। {क्रतुः} प्रज्ञा व कर्म युक्त होता है और प्रज्ञा व कर्म का ज्ञान करानेवाला होता है। (सः) वह (मर्यः) मनुष्य (मनुष्यस्वभावः) स्वभाव से (साधुः) परोपकारी और सत्य मार्ग पर चलनेवाला विद्वान् है। [वह] (अद्भुतस्य) आश्चर्यजनक कर्मों से युक्त सेना के {रथीः} उत्कृष्ट रथ का (रथवान्) रथी (भवेत्) होवे ॥३॥

    संस्कृत भाग

    सः । हि । क्रतुः॑ । सः । मर्यः॑ । सः । सा॒धुः । मि॒त्रः । न । भू॒त् । अद्भु॑तस्य । र॒थीः । तम् । मेधे॑षु । प्र॒थ॒मम् । दे॒व॒ऽयन्तीः । विशः॑ । उप॑ । ब्रु॒व॒ते॒ । द॒स्मम् । आरीः॑ ॥ विषयः- पुनः स विद्वान् कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्यः सर्वोत्कृष्टगुणकर्मस्वभावः सज्जनः सर्वोपकारी मनुष्योऽस्ति, स एव सभाध्यक्षत्वेन राजा मन्तव्यः। नैव कस्यचिदेकस्याज्ञायां राज्यव्यवहारोऽधिकर्त्तव्यः। किन्तु शिष्टसभाधीनान्येव सर्वाणि कार्याणि रक्षणीयानि ॥३॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी सर्वात उत्कृष्ट गुण, कर्म, स्वभाव व सर्वांवर उपकार करणाऱ्या सज्जन माणसाला सभाध्यक्षाचा अधिकार द्यावा व राजा मानावे. अर्थात एखाद्या माणसाला स्वतंत्र राज्याचा अधिकार देता कामा नये; परंतु सभ्य पुरुषांच्या सभेच्या अधीन राज्याचे सर्व काम ठेवावे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni is the power and performer of yajna. He is human, close to humanity. He is good and saintly. May he abide as our friend, master of the wonderful chariot of existence. Lord of love, beauty and goodness as he is, him only, in the noblest yajnic programmes the loving, pious and knowledgeable people approach for address and redress, first and supreme as he is.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is a learned person is taught further in the 3rd Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    All learned persons desiring the welfare of all subjects, speak of the Agni (leader or President of the Assembly) as the first and foremost destroyer of all miseries in all Yajnas in the form of reading, teaching and battles). He is truly the friend of all, endowed with wisdom and noble actions, a benevolent righteous man. He is the leader of the wonderful army.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (दस्मम्) दुःखानाम् उपक्षेप्तारम् । = Destroyer of all miseries. (मेधेषु ) अध्ययनाध्यापनसंग्रामादियज्ञेषु = In the Yajnas in the form of reading, teaching and waging righteous battles. (आरी:) ज्ञानवत्यः = Learned or wise. (देवयन्तीः) कामयमानाः = Desiring the welfare of all.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should regard as King the President of the Assembly or the Council of Ministers one who is the best and the most virtuous benevelent man. No one man should monopolise all authority of the State, but an assembly of noble persons should be entrusted with all works of the State.

    Translator's Notes

    दस्मम् is derived from दसु उपक्षये hence the above meaning of दुःखानाम् उपक्षेप्तारम् मेध इति यज्ञ नाम (निघ० ३.१७) मेधाः-मेध-मेधासंगमनयोः हिंसायां च | Hence the above interpretation given by Rishi Dayananda which is supported by the Verses like अध्यापनं ब्रह्मयज्ञ:(मनु०) दिवु - क्रीडा विजिगीषा व्यवहार द्य तिस्तुति मोदमद स्वप्न कान्ति गतिषु । here the meaning of कान्ति-कामना or desire has been taken both by Sayana and Rishi Dayananda Saraswati. Sayanacharya has interpreted it as देवान (मात्मनः इच्छन्त्य:आरो: is derived from ॠ-गति प्रापणयो: Taking the first meaning of गति as ज्ञान or knowledge Rishi Dayananda has explained it as ज्ञानवत्यः| It is note worthy that in this mantra the epithet used for अग्नि (Agni) is मर्य: which Rishi Dayananda Saraswati has correctly and straightforwardly explained as मनुष्य:-मनुष्यस्वभावः = A man of true human nature But as Sayanacharya = is not prepared to accept that Agni can be a man, he explains it as मर्य: as मारयिता-विश्वस्योपसंहर्ता and साधुः साधयिता उत्पादयिता creator of the word. It is certainly a very far-fetched meaning, while as Rishi Dayananda's meaning of the word : (Maryah) as मनुष्यः Man and साधु:(Sadhu) as परोपकारी सन्मार्ग स्थितोविद्वान् is quite straight forward and simple साधयति परकार्याणीति साधुः Griffith's translation is better. He has translated as a man and साधु: as “perfect” which though not appropriate is better than Creator of the world.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of scholar that should be?This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (ārīḥ)= knowledgeable, (viśaḥ) =of children,, (devayantīḥ)=desiring, (medheṣu)=In the yajnas of study, teaching and struggle etc., (tam) =that, (dasmam)=to one who ignores sufferings, (sabhādhyakṣatvena) =to work of the President of Assembly, (prathamam)=with excellence and, (upa) =in closest way, (bruvate) =says, (yaḥ) =that, (mitraḥ) =of friend, (na) =like and, (sarvasya) =of all, (hṛt) =of mind, (iva) =like, (bhūt) =be, (saḥ)= knowledgeable scholar, (hi) =definitely, (sarvathā) =fully, (ṛtaḥ)= universal truth or is worshiped, {kratuḥ} =It is full of wisdom and action and it imparts knowledge of wisdom and action, (saḥ) =that, (maryaḥ)=human, (manuṣyasvabhāvaḥ)=by nature, (sādhuḥ) =is a scholar who is charitable and follows the path of truth, [vaha]=he, (adbhutasya) =of an army of wonderful karmas, (rathavān) charioteer (bhavet) =be.

    English Translation (K.K.V.)

    While desiring for knowledgeable children, in the yajnas like study, teaching and fighting etc., he describes the work of the President of the Assembly in the best and closest way, to the one who ignores the sufferings. Who is like a friend and like everyone's mind. A knowledgeable scholar definitely and fully has universal truth or is worshiped. He is full of wisdom and action and he imparts knowledge of wisdom and action. He is a philanthropist by human nature and a scholar who follows the path of truth. May he be the charioteer of an excellent chariot of the army with amazing karmas.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The person who is a gentleman with the quintessential qualities, actions and nature and who helps everyone, should be given the right to be the President of the Assembly and should be made to behave like a king. But all the work and protection of the state should be done by the subordinates of the noble Assembly.

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