Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 8 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 8/ मन्त्र 3
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    इन्द्र॒ त्वोता॑स॒ आ व॒यं वज्रं॑ घ॒ना द॑दीमहि। जये॑म॒ सं यु॒धि स्पृधः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑ । त्वाऽऊ॑तासः । आ । व॒यम् । वज्र॑म् । घ॒ना । द॒दी॒म॒हि॒ । जये॑म । सम् । यु॒धि । स्पृधः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र त्वोतास आ वयं वज्रं घना ददीमहि। जयेम सं युधि स्पृधः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र। त्वाऽऊतासः। आ। वयम्। वज्रम्। घना। ददीमहि। जयेम। सम्। युधि। स्पृधः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्याः किं धृत्वा शत्रून् जयन्तीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! त्वोतासो वयं स्वविजयार्थं घना आददीमहि, यतो वयं युधि स्पृधो जयेम॥३॥

    पदार्थः

    (इन्द्र) अनन्तबलेश्वर ! (त्वोतासः) त्वया बलं प्रापिताः (आ) क्रियार्थे (वयम्) बलवन्तो धार्मिका शूराः (वज्रम्) शत्रूणां बलच्छेदकमाग्नेयादिशस्त्रास्त्रसमूहम् (घना) शतघ्नीभुसुण्ड्यसिचापबाणादीनि दृढानि युद्धसाधनानि। शेश्छन्दसि बहुलमिति लुक्। (ददीमहि) गृह्णीमः। अत्र लडर्थे लिङ्। (जयेम) (सं) क्रियार्थे (युधि) संग्रामे (स्पृधः) स्पर्धमानान् शत्रून्। ‘स्पर्ध सङ्घर्षे’ इत्यस्य क्विबन्तस्य रूपम्। बहुलं छन्दसि। (अष्टा०६.१.३४) अनेन सम्प्रसारणमल्लोपश्च॥३॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्धर्मेश्वरावाश्रित्य शरीरपुष्टिं विद्ययात्मबलं पूर्णां युद्धसामग्रीं परस्परमविरोधमुत्साहमित्यादि सद्गुणान् गृहीत्वा सदैव दुष्टानां शत्रूणां पराजयकरणेन सुखयितव्यम्॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य किसको धारण करने से शत्रुओं को जीत सकते हैं, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) अनन्तबलवान् ईश्वर ! (त्वोतासः) आपके सकाश से रक्षा आदि और बल को प्राप्त हुए (वयम्) हम लोग धार्मिक और शूरवीर होकर अपने विजय के लिये (वज्रम्) शत्रुओं के बल का नाश करने का हेतु आग्नेयास्त्रादि अस्त्र और (घना) श्रेष्ठ शस्त्रों का समूह, जिनको कि भाषा में तोप बन्दूक तलवार और धनुष् बाण आदि करके प्रसिद्ध कहते हैं, जो युद्ध की सिद्धि में हेतु हैं, उनको (आददीमहि) ग्रहण करते हैं। जिस प्रकार हम लोग आपके बल का आश्रय और सेना की पूर्ण सामग्री करके (स्पृधः) ईर्षा करनेवाले शत्रुओं को (युधि) संग्राम में (जयेम) जीतें॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को उचित है कि धर्म और ईश्वर के आश्रय से शरीर की पुष्टि और विद्या करके आत्मा का बल तथा युद्ध की पूर्ण सामग्री परस्पर अविरोध और उत्साह आदि श्रेष्ठ गुणों का ग्रहण करके दुष्ट शत्रुओं के पराजय करने से अपने और सब प्राणियों के लिये सुख सदा बढ़ाते रहें॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    विषय(भाषा)- मनुष्य किसको धारण करने से शत्रुओं को जीत सकते हैं, सो इस मन्त्र में प्रकाश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे इन्द्र ! त्वोतासो वयं स्वविजयार्थं घना आ ददीमहि, यतः वयं युधि स्पृधो जयेम॥३॥

    पदार्थ

    हे  (इन्द्र)! अनन्तबलेश्वर=अनन्त बलवान् ईश्वर!  (त्वोतासः) त्वया बलं प्रापिताः=आपके बल से प्राप्त हुए, (वयम्)=हम, (स्व)=अपनी, (विजयार्थम्)=विजय के लिये (घना) शतघ्नीभुसुण्ड्यसिचापबाणादीनि दृढानि युद्धसाधनानि=श्रेष्ठ शस्त्रों का समूह, जिनको हिन्दी भाषा में तोप, बन्दूक, तलवार और धनुष-बाण आदि कहते हैं, (आ) आ समन्तात्= हर ओर से, (ददीमहि)=हमें दीजिये, (यतः)=जिस से, (वयम्)=हम (स्पृधः) स्पर्धमानान् शत्रून्=प्रतिस्पर्धा करने वाले शत्रुओं को, (जयेम)=जीतें।

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    मनुष्यों के लिए उचित है कि धर्म और ईश्वर के आश्रय से शरीर की पुष्टि और विद्या करके आत्मा का बल तथा युद्ध की पूर्ण सामग्री परस्पर अविरोध और उत्साह आदि श्रेष्ठ गुणों का ग्रहण करके दुष्ट शत्रुओं के पराजय करने से अपने और सब प्राणियों के लिये सुख सदा बढ़ाते रहें॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे  (इन्द्र) अनन्त बलवान् ईश्वर!  (त्वोतासः) आपके बल से प्राप्त हुए (वयम्) हम (स्व)अपनी (विजयार्थम्) विजय के लिये (घना) श्रेष्ठ शस्त्रों का समूह, जिनको हिन्दी भाषा में तोप, तलवार और धनुष आदि कहते हैं, (आ) हर ओर से (ददीमहि) हमें दीजिये (यतः) जिस से (वयम्) हम (स्पृधः) प्रतिस्पर्धा करने वाले शत्रुओं को (जयेम) जीतें।

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इन्द्र) अनन्तबलेश्वर ! (त्वोतासः) त्वया बलं प्रापिताः (आ) क्रियार्थे (वयम्) बलवन्तो धार्मिका शूराः (वज्रम्) शत्रूणां बलच्छेदकमाग्नेयादिशस्त्रास्त्रसमूहम् (घना) शतघ्नीभुसुण्ड्यसिचापबाणादीनि दृढानि युद्धसाधनानि। शेश्छन्दसि बहुलमिति लुक्। (ददीमहि) गृह्णीमः। अत्र लडर्थे लिङ्। (जयेम) (सं) क्रियार्थे (युधि) संग्रामे (स्पृधः) स्पर्धमानान् शत्रून्। 'स्पर्ध सङ्घर्षे' इत्यस्य क्विबन्तस्य रूपम्। बहुलं छन्दसि। (अष्टा०६.१.३४) अनेन सम्प्रसारणमल्लोपश्च॥३॥
    विषयः- मनुष्याः किं धृत्वा शत्रून् जयन्तीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे इन्द्र ! त्वोतासो वयं स्वविजयार्थं घना आददीमहि, यतो वयम् युधि स्पृधो जयेम॥३॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्धर्मेश्वरावाश्रित्य शरीरपुष्टिं विद्ययात्मबलं पूर्णां युद्धसामग्रीं परस्परमविरोधमुत्साहमित्यादि सद्गुणान् गृहीत्वा सदैव दुष्टानां शत्रूणां पराजयकरणेन सुखयितव्यम्॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    दृढ़ शस्त्र

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार ही प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि हमें 'वर्षिष्ठ धन' को इसलिए प्राप्त कराइए कि हे (इन्द्र) - शत्रुओं का विदारण करनेवाले प्रभो ! (त्वा) - आपसे (ऊतासः) रक्षित किये गये (वयम्) - हम (घना) - दृढ़ (वज्रम्) - अस्त्रों को (आददीमहि) - ले सकें । अस्त्रों को खरीदने के लिए हमारे राष्ट्रकोष में पर्याप्त धन हो । 'प्रकर्षशस्त्रा हि रणे जयश्रीः ' युद्ध में जयश्री तो शस्त्रों की उत्कृष्टता पर ही आश्रित हैं । शस्त्र ही न होंगे तो सैनिक क्या कर लेगें? बिना उपकरण के कार्यसिद्धि नहीं होती । २. हे प्रभो ! धन से उत्कृष्ट अस्त्रों का हम संग्रह करें और (युधि) - युद्ध में (स्पृधः) - स्पर्धा करनेवाले शत्रुओं को (संजयेम) - पूरी तरह जीत लें । विजय के लिए जहाँ सैनिकों की शक्ति व उत्साह का महत्त्व है  , वहाँ शस्त्रास्त्र का भी उतना ही महत्त्व है । वास्तविकता तो यह है कि शस्त्रास्त्रों की उत्तमता सैनिकों की उत्साहवृद्धि का कारण बनती है । इन शस्त्रास्त्रों के खरीदने के लिए धन आवश्यक ही है । 

     

    भावार्थ

    भावार्थ - हमें इतना धन मिले कि हम उत्तम शस्त्रों का क्रय करके स्पर्धा करती हुई शत्रु-सेनाओं को जीतनेवाले बनें । 

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    परमेश्वर, राजा, सेनापति

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) शत्रुनाशक ! राजन् ! परमेश्वर ! ( त्वा—उतासः ) तेरे अधीन सुरक्षित रहकर ( वयम् ) हम ( वज्रम् ) शत्रु के वरण करनेवाले शस्त्रास्त्र और ( घना ) उनको हनन करने वाले संहारकारी साधनों को ( आददीमहि ) हम ग्रहण करें । ( युधि ) युद्ध में हम ( स्पृधः ) स्पर्धा करने वाले शत्रुओं को ( जयेम ) विजय करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १—१० मधुच्छन्दा ऋषिः । इन्द्रो देवता । गायत्र्य: । दशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी धर्म व ईश्वराचा आश्रय घ्यावा. शरीराची पुष्टी करून विद्येने आत्म्याचे बल वाढवावे. युद्धाचे पूर्ण साहित्य, परस्पर अविरोध व उत्साह इत्यादी श्रेष्ठ गुणांचे ग्रहण करून दुष्ट शत्रूंचा पराजय करावा व आपले आणि प्राण्यांचे सुख सदैव वाढवीत जावे. ॥ ३ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, lord of might and splendour, under your divine protection, may we develop, we pray, strong and sophisticated weapons of defence so that fighting battles of mutual contest we may win the prize of victory.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    Men can get victory over their rivals by possessing which armament, this is elucidated in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (indra)=Omnipotent God, (tvotāsaḥ)=being obtained by your power we, (vayam)=we, (sva)=our Ghana=great collection of armament which is, (vijayārtham)=for victory, (ghanā) called as cannons, swords and bows et cetera in Hindi language, (ā)=from all directions, (dadīmahi)=give us, (yataḥ)=in which way, (vayam)=we, (spṛdhaḥ)=rival enemies, (jayema)=must win.

    English Translation (K.K.V.)

    O Omnipotent God! Kindly, give us from all directions for our victory great collection of armaments like cannons, swords and bows et cetera for victory over our rival enemies.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    It is proper for humans to strengthen the body with righteousness and get knowledge and strength of soul by God's shelter. Get the full armaments of the war. Always increase happiness for oneself and all living beings by defeating evil enemies by imbibing the best qualities of mutual non-resistance and enthusiasm et cetera.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How do men conquer enemies is taught in the 3rd Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Almighty God, protected and strengthened oy Thee, inay we lift up for our victory ponderous weapons which destroy the power of our opponents and canons, guns, swords and other arms wherewith we may entirely conquer our foes in fight.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should take shelter in God and Dharma (righteousness), should be strong in body and develop their soul force through wisdom, possessing full war-materials, mutual friendship and unity, zeal and other good qualities, should enjoy happiness by defeating the un-righteous enemies.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top