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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 8/ मन्त्र 7
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    यः कु॒क्षिः सो॑म॒पात॑मः समु॒द्रइ॑व॒ पिन्व॑ते। उ॒र्वीरापो॒ न का॒कुदः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । कु॒क्षिः । सो॒म॒ऽपात॑मः । स॒मु॒द्रःऽइ॑व । पिन्व॑ते । उ॒र्वीः । आपः॑ । न । का॒कुदः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यः कुक्षिः सोमपातमः समुद्रइव पिन्वते। उर्वीरापो न काकुदः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। कुक्षिः। सोमऽपातमः। समुद्रःऽइव। पिन्वते। उर्वीः। आपः। न। काकुदः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 8; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्रशब्देन सूर्य्यलोकगुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः

    यः कुक्षिः सोमपातमः सूर्य्यलोकः समुद्र इव जलानीवापः काकुदो न प्राणा वायवो वाचः शब्दसमूहमिवोर्वीः पृथिवीः पिन्वते॥७॥

    पदार्थः

    (यः) सूर्य्यलोकः (कुक्षिः) कुष्णाति निष्कर्षति सर्वपदार्थेभ्यो रसं यः। अत्र प्लुषिकुषिशुषिभ्यः क्सिः। (उणा०३.१५५) अनेन ‘कुष’ धातोः क्सिः प्रत्ययः। (सोमपातमः) यः सोमान्पदार्थान् किरणैः पाति सोऽतिशयितः (समुद्र इव) समुद्रवन्त्यापो यस्मिंस्तद्वत् (पिन्वते) सिञ्चति सेवते वा (उर्वीः) बह्वीः पृथिवीः। उर्वीति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (आपः) जलानि, वाऽऽप्नुवन्ति शब्दोच्चारणादिव्यवहारान् याभिस्ता आपः प्राणः। आप इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) आप इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.३) आभ्यां प्रमाणाभ्यामप्शब्देनात्रोदकानि सर्वचेष्टाप्राप्तिनिमित्तत्वात् प्राणाश्च गृह्यन्ते। (न) उपमार्थे (काकुदः) वाचः शब्दसमूहः। काकुदिति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११)॥७॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारौ स्तः। इन्द्रेणेश्वरेण यथा जलस्थितिवृष्टिहेतुः समुद्रो वाग्व्यवहारहेतुः प्राणश्च रचितस्तथैव पृथिव्याः प्रकाशाकर्षणादे रसविभागस्य च हेतुः सूर्य्यलोको निर्मितः। एताभ्यां सर्वप्राणिनामनेके व्यवहाराः सिध्यन्तीति॥७॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से सूर्य्यलोक के गुणों का व्याख्यान किया है-

    पदार्थ

    (समुद्र इव) जैसे समुद्र को जल (आपो न काकुदः) शब्दों के उच्चारण आदि व्यवहारों के करानेवाले प्राण वाणी का सेवन करते हैं, वैसे (कुक्षिः) सब पदार्थों से रस को खींचनेवाला तथा (सोमपातमः) सोम अर्थात् संसार के पदार्थों का रक्षक जो सूर्य्य है, वह (उर्वीः) सब पृथिवी को सेवन वा सेचन करता है॥७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। ईश्वर ने जैसे जल की स्थिति और वृष्टि का हेतु समुद्र तथा वाणी के व्यवहार का हेतु प्राण बनाया है, वैसे ही सूर्य्यलोक वर्षा होने, पृथिवी के खींचने, प्रकाश और रसविभाग करने का हेतु बनाया है, इसी से सब प्राणियों के अनेक व्यवहार सिद्ध होते हैं॥७॥

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    विषय

    इस मन्त्र में इन्द्र शब्द से सूर्य्यलोक के गुणों का व्याख्यान किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यः कुक्षिः सोमपातमः सूर्य्यलोकः समुद्रम्  इव जलानीवापः काकुदः न प्राणा वायवः वाचः शब्दसमूहम् इव उर्वीः पृथिवीः पिन्वते॥७॥

    पदार्थ

    (यः) सूर्य्यलोकः= सूर्य्यलोक, (कुक्षिः) कुष्णाति निष्कर्षति सर्वपदार्थेभ्यो रसं यः=जो सब पदार्थों के रस को खींचने और निकालने का काम करता है, (सोमपातमः) यः सोमान्पदार्थान् किरणैः पाति सोऽतिशयितः=जो सोम से संसार के पदार्थों की रक्षा करता है, (सूर्य्यलोकः)=सूर्य्यलोक, (समुद्रम्)=समुद्र को, (जलानि)=जलों, (इव)=जैसे, (आपः) जलानि, वाऽऽप्नुवन्ति शब्दोच्चारणादिव्यवहारान् याभिस्ता आपः प्राणः=जल या शब्दों के उच्चारण से प्राप्त होते हैं, ऐसे वे प्राण, (काकुदः) वाचः शब्दसमूहः=वाणी शब्द समूह, (न) उपमार्थे=जैसे, (प्राणा)=प्राण, (वायवः)=वायु, (वाचः)=वाणी, (शब्दसमूहम्)=शब्दसमूह, (इव)=जैसे, (उर्वीः) बह्नी पृथिवी=सब पृथिवी, (पृथिवीः)=पृथिवी, (पिन्वते) सिंचति सेवते वा=सींचता या पीता है॥७॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। ईश्वर ने जैसे जल की स्थिति और वृष्टि का हेतु समुद्र तथा वाणी के व्यवहार का हेतु प्राण बनाया है, वैसे ही सूर्य्यलोक वर्षा होने, पृथिवी के खींचने, प्रकाश और रसविभाग करने का हेतु बनाया है, इसी से सब प्राणियों के अनेक व्यवहार सिद्ध होते हैं॥७॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यः) सूर्य्यलोक (कुक्षिः) जो सब पदार्थों के रस को खींचने और निकालने का काम करता है (सोमपातमः) और सोम से संसार के पदार्थों की रक्षा करता है । (सूर्य्यलोकः) सूर्य्यलोक (समुद्रम्) समुद्र के (जलानि) जलों को [जल वाष्प के रूप में खींचता है] । (इव) इसी प्रकार (आपः) शब्दों के उच्चारण होते हैं। (काकुदः) वाणी के शब्द समूहों का (प्राणा) प्राण (वायवः) वायु से (वाचः) उच्चारण होता है। (इव) इसी प्रकार (उर्वीः) सारी पृथिवी (पिन्वते) के रस का सिंचन या सेवन करते हुए सूर्य पीता है॥७॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (यः) सूर्य्यलोकः (कुक्षिः) कुष्णाति निष्कर्षति सर्वपदार्थेभ्यो रसं यः। अत्र प्लुषिकुषिशुषिभ्यः क्सिः। (उणा०३.१५५) अनेन 'कुष' धातोः क्सिः प्रत्ययः। (सोमपातमः) यः सोमान्पदार्थान् किरणैः पाति सोऽतिशयितः (समुद्र इव) समुद्रवन्त्यापो यस्मिंस्तद्वत् (पिन्वते) सिञ्चति सेवते वा (उर्वीः) बह्वीः पृथिवीः। उर्वीति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (आपः) जलानि, वाऽऽप्नुवन्ति शब्दोच्चारणादिव्यवहारान् याभिस्ता आपः प्राणः। आप इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) आप इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.३) आभ्यां प्रमाणाभ्यामप्शब्देनात्रोदकानि सर्वचेष्टाप्राप्तिनिमित्तत्वात् प्राणाश्च गृह्यन्ते। (न) उपमार्थे (काकुदः) वाचः शब्दसमूहः। काकुदिति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११)॥७॥
    विषयः- अथेन्द्रशब्देन सूर्य्यलोकगुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः- यः कुक्षिः सोमपातमः सूर्य्यलोकः समुद्रं इव जलानीवापः काकुदो न प्राणा वायवो वाचः शब्दसमूहमिवोर्वीः पृथिवीः पिन्वते॥७॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारौ स्तः। इन्द्रेणेश्वरेण यथा जलस्थितिवृष्टिहेतुः समुद्रो वाग्व्यवहारहेतुः प्राणश्च रचितस्तथैव पृथिव्याः प्रकाशाकर्षणादे रसविभागस्य च हेतुः सूर्य्यलोको निर्मितः। एताभ्यां सर्वप्राणिनामनेके व्यवहाराः सिध्यन्तीति॥७॥

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    विषय

    सोम - पायी

    पदार्थ

    १. विजय - लाभ के लिए यह भी आवश्यक है कि हम सोमपान करनेवाले बनें । प्रभुस्तवन से वासना का क्षय होकर ही सोमपान सम्भव होता है और (यः कुक्षिः) - जो उदर (सोमपातमः) - अधिक-से-अधिक सोम का पान करनेवाला होता है  , अर्थात् सोम को अपने में पूर्णतया सुरक्षित करता है  , वही (समुद्रः इव) - अन्तरिक्ष के समुद्र की भाँति (पिन्वते) - सेचन करनेवाला होता है [समुद्र जैसे मुघरूप होकर सबपर सुखों की वर्षा करनेवाला होता है  , इसी प्रकार यह संयमी पुरुष भी सभी को सुखी करने का प्रयत्न करता है । पृथिवीस्थ समुद्र की तरह मेघाच्छन्न अन्तरिक्ष भी समुद्र ही होता है - [समुद्र इति अन्तरिक्षनाम - नि० १.३] । 

    २. इस सोमपान करनेवाले के (आपः) - कर्म (उर्वीः) - विशाल होते हैं । यह संकुचित कर्मों को न करके व्यापक कमों को करनेवाला होता है । "उदारं धर्ममित्याहुः" इस लक्षण के अनुसार इसके सब कर्म उदार होने से धर्मरूप होते हैं । संकुचित स्वार्थ की वृत्ति से होनेवाले कर्मों में ही अधर्म होता है । 

    ३. यह कर्मवीर पुरुष (न काकुदः) - बहुत बोलनेवाला नहीं होता । [काकुत् इति वाङ्नाम निघण्टौ] । यह कर्मवीर होता है नकि वाग्वीर । वस्तुतः अशक्त पुरुष बोलता अधिक है  , जैसे कि एक मरियल कुत्ता भौंकता अधिक है । वीरपुरुष मौन रहकर कर्म पर बल देता है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - सोमपायी के तीन लक्षण हैं - [क] यह अन्तरिक्ष में होनेवाले मेष की भांति सबपर सुखों की वर्षा करता है [ख] इसके कार्य उदार होते हैं  , [ग] यह बोलता कम है  , कर्मवीर होता है न कि वाग्वीर । 

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    विषय

    नायक विद्वान् पुरुषों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( यः ) जो सूर्य के समान ( कुक्षिः ) समस्त पदार्थों द्वारा भाग रस को ले लेने में समर्थ है, जो (सोमपातमः) मेघ के समान उत्तम उत्तम ऐश्वर्य का सबसे उत्तम पालक, एवं सोम अर्थात् राजपद का पालक, अथवा उपभोक्ता जल का ग्रहणकर्त्ता होकर (समुद्रः इव) जलों को बरसा देने वाले अन्तरिक्ष या मेघ या सूर्य के समान ही प्रजाओं पर (काकुदः) शब्द पूर्वक वर्षण करने वाले मेघ के समान ( उर्वीः ) पृथ्वियों, उन पर बसने वाली प्रजाओं पर ( आपः ) और प्राप्त करने योग्य पदार्थों को या जलधाराओं के समान आप्तों का ( पिन्वते ) सेवन करता है वही राजा आदरयोग्य है । अथवा—( आपः ) प्राणगण जिस प्रकार ( काकुदः ) वाणियों को सेवन ( करते हैं और जिस प्रकार (सोमपातमः) सर्व पदार्थों का रक्षक सूर्य या जल ग्रहण करने वाला मेध ( उर्वीः ) पृथ्वियों को सींचता है उसी प्रकार जो राजा प्रजाओं को बढ़ाता है वह आदरयोग्य है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १—१० मधुच्छन्दा ऋषिः । इन्द्रो देवता । गायत्र्य: । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात दोन उपमालंकार आहेत. ईश्वराने जशी जलाची स्थिती व वृष्टीचा हेतू समुद्र तसेच वाणीच्या व्यवहारासाठी प्राण बनविलेले आहेत व सूर्यलोक पर्जन्यासाठी, पृथ्वीच्या आकर्षणासाठी, प्रकाश देण्यासाठी व रसविभाग करण्यासाठी बनविलेला आहे. यामुळे सर्व प्राण्यांचे अनेक व्यवहार सिद्ध होतात. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, the sun, is the womb of life, it feeds and promotes the life-giving vegetation. Just as the sea and the space-ocean of vapours augment the waters, the wide earth generates and promotes life, the throat cavity sustains prana, and prana promotes speech, so does the sun nourish and promote life, soma and joy.

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    Subject of the mantra

    In this mantra Sun region’s qualities have been explained.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yaḥ)=Sun world, (kukṣiḥ)=one who works to draw and extract the juice of all substances, (somapātamaḥ)=and protects the material things of the world with Soma, (sūryyalokaḥ)=Sun world, (samudram)=of ocean, (jalāni)=to waters, [jala vāṣpa ke rūpa meṃ khīṃcatā hai]= draws in as water vapor, (iva)=in the same way, (āpaḥ)=pronouncing the words, (kākudaḥ)=of the groups words of speech, (prāṇā)=life breath, (vāyavaḥ)=by air, (vācaḥ)=is pronounced, (iva)=in the same way, (urvīḥ)=the whole earth, (pinvate)=the sun drinks while irrigating or consuming the juice of.

    English Translation (K.K.V.)

    Sun-world, which works to draw and extract the juice of all the substances and protects the substances of the world with the Soma. Sun world draws the waters of the ocean in the form of vapors. This is how words are pronounced. The word groups of speech are pronounced by life breath. Similarly, the Sun drinks the juice of the whole earth while watering or consuming it.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There are two similes as figurative in this mantra. Just as God has created the ocean for the state of water and rain, and the soul for the practice of speech, in the same way, the Sun-world has been created for the rain, the earth to be drawn, the light and juice section, this accomplishes many practices of all the living beings.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    By Indra, the attributes of the sun are taught in the seventh mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The sun takes the sap of all plants, and protects all objects objects with his rays. He fills all earths as the waters fill the ocean, the Pranas or vital breaths fill different parts of the body and the operations of the tongue pronounce words.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There are two similes here. As God has created the ocean which is the cause of storing the water and rain, so the Prana is the cause of speech. In the same manner, God has made the sun cause of the earth's light and gravitation as well as of taking the juice of herbs, plants etc. By these i. e. the ocean, Prana and the sun, many purposes are accomplished.

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