ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 8/ मन्त्र 6
ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
स॒मो॒हे वा॒ य आश॑त॒ नर॑स्तो॒कस्य॒ सनि॑तौ। विप्रा॑सो वा धिया॒यवः॑॥
स्वर सहित पद पाठस॒म्ऽओ॒हे । वा॒ । ये । आश॑त । नरः॑ । तो॒कस्य॑ । सनि॑तौ । विप्रा॑सः । वा॒ । धि॒या॒ऽयवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
समोहे वा य आशत नरस्तोकस्य सनितौ। विप्रासो वा धियायवः॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽओहे। वा। ये। आशत। नरः। तोकस्य। सनितौ। विप्रासः। वा। धियाऽयवः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 8; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मनुष्यैः कीदृशा भूत्वा युद्धं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते।
अन्वयः
ये विप्रासो नरस्ते समोहे शत्रूनाशत वा ये धियायवस्ते तोकस्य सनितावाशत ॥६॥
पदार्थः
(समोहे) संग्रामे। समोहे इति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं०२.१७) (वा) पक्षान्तरे (ये) योद्धारो युद्धम् (आशत) व्याप्तवन्तो भवेयुः। ‘अशूङ् व्याप्तौ’ इत्यस्माल्लिङर्थे लुङ्प्रयोगः। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति च्लेरभावः। (नरः) मनुष्याः (तोकस्य) संतानस्य (सनितौ) भोगसंविभागलाभे। तितुत्र० (अष्टा०७.२.९) आग्रहादीनामिति वक्तव्यमिति वार्त्तिकेनेडागमः। (विप्रासः) मेधाविनः। विप्र इति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं०३.१५) आज्जसेरसुक्। (अष्टा०७.१.५०) अनेन जसोऽसुगागमः। (वा) व्यवहारान्तरे (धियायवः) ये धियं विज्ञानमिच्छन्तः, धीयते धार्य्यते श्रुतमनया सा धिया, तामात्मन इच्छन्ति ते, ‘धि धारणे’ इत्यस्य कप्रत्ययान्तः प्रयोगः ॥६॥
भावार्थः
इन्द्रेश्वरः सर्वान्मनुष्यानाज्ञापयति-संसारेऽस्मिन्मनुष्यैः कार्य्यद्वयं कर्त्तव्यम्। ये विद्वांसस्तैर्विद्याशरीरबले सम्पाद्यैताभ्यां शत्रूणां बलान्यभिव्याप्य सदैव तिरस्कर्त्तव्यानि। मनुष्यैर्यदा यदा शत्रुभिः सह युयुत्सा भवेत्तदा तदा सावधानतया शत्रूणां बलान्न्यूनान्न्यूनं द्विगुणं स्वबलं सम्पाद्यैव तेषां कृतेनापराजयेन प्रजाः सततः रक्षणीयाः। ये च विद्यादानं चिकीर्षवस्ते कन्यानां पुत्राणां च विद्याशिक्षाकरणे प्रयतेरन्। यतः शत्रूणां पराभवेन सुराज्यविद्यावृद्धी सदैव भवेताम् ॥६॥
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्यों को कैसे होकर युद्ध करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-
पदार्थ
(विप्रासः) जो अत्यन्त बुद्धिमान् (नरः) मनुष्य हैं, वे (समोहे) संग्राम के निमित्त शत्रुओं को जीतने के लिये (आशत) तत्पर हों, (वा) अथवा (धियायवः) जो कि विज्ञान देने की इच्छा करनेवाले हैं, वे (तोकस्य) सन्तानों के (सनितौ) विद्या की शिक्षा में (आशत) उद्योग करते रहें ॥६॥
भावार्थ
ईश्वर सब मनुष्यों को आज्ञा देता है कि-इस संसार में मनुष्यों को दो प्रकार का काम करना चाहिये। इनमें से जो विद्वान् हैं, वे अपने शरीर और सेना का बल बढ़ाते और दूसरे उत्तम विद्या की वृद्धि करके शत्रुओं के बल का सदैव तिरस्कार करते रहें। मनुष्यों को जब-जब शत्रुओं के साथ युद्ध करने की इच्छा हो, तब-तब सावधान होके प्रथम उनकी सेना आदि पदार्थों से कम से कम अपना दोगुना बल करके उनके पराजय से प्रजा की रक्षा करनी चाहिये। तथा जो विद्याओं के पढ़ाने की इच्छा करनेवाले हैं, वे शिक्षा देने योग्य पुत्र वा कन्याओं को यथायोग्य विद्वान् करने में अच्छे प्रकार यत्न करें, जिससे शत्रुओं के पराजय और अज्ञान के विनाश से चक्रवर्त्ति राज्य और विद्या की वृद्धि सदैव बनी रहे ॥६॥
विषय
मनुष्यों को कैसे होकर युद्ध करना चाहिये, यह विषय इस मन्त्र में प्रकाश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
ये विप्रासः नरः ते समोहे शत्रून् आशत वा ये धियायवः ते तोकस्य सनिता वा आशत ॥६॥
पदार्थ
(ये)=जो, (विप्रासः) मेधाविनः=बुद्धिमान् लोग, (नरः)=मनुष्य, (ते)=वे, (समोहे) संग्रामे=संग्राम के निमित्त, (शत्रून्)=शत्रुओं में, (आशत) व्याप्तवन्तो भवेयुः=व्याप्त रहते हैं, (वा)=या, (ये)=जो, (धियावः) ये धियं विज्ञानमिच्छन्तः=बुद्धि के विशेष ज्ञान की इच्छा करते हैं, (ते)=वे, (तोकस्य) संतानस्य=संन्तान के, (सनिता) भोगसंविभागलाभे=भोग को अच्छी तरह बांटने के लिये, (वा)=या, (आशत) व्याप्तवन्तो भवेयुः =व्याप्त होने वाले हों।
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
ईश्वर सब मनुष्यों को आज्ञा देता है कि इस संसार में मनुष्यों को दो प्रकार से काम करने चाहिएँ। इनमें से जो विद्वान् हैं, वे अपने शरीर और सेना का बल बढ़ाते हैं, उनका सदैव तिरस्कार करना चाहिए। मनुष्यों को जब-जब शत्रुओं के साथ युद्ध करने की इच्छा हो, तब-तब सावधान होके प्रथम उनकी सेना आदि पदार्थों से कम से कम अपना दोगुना बल करके उनके पराजय से प्रजा की रक्षा करनी चाहिये। और जो विद्याओं के पढ़ाने की इच्छा करनेवाले हैं, वे शिक्षा देने योग्य पुत्र वा कन्याओं को यथायोग्य विद्वान् करने में अच्छे प्रकार यत्न करें, जिससे शत्रुओं के पराजय और अज्ञान के विनाश से अपने राज्य और विद्या की वृद्धि सदैव हो ॥६॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(ये) जो (विप्रासः) बुद्धिमान् (नरः) मनुष्य हैं, (ते) वे (समोहे) संग्राम के निमित्त (शत्रून्) शत्रुओं में (आशत) व्याप्त रहते हैं। (वा) या (ये) जो (धियावः) बुद्धि के विशेष ज्ञान की इच्छा करते हैं, (ते) वे (तोकस्य) संन्तान के (सनिता) भोग को अच्छी तरह बांटने वाले (वा) या (आशत) व्याप्त होने वाले हों।
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (समोहे) संग्रामे। समोहे इति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं०२.१७) (वा) पक्षान्तरे (ये) योद्धारो युद्धम् (आशत) व्याप्तवन्तो भवेयुः। 'अशूङ् व्याप्तौ' इत्यस्माल्लिङर्थे लुङ्प्रयोगः। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति च्लेरभावः। (नरः) मनुष्याः (तोकस्य) संतानस्य (सनितौ) भोगसंविभागलाभे। तितुत्र० (अष्टा०७.२.९) आग्रहादीनामिति वक्तव्यमिति वार्त्तिकेनेडागमः। (विप्रासः) मेधाविनः। विप्र इति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं०३.१५) आज्जसेरसुक्। (अष्टा०७.१.५०) अनेन जसोऽसुगागमः। (वा) व्यवहारान्तरे (धियायवः) ये धियं विज्ञानमिच्छन्तः, धीयते धार्य्यते श्रुतमनया सा धिया, तामात्मन इच्छन्ति ते, 'धि धारणे' इत्यस्य कप्रत्ययान्तः प्रयोगः ॥६॥
विषयः- मनुष्यैः कीदृशा भूत्वा युद्धं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते।
अन्वयः- ये विप्रासो नरस्ते समोहे शत्रूनाशत वा ये धियायवस्ते तोकस्य सनितावाशत ॥६॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- इन्द्रेश्वरः सर्वान्मनुष्यानाज्ञापयति-संसारेऽस्मिन्मनुष्यैः कार्य्यद्वयं कर्त्तव्यम्। ये विद्वांसस्तैर्विद्याशरीरबले सम्पाद्यैताभ्यां शत्रूणां बलान्यभिव्याप्य सदैव तिरस्कर्त्तव्यानि। मनुष्यैर्यदा यदा शत्रुभिः सह युयुत्सा भवेत्तदा तदा सावधानतया शत्रूणां बलान्न्यूनान्न्यूनं द्विगुणं स्वबलं सम्पाद्यैव तेषां कृतेनापराजयेन प्रजाः सततः रक्षणीयाः। ये च विद्यादानं चिकीर्षवस्ते कन्यानां पुत्राणां च विद्याशिक्षाकरणे प्रयतेरन्। यतः शत्रूणां पराभवेन सुराज्यविद्यावृद्धी सदैव भवेताम् ॥६॥
विषय
धनप्राप्ति व बुद्धिवर्धन के संग्राम में विजय
पदार्थ
१. गतमन्त्रों में बारम्बार विजय की प्रार्थना है । विजय (वा) - या तो वे प्राप्त करते हैं (ये) - जो (समोहे) - संग्राम में उस [इन्द्रम्] शक्ति के सब कार्यों को करनेवाले प्रभु को (आशत) - स्तुति से व्याप्त करते हैं , अर्थात् जो निरन्तर प्रभु - स्मरण करते हुए संग्राम को जारी रखते हैं , वे अवश्य ही विजय प्राप्त करते हैं । गीता में अर्जुन को उपदेश दिया गया है कि - "मामनुस्मर युथ्य च" , अर्थात् उस 'अस्मद्' शब्द वाच्य प्रभु का स्मरण कर और युद्ध करता चल , इस प्रकार तू अवश्य विजयी होगा ।
२. (तोकस्य) - [तु - पूर्ति , तौतिः पूरणार्थकः] आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक धन की (सनितौ) - प्राप्ति में भी वे ही (नरः) - मनुष्य विजयी होते हैं (ये) - जो (आशत) - प्रभु को स्तुति से व्याप्त करते हैं । प्रभुस्मरणपूर्वक पुरुषार्थ करने पर 'वयं स्याम पतयो रयीणाम्' - हम धनों के पति बनते ही हैं । प्रभु - विस्मरण होने पर धन के लिए किये गये प्रयत्न हमें धन का दास बना देते हैं । (वा) - और (धियायवः) - प्रज्ञा की कामनावाले वे ही (विप्रासः) ब्राह्मण अपने बुद्धि व विज्ञान - प्राप्तिरूप कार्य में विजयी होते हैं (ये) - जोकि (आशत) - उस प्रभु को स्तुति से व्याप्त करते हैं , अर्थात् प्रभु - स्तवन करने पर ही बुद्धि भी पवित्र होती है और हमारे ज्ञान के वर्धन का कारण बनती है ।
भावार्थ
भावार्थ - क्षत्रिय संग्राम में , वैश्य धन - प्राप्ति में तथा ब्राह्मण प्रज्ञा - सम्पादन में प्रभु - स्तवन से ही विजय का लाभ करते हैं ।
विषय
नायक विद्वान् पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( ये ) जो ( नरः ) नेता पुरुष (समोहे) संग्राम में ( आशत ) लगे रहते हैं ( वा ) और जो लोग ( स्तोकस्य ) पुत्र, पौत्र आदि सन्तानों के ( सनितौ ) प्राप्त करने में गृहस्थ होकर लगे रहते हैं ( वा ) और जो ( धियायवः ) विज्ञान को प्राप्त करने और गुरुओं से ज्ञान लाभ करने के इच्छुक, ( विप्रासः ) मेधावी पुरुष हैं वे सब भी आदर के योग्य हैं । अर्थात् संग्राम विजयी, वीर क्षत्रिय, पुत्रवान् गृहस्थ और ज्ञानवान् ब्रह्मिष्ठ विद्वान् तीनों समानरूप से आदरणीय हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१—१० मधुच्छन्दा ऋषिः । इन्द्रो देवता । गायत्र्य: । दशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वर सर्व माणसांना आज्ञा करतो की - या जगात माणसांनी दोन प्रकारचे काम केले पाहिजे. जे विद्वान आहेत, त्यांनी शरीर व सेनेचे बल वाढवावे आणि इतरांनी उत्तम विद्येची वृद्धी करून शत्रूंच्या बलाला तिरस्कृत करून न्यून करावे. माणसांना जेव्हा जेव्हा शत्रूबरोबर युद्ध करण्याची इच्छाच असेल तेव्हा तेव्हा सावधान होऊन त्यांच्या सेनेपेक्षा आपले बल दुप्पट वाढवावे व त्यांचा पराभव करून प्रजेचे रक्षण करावे. विद्या शिकविण्याची इच्छा असणाऱ्यांनी शिक्षण देण्यायोग्य पुत्र किंवा कन्यांना प्रयत्नपूर्वक योग्य विद्वान करावे, ज्यामुळे शत्रूंचा पराजय व अज्ञानाचा नाश होऊन सुराज्य व सदैव विद्येची वृद्धी होईल. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Men of valour and heroism engage in battles, men of knowledge and piety in learned gatherings and in the training of youth.
Subject of the mantra
How men should fight, this subject has been elucidated in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(ye)=which, (viprāsaḥ)=intelligent, (naraḥ)=men, (te)=they, (samohe)=for battle, (śatrūn)=in enemies, (āśata)= remain engaged, (vā)=or, (ye)=which, (dhiyāvaḥ)=desire for specific knowledge, (te)=they, (tokasya)=0f properity, (sanitā)=dividing consumption in a good way, (vā)=or, (āśata)= to be occupied.
English Translation (K.K.V.)
Those who are wise men, they are engaged with enemies for the purpose of war. Or those who desire special knowledge in the intellect, they should be the ones who distribute the enjoyment of the children well or are the ones who are occupied.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
God commands all human beings that in this world human beings should work in two ways. Out of these, those who are learned, they increase the strength of their body and army, they should always be despised. Whenever human beings want to fight with enemies, then they should be careful and protect the subjects from their defeat by at least twice their force with their army etc. And those who are desirous of teaching the knowledge, they should make good efforts in making educated sons or daughters suitable scholars, so that their kingdom and education may always increase by the defeat of enemies and the destruction of ignorance.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should men fight is taught in the sixth mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The heroes should engage themselves in battles with unrighteous foes and persons endowed with genius and desirous of acquiring and spreading special or scientific knowledge, should train children.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(समोहे ) संग्रामे समोह इति संग्रामनाम ( निघ० २.७ ) = In the battle.( विप्रास:) विप्र इतिमेधाविनाम ( निघ० ३.१५ ) आज्जसेरसुक् इत्यसुक् । ( धियायवः ) ये धिया विज्ञानमिच्छन्तः धीयते धार्यते श्रुतमनया सा धिया ताम् आत्मन इच्छन्ति ते धि-धारणे । = Desiring knowledge. (तोकस्य) सन्तानस्य तोकम् इत्यपत्यनाम ( निघ० २.२ )
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
God the Lord of the world commands thus-In this world persons should do two things- (1) Those who are learned should acquire the strength of knowledge and body and should subdue or restrain the power of their enemies. Whenever men desire to fight with their foes, they should keep themselves alert and should at least possess double force than their opponents', so that by defeating them, they may always protect their subjects. (This is the duty of the heroic learned Kshatriyas). (1) Those who desire to spread knowledge, should try to train boys and girls properly, so that slong with the defeat of enemies, there may be establishment and progress of good government and dissemination of good knowledge.
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