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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 82 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 82/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडास्तारपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    सु॒सं॒दृशं॑ त्वा व॒यं मघ॑वन्वन्दिषी॒महि॑। प्र नू॒नं पू॒र्णव॑न्धुरः स्तु॒तो या॑हि॒ वशाँ॒ अनु॒ योजा॒ न्वि॑न्द्र ते॒ हरी॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽस॒न्दृश॑म् । त्वा॒ । व॒यम् । मघ॑ऽवन् । व॒न्दि॒षी॒महि॑ । प्र । नू॒नम् । पू॒र्णऽव॑न्धुरः । स्तु॒तः । या॒हि॒ । वशा॑न् । अनु॑ । योज॑ । नु । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । हरी॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुसंदृशं त्वा वयं मघवन्वन्दिषीमहि। प्र नूनं पूर्णवन्धुरः स्तुतो याहि वशाँ अनु योजा न्विन्द्र ते हरी ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽसन्दृशम्। त्वा। वयम्। मघऽवन्। वन्दिषीमहि। प्र। नूनम्। पूर्णऽवन्धुरः। स्तुतः। याहि। वशान्। अनु। योज। नु। इन्द्र। ते। हरी इति ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 82; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मघवन्निन्द्र ! यथा वयं सुसंदृशं त्वा वन्दिषीमहि तथाऽस्माभिर्नूनं पूर्णबन्धुरः स्तुतः संस्त्वं येऽस्माकं शत्रवस्तान्नु वशान् कुरु यौ ते तव हरी स्तस्तावनु योज विजयाय प्रयाहि ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (सुसंदृशम्) एकीभावेन सर्वकर्मणां द्रष्टारम् (त्वा) त्वां सेनाद्यध्यक्षं वा (वयम्) (मघवन्) प्रशस्तगुणधनप्रापक (वन्दिषीमहि) नमस्कुर्मः (प्र) प्रकृष्टे (नूनम्) निश्चये (पूर्णवन्धुरः) पूर्णैः सत्यैः प्रेमबन्धनैर्युक्तः (स्तुतः) प्रशंसितः सन् (याहि) प्राप्नुहि (वशान्) शमदमादियुक्तान् धार्मिकान् जनान् (अनु) अर्वाक् (योज) योजय (नु) शीघ्रम् (इन्द्र) दुःखविदारक (ते) (हरी) ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदा मनुष्याः सर्वद्रष्टः परमेश्वरस्य स्तोतारं सभेशमाश्रयन्ति तदैतानरीन् सद्यो निगृह्णन्ति ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे (मघवन्) परमपूजित धनयुक्त (इन्द्र) सुखप्रद ! जैसे (वयम्) हम (सुसंदृशम्) कल्याणदृष्टियुक्त (त्वा) आपको (वन्दिषीमहि) प्रशंसित करें, वैसे हमसे सहित होके (पूर्णवन्धुरः) समस्त सत्य प्रबन्ध और प्रेमयुक्त (स्तुतः) प्रशंसा को प्राप्त होके आप जो प्रजा के शत्रु हैं, उन को (नु) शीघ्र (वशान्) वश में करो, जो (ते) आपके (हरी) सूर्य के धारणाकर्षणादिगुणवत् सुशिक्षित अश्व हैं, उनको (अनुयोज) युक्त करो, विजय के लिये (नूनम्) निश्चय करके (प्रयाहि) अच्छे प्रकार जाया करो ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब मनुष्य सबके द्रष्टा परमेश्वर की स्तुति करनेहारे सभापति का आश्रय लेते हैं, तब इन शत्रुओं का शीघ्र निग्रह कर सकते हैं ॥ ३ ॥

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    विषय

    सुसन्दृश व पूर्णवन्धुर प्रभु

    पदार्थ

    १. हे (मघवन्) = सम्पूर्ण ऐश्वर्यों से युक्त प्रभो ! (ससन्दुशम्उत्तमता) से सबको सम्यक्तया देखनेवाले - सभी का ध्यान करनेवाले (त्वा) = आपका (वयम्) = हम (विन्दषीमहि) = अभिवादन करते हैं, आपका स्तवन करते हैं । आप २. (नूनम्) = निश्चय से (प्र) = प्रकर्षण (पूर्णवन्धुरः) - धनादि से पूर्ण रथ [नपुर] जाते अपना (दृष्टिना) में जीना चपनों को पारोलाते हैं । रस पृष्टि में प्रत्येक वस्तुविन्यास अपने - अपने स्थान में ठीक प्रकार से हुआ है । ३. (स्तुतः) = स्तुति किये गये आप (वशान्) = अपने मन व इन्द्रियों को वश में करनेवालों को (अनुयाहि) = अनुकूलता से प्राप्त होते हैं । 'वश्' धातु का अर्थ चमकना [to shine] भी है । हे प्रभो ! आप उन्हीं को प्राप्त होते हैं जो आपका स्तवन करते हुए अपने जीवन को निर्मल बना पाते हैं । ४. हे (इन्द्र) = प्रभो! आप हमारे इस शरीररूप रथ में (ते हरी) = अपने इन ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्वों को योजा (नु) = जोतिए ही । ये हमें ज्ञानी व शक्तिसम्पन्न बनाकर यात्रा को पूर्ण कर सकने में समर्थ करें ।

    भावार्थ

    भावार्थ = प्रभु सुसन्दृश व पूर्णवन्धुर हैं ; वे जितेन्द्रिय पुरुषों को ही प्राप्त होते हैं ।

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    विषय

    पक्षान्तर में ईश्वर की स्तुति ।

    भावार्थ

    हे ( मघवन ) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! विद्वन् ! ईश्वर ! (सुदृशं) राष्ट्र कार्यों, ज्ञानों और जगत् के समस्त व्यवहारों को उत्तम रीति से देखने हारे ( त्वा ) तुझको हम ( वन्दिषीमहि ) नमस्कार और स्तुति करें । तू ( पूर्णबन्धुरः ) पूर्ण रीति से स्नेहबन्धन से बंधकर (नूनं) निश्चय से ( स्तुतः ) स्तुति किया जाकर ( प्र याहि ) आगे बढ़, प्रयाण कर । ( अनु वशान् ) और शत्रुओं को वश कर । अथवा हे परमेश्वर ! तू (वशान् अनु प्रयाहि) कामना करने वाले या इन्द्रियों पर वश करने वाले साधको को प्राप्त हो । हे ( इन्द्र ते हरी योजनु ) इत्यादि पूर्ववत् ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, ४ निचृदास्तारपंक्तिः । २, ३, ५ विराडास्तारपंक्तिः । ६ विराड् जगती ॥ षङृर्चं सूक्तम् ।

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वह सेना आदि का अध्यक्ष कैसा हो, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मघवन् इन्द्र ! यथा वयं सुसंदृशं त्वा वन्दिषीमहि तथा अस्माभिः नूनं पूर्णबन्धुरः स्तुतः सन् त्वं ये अस्माकं शत्रवः तान् नु वशान् कुरु यौ ते तव हरी स्तः तौ अनु योज विजयाय प्र याहि ॥३॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (मघवन्) प्रशस्तगुणधनप्रापक=प्रशस्त गुण और धन को प्राप्त करानेवाले, (इन्द्र) दुःखविदारक=दुःखों को दूर करनेवाले ! (यथा)=जैसे, (वयम्)=हम, (सुसंदृशम्) एकीभावेन सर्वकर्मणां द्रष्टारम्= संगति से समस्त कर्मों को देखनेवाले हैं. (त्वा) त्वां सेनाद्यध्यक्षं वा=तुम सेना आदि के अध्यक्ष को, (वन्दिषीमहि) नमस्कुर्मः=नमस्कार करते हैं, (तथा)=वैसे ही, (अस्माभिः)=हमारे द्वारा, (नूनम्) निश्चये= निश्चित रूप से ही, (पूर्णवन्धुरः) पूर्णैः सत्यैः प्रेमबन्धनैर्युक्तः=पूर्ण सत्य प्रेम के बन्धन से युक्त, (स्तुतः) प्रशंसितः सन्= प्रशंसित होते हुए, (त्वम्)=तुम, (ये) =जो, (अस्माकम्)=हमारे, (शत्रवः)= शत्रु हैं, (तान्)=उनको, (नु) शीघ्रम्=शीघ्र ही, (वशान्) शमदमादियुक्तान् धार्मिकान् जनान्= शांत या वश में हुआ धार्मिक, (कुरु)=बनाओ, (यौ)=जो, (ते) तव=तुम्हारे,(हरी) हरणशीलौ धारणाकर्षणगुणावुत्तमाश्वौ वा= चुराकर ले जाये जाने योग्य, धारण और आकर्षण के गुणों के दो उत्तम अश्व, (स्तः)=हैं, (तौ)=दोनों को, रथ के, (अनु) अर्वाक्=पीछे, (योज) योजय=जोड़ो, (विजयाय) =विजय के लिये, (प्र) प्रकृष्टे= उत्कृष्ट रूप से, (याहि) प्राप्नुहि=प्राप्त करो ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब मनुष्य सर्वद्रष्टा परमेश्वर की स्तुति करनेवाले सभापति का आश्रय लेते हैं, तब इनके शत्रु शीघ्र ही अवरुद्ध हो जाते हैं ॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मघवन्) प्रशस्त गुण और धन को प्राप्त करानेवाले और (इन्द्र) दुःखों को दूर करनेवाले [सेना आदि के अध्यक्ष] ! (यथा) जैसे (वयम्) हम (सुसंदृशम्) संगति से समस्त कर्मों को देखनेवाले हैं और (त्वा) तुम सेना आदि के अध्यक्ष को (वन्दिषीमहि) नमस्कार करते हैं। (तथा) वैसे ही (अस्माभिः) हमारे द्वारा (नूनम्) निश्चित रूप से ही (पूर्णवन्धुरः) पूर्ण सत्य प्रेम के बन्धन से युक्त और (स्तुतः) प्रशंसित होते हुए (त्वम्) तुम, (ये) जो (अस्माकम्) हमारे (शत्रवः) शत्रु हैं, (तान्) उनको (नु) शीघ्र ही (वशान्) शांत या वश में किया हुआ धार्मिक [व्यक्ति] (कुरु) बनाओ। (यौ)जो, (ते) तुम्हारे (हरी) चुराकर ले जाये जाने योग्य, धारण और आकर्षण के गुणों के दो उत्तम अश्व (स्तः) हैं, (तौ) उन दोनों को रथ के (अनु) पीछे (योज) जोड़ो। (विजयाय) विजय के लिये (प्र) उत्कृष्ट रूप से (याहि) प्राप्त करो ॥३॥

    संस्कृत भाग

    सु॒ऽस॒न्दृश॑म् । त्वा॒ । व॒यम् । मघ॑ऽवन् । व॒न्दि॒षी॒महि॑ । प्र । नू॒नम् । पू॒र्णऽव॑न्धुरः । स्तु॒तः । या॒हि॒ । वशा॑न् । अनु॑ । योज॑ । नु । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । हरी॒ इति॑ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदा मनुष्याः सर्वद्रष्टः परमेश्वरस्य स्तोतारं सभेशमाश्रयन्ति तदैतानरीन् सद्यो निगृह्णन्ति ॥३॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जेव्हा माणसे सर्वांचा द्रष्टा असलेल्या परमेश्वराची स्तुती करणाऱ्या सभापतीचा आश्रय घेतात तेव्हा शत्रूंना तात्काळ रोखू शकतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, lord of wealth, power and universal glory, we pray to you, lord of the blissful eye. Lord in perfect covenant with humanity, worshipped and prayed to in sincerity, proceed and overwhelm the enemies of yajna and humanity. Yoke your horses (and come to bless the yajna).

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (Commander of the army or destroyer of our miseries, causer of the wealth of good virtues, as we bow before you and praise you as you look benignly upon all in the same manner, praised by us and bound with full and true bond of love, make under our control our adversaries and yoke your horses, start for gaining victory over wicked people.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (पूर्णबन्धुरः) पूर्णै: सत्यैः प्रेमबन्धनैर्युक्तः ॥ = Bound with full and true bonds of love (वशान् ) शमदमादि युक्तान् धार्मिकान्जनान् = Righteous persons endowed with peace, self control and other virtues.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    When people take refuge in the President of the Assembly or commander of the army, who is truly devoted to God, then they can easily subdue their foes.

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    Subject of the mantra

    Then, how should be those Commander of the army etc.?This issue has been discussed in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (maghavan) commander of the army, who gets attained great virtues and wealth and, (indra) =removes sorrows, [senā ādi ke adhyakṣa]=commander of the army etc., (yathā) =like, (vayam) =we, (susaṃdṛśam) = are those who sees all the actions through communion and, (tvā)= to you, the head of the army etc., (vandiṣīmahi) =salute, (tathā) =similarly, (asmābhiḥ) =by us, (nūnam) =surely, (pūrṇavandhuraḥ)= with the bond of affection for the complete truth and, (stutaḥ) =being praised, (tvam) =you, (ye) =who, (asmākam) =our, (śatravaḥ) =enemies are, (tān) =to them, (nu)=quickly, (vaśān) =calm and controlled righteous, [vyakti]=person, (kuru) =make, (yau)=those, (te) =your, (harī) =two horses capable of being stolen, best in qualities of possession and attraction, (staḥ) =are, (tau)= both of them in the chariot (anu) =in the back, (yoja) =connect, (vijayāya) =for victory, (pra) =excellently, (yāhi) =attain.

    English Translation (K.K.V.)

    O commander of the army etc., who gets attained great virtues and wealth and removes sorrows! Just as we are those who observe all the actions by communion and you salute the head of the army etc. In the same way, you, being surely bound and praised by us with the bond of affection for the complete truth, quickly make pacified those who are our enemies or subjugated as righteous persons. Connect two horses capable of being stolen, best in qualities of possession and attraction. Attain victory excellently.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. When people take refuge in the President of the Assembly who praises the Omniscient God, then their enemies are soon restrained.

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