ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 110/ मन्त्र 11
ऋषिः - जम्दग्नी रामो वा
देवता - आप्रियः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स॒द्यो जा॒तो व्य॑मिमीत य॒ज्ञम॒ग्निर्दे॒वाना॑मभवत्पुरो॒गाः । अ॒स्य होतु॑: प्र॒दिश्यृ॒तस्य॑ वा॒चि स्वाहा॑कृतं ह॒विर॑दन्तु दे॒वाः ॥
स्वर सहित पद पाठस॒द्यः । जा॒तः । वि । अ॒मि॒मी॒त॒ । य॒ज्ञम् । अ॒ग्निः । दे॒वाना॑म् । अ॒भ॒व॒त् । पु॒रः॒ऽगाः । अ॒स्य । होतुः॑ । प्र॒ऽदिशि॑ । ऋ॒तस्य॑ । वा॒चि । स्वाहा॑ऽकृतम् । ह॒विः । अ॒द॒न्तु॒ । दे॒वाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
सद्यो जातो व्यमिमीत यज्ञमग्निर्देवानामभवत्पुरोगाः । अस्य होतु: प्रदिश्यृतस्य वाचि स्वाहाकृतं हविरदन्तु देवाः ॥
स्वर रहित पद पाठसद्यः । जातः । वि । अमिमीत । यज्ञम् । अग्निः । देवानाम् । अभवत् । पुरःऽगाः । अस्य । होतुः । प्रऽदिशि । ऋतस्य । वाचि । स्वाहाऽकृतम् । हविः । अदन्तु । देवाः ॥ १०.११०.११
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 110; मन्त्र » 11
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 6
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अग्निः) अग्नि (जातः) प्रज्वलित हुआ (सद्यः) तत्काल (यज्ञम्) यज्ञ को (वि अमिमीत) निर्माण करती है-सम्पन्न करती है (देवानाम्) वायु-आदि देवों की (पुरोगाः) अग्रगामी (अभवत्) होती है (ऋतस्य) यज्ञ के (अस्य होतुः) इस होतारूप अग्नि के (वाचि) मुख में (प्रदिशि) ज्वलित प्रदेश में (स्वाहाकृतम्) सम्यग्हुत किये हुए (हविः) हव्य पदार्थ को (देवाः) वायु आदि देव (अदन्तु) ग्रहण करते हैं। अध्यात्मदृष्टि से−आत्मा शरीर में जन्म लेते ही शरीरयज्ञ को चलाता है, इन्द्रियदेवों का पुरोगामी होता है, यह शरीरचालक आत्मा के मुख में-शरीर एक देश में हव्य खाने-पीने योग्य वस्तु मनुष्य समर्पित करते हैं, पीछे ही इन्द्रियाँ ग्रहण करती हैं, आत्मा ही शरीरयज्ञ का होता नाम का ऋत्विक् है ॥११॥
भावार्थ
काष्ठों में अग्नि प्रज्वलित होते ही होमयज्ञ का प्रारम्भ कर देती है, यह वायु आदि देवों की अग्रगामी बनती है, इसके प्रज्वलित प्रदेश में डाले हुए हव्य पदार्थ को वायु आदि देव ले लेते हैं, इसलिये वायु आदि देवों को स्वास्थ्यप्रद बनाने के लिये अग्नि में उत्तम-उत्तम ओषधियाँ होमनी चाहिये। अध्यात्मदृष्टि से−आत्मा शरीर में जन्मते ही शरीर का निर्माण आरम्भ कर देता है, इन्द्रियों का अग्रगामी बन जाता है, इसके लिये शरीर के एकदेश मुख में डाला हुआ आहार इन्द्रियों तक पहुँचता है। यदि इस आत्मा को आध्यात्मिक चर्चा का आहार मिले तो इन्द्रियाँ भी पवित्र और संयत रहती हैं ॥११॥
विषय
यज्ञमय जीवन-यज्ञशेष का सेवन
पदार्थ
[१] आचार्यकुल से जिस दिन समावृत्त होकर विद्यार्थी पुनः घर आता है उस दिन यह उसका द्वितीय जन्म कहलाता है । (जात:) = आचार्य गर्भ से आज द्वितीय जन्म को प्राप्त करनेवाला यह समावृत्त हुआ हुआ युवक (सद्यः) = शीघ्र ही यज्ञं व्यमिमीत गृहस्थ यज्ञ को निर्मित करता है, गृहस्थ बनकर पञ्च महायज्ञों का करनेवाला होता है। (अग्निः) = यह प्रगतिशील होता है। आगे और आगे बढ़ता हुआ (देवानाम्) = देवों का (पुरोगाः) = अग्रगामी (अभवत्) = होता है । [२] ये (देवा:) = देववृत्तिवाले गृहस्थ पुरुष अस्य होतुः इस सब पदार्थों के देनेवाले प्रभु की (प्रदिशि) = प्रकृष्ट प्रेरणा में, (ऋतस्य वाचि) = सत्यज्ञान की वाणी में, अर्थात् वेद के कथनानुसार (स्वाहाकृतम्) = यज्ञों में आहुत की गई (हविः) = हवि को (अदन्तु) = खाएँ । अर्थात् यज्ञ करके यज्ञावशिष्ट भोजन को ही करनेवाले हों। यह यज्ञशेष ही तो इन्हें अमर बनाएगा, रोगी न होने देगा। प्रभु ने वेद में जिन पदार्थों के ग्रहण करने का निर्देश किया है, हम उन्हीं पदार्थों को ग्रहण करनेवाले हों।
भावार्थ
भावार्थ- हमारा गृहस्थ जीवन यज्ञमय हो । यज्ञशेष का ही सेवन करनेवाले हम अमरता [नीरोगता] का लाभ प्राप्त करें । सूक्त की मूल भावना यही है कि हम प्रभु का उपासन करें, यज्ञमय जीवन बिताएँ, यज्ञशेष का सेवन करते हुए अमर [नीरोग] बनें। ऐसा होने पर ही यह सम्भव है कि हम 'पञ्चभूत तथा मन, बुद्धि व अहंकार' इन आठों को दीप्त व निर्मल करके 'अष्टादंष्ट्र' = बने [ दंश् to shine]। ऐसा बनेंगे तो हम निश्चय से अत्यन्त विशिष्ट रूपवाले 'वैरूप' होंगे। अगला सूक्त इस ऋषि 'अष्टादंष्ट्र वैरूप' का ही है-
विषय
अग्निवत् अग्रणी पुरुष का आदर।
भावार्थ
(सद्यः जातः अग्निः) शीघ्र प्रकट हुआ अग्निवत् तेजस्वी पुरुष (यज्ञं वि अमिमीत) यज्ञ का अनुष्ठान करता है। वह (देवानां पुरः-गाः अभवत्) सब मनुष्यों का अग्रणी होता है। (यस्य होतुः प्र-दिशि) इस ज्ञानदाता के शासन में और (ऋतस्य वाचि) सत्यमय वेद की वाणी में (स्वाहा कृतम्) उत्तम रीति से उत्तम वाणी द्वारा प्रदत्त (हविः) ज्ञान और अन्न का (देवाः अदन्तु) समस्त मनुष्य उपभोग करें। इति नवमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषि जमदग्नी रामो वा भार्गवः। देवता आप्रियः॥ छन्दः–१, २, ५, १०, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ आर्ची त्रिष्टुप्। ४, ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ ६, ७, ९ त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अग्निः) अग्निर्देवः (जातः) जायमानः ज्वलन् सन् (सद्यः) तत्कालमेव (यज्ञं वि अमिमीत) होमयज्ञादिकं निर्माति सम्पादयति (देवानां पुरोगाः अभवत्) वायुप्रभृतीनां देवानामग्रगामी भवति (ऋतस्य-होतुः-अस्य) यज्ञस्य “ऋतस्य योगे यज्ञस्य योगे” [निरु० ६।२२] होतुरस्याग्नेः “तस्य यज्ञस्य-अग्निर्होताऽऽसीत् [गो० पू० १।३] (वाचि प्रदिशि) मुखे ज्वलिते प्रदेशे (स्वाहाकृतं हविः-देवाः-अदन्तु) सम्यग्हुतं हव्यं वायुप्रभृतयो देवा गृह्णन्ति ॥११॥ अध्यात्मदृष्ट्या−आत्मा शरीरे जायमान एव शरीरयज्ञं चालयति, देवानामिन्द्रियदेवानामेष पुरोगामी भवति, अस्य शरीरचालक-स्यात्मनो मुखे शरीरैकदेशे हव्यमदनीयं वस्तु समर्पयन्ति जनाः, तदनु हीन्द्रियाणि गृह्णन्ति आत्मा-हि शरीरयज्ञस्य होता “आत्मा वै यज्ञस्य होता” [कौ० ९।६] “आत्मा वै होता” [ऐ० ६।८] ॥११॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni which is the first and pioneer of the divinities enacts and lights up the yajna as soon as it arises and accomplishes it to the end, so may the divinities, under the action and direction of this yajaka, share and consume the fragrant havis offered with Svaha into the flames of yajnic fire with complete faith and dedication.
मराठी (1)
भावार्थ
समिधामध्ये अग्नी प्रज्वलित होताच होमयज्ञाचा प्रारंभ करतो. तो वायू इत्यादी देवांचा अग्रगामी बनतो. याच्या प्रज्वलित स्थानी हव्य पदार्थांना वायू इत्यादी देव ग्रहण करतात. त्यासाठी वायू इत्यादी देवांना स्वास्थ्यप्रद बनविण्यासाठी अग्नीत उत्तम उत्तम औषधी घातली पाहिजे.
टिप्पणी
अध्यात्मदृष्टीने - आत्मा शरीरात जन्म घेताच शरीराची निर्मिती सुरू करतो. इंद्रियांचा अग्रगामी असतो. त्यामुळे शरीराच्या मुखात घातलेला आहार इंद्रियांपर्यंत पोचतो. जर आत्म्याला आध्यात्मिक चर्चेचा आहार मिळाला तर इंद्रिये ही पवित्र व संयमी राहतात. ॥११॥
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