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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 116 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 116/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अग्नियुतः स्थौरोऽग्नियूपो वा स्थौरः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    म॒मत्तु॑ त्वा दि॒व्यः सोम॑ इन्द्र म॒मत्तु॒ यः सू॒यते॒ पार्थि॑वेषु । म॒मत्तु॒ येन॒ वरि॑वश्च॒कर्थ॑ म॒मत्तु॒ येन॑ निरि॒णासि॒ शत्रू॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒मत्तु॑ । त्वा॒ । दि॒व्यः । सोमः॑ । इ॒न्द्र॒ । म॒मत्तु॑ । यः । सू॒यते॑ । पार्थि॑वेषु । म॒मत्तु॑ । येन॑ । वरि॑ऽवः । च॒कर्थ॑ । म॒मत्तु॑ । येन॑ । नि॒ऽरि॒णासि॑ । शत्रू॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ममत्तु त्वा दिव्यः सोम इन्द्र ममत्तु यः सूयते पार्थिवेषु । ममत्तु येन वरिवश्चकर्थ ममत्तु येन निरिणासि शत्रून् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ममत्तु । त्वा । दिव्यः । सोमः । इन्द्र । ममत्तु । यः । सूयते । पार्थिवेषु । ममत्तु । येन । वरिऽवः । चकर्थ । ममत्तु । येन । निऽरिणासि । शत्रून् ॥ १०.११६.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 116; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे राजन् ! आत्मन् ! वा (त्वा) तुझे (दिव्यः) आकाश में होनेवाला (सोमः) चन्द्रमा (ममत्तु) हर्षित करे (यः) जो (पार्थिवेषु) जो पार्थिव पृथिवीसम्बन्धी पाषाणों पर्वतों में (सूयते) उत्पन्न होता है, ऐसा ओषधिरूप सोम हर्षित करे (येन) जिस सोम राज्यैश्वर्य से (वरिवः) अपने को धनवान् (चकर्थ) बनाता है (स ममत्तु) वह हर्षित करे (येन-शत्रून्) जिस सोम अर्थात् वीर्य से शत्रुओं को (निरिणसि) निम्न करता है झुकाता है (ममत्तु) वह सोम हर्षित करे ॥३॥

    भावार्थ

    राजा को चार प्रकार के सोमों का सेवन करना चाहिये, जो हर्ष के कारण हैं, प्रथम, आकाश का सोम-चन्द्रमा है, उसका सेवन करना चाहिये, वह मानसिक हर्ष को देता है, दूसरे-पृथिवी के ओषधिरूप सोम का रसपान करना चाहिये, तीसरे-राज्यैश्वर्य का सुचारुरूप से सेवन करना चाहिये और राष्ट्र को चलाना चाहिये, चौथे-वीर्य को शरीर में सुरक्षित रखना चाहिये, ऐसे ही आत्मा को चारों सोमों का सेवन करना चाहिये, हर्ष के लिये ॥३॥

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    विषय

    उल्लास का कारणभूत 'सोम'

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (त्वा) = तुझे (सोम:) = यह शरीर में उत्पन्न हुआ हुआ सोम (ममत्तु) = आनन्दित करे। वह सोम जो (दिव्यः) = तुझे दिव्यता प्रदान करनेवाला है। इस सोम के रक्षण से तेरी ज्ञानाग्नि दीप्त होगी और तेरा जीवन प्रकाशमय होगा। [२] (ममत्तु) = वह सोम तुझे उल्लासमय करे (यः) = जो (पार्थिवेषु) = इस पृथिवीरूप शरीर के अधिष्ठाताओं में (सूयते) = उत्पन्न होता है । हम शरीर को वशीभूत करनेवाले, शरीर के अधिष्ठाता बनते हैं तो यह सोम हमारे में सुरक्षित होता है और हमारे उल्लास का कारण बनता है। [३] वह सोम (ममत्तु) = तुझे प्रसन्नतायुक्त करे (येन) = जिसके द्वारा तू (वरिवः) = धन को (चकर्थ) = सम्पादित करता है । सोमरक्षण से शक्ति सम्पन्न होकर मनुष्य वरणीय धन को प्राप्त कर पाता है। [४] वह सोम तुझे (ममत्तु) = आनन्दित करे (येन) = जिससे तू (शत्रून्) = शत्रुओं को (निरिणासि) = अपने से निर्गत करता है । सोम के रक्षण के होने पर शरीर में रोगरूप शत्रु नहीं रहते और मन में 'ईर्ष्या-द्वेष-क्रोध' रूप शत्रुओं का वास नहीं होता।

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर में रक्षित हुआ हुआ सोम प्रकाश को प्राप्त कराता है, जीवन को उल्लासमय बनाता है, धन कमाने के योग्य करता है तथा रोग व वासनारूप शत्रुओं को विनष्ट करता है ।

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    विषय

    सोम के बल पर राजा ऐश्वर्य का भोग करे। चार प्रकार के सोम। मेघ सूर्यवत् राजा के प्रजा के प्रति कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (दिव्यः सोमः) दिव्य सोम (त्वा ममत्तु) तुझे प्रसन्न करे। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (ममत्तु) तुझे वह सोम प्रसन्न करे (यः) जो (पार्थिवेषु) पृथिवी पर के क्षेत्रों में (सूयते) उत्पन्न होता है। और (येन वरिवः चकर्थ) जिससे तू उत्तम धन उत्पन्न करे वह भी (त्वा ममत्तु) तुझे प्रसन्न करे। और (येन शत्रून् निरिणासि) जिससे तू शत्रुओं को नष्ट करता है वह सभी ऐश्वर्य धन, बल आदि तुझको (ममत्तु) प्रसन्न करे। इस प्रकार दिव्य सोम सूर्य का तेज है। पाथिव सोम अन्न, धनप्रद सोम पण्य पदार्थ, और शत्रुनाशक सोम सैन्य बल है। अध्यात्म में—दिव्य सोम ज्ञान, पार्थिव ‘सोम’ शरीरगत वीर्य, ज्ञान का दाता सोम गुरु, आभ्यन्तर शत्रु का नाशक सोम आत्म-ज्ञान-साधना।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरग्नियुतः स्थौरोऽग्नियूपो वा स्थौरः। इन्द्रो देवता। छन्दः— १, ८, ९ त्रिष्टुप्। २ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४ निचृत् त्रिष्टुप्। ५, ७ विराट् त्रिष्टुप्। ६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे राजन् ! आत्मन् ! वा (त्वा) त्वां (दिव्यः सोमः-ममत्तु) दिवि-आकाशे भवः सोमश्चन्द्रः-हर्षयतु “श्लुश्छान्दसः” (यः पार्थिवेषु सूयते-ममत्तु यश्च सोमः पार्थिवेषु पृथिवीविकारेषु पृथिवीमयेषु पाषाणेषु खल्वभिषूयते सः ओषधिरूपः सोमो हर्षयतु (येन वरिवः-चकर्थ स ममत्तु) येन सोमेन राज्यैश्वर्येण स्वात्मानं वरिवस्वन्तं धनवन्तं च करोषि “वरिवः-धननाम” [निघ० २।१०] ‘मतुब्लोपश्छान्दसः’ स हर्षयतु (येन शत्रून्-निरिणासि ममत्तु) येन सोमेन रेतसा “रेतो वै सोमः” [जै० ३।२४] शत्रून् निगमयसि निम्नान् करोषि “रिणाति गतिकर्मा” [निघ० २।२४] ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let the heavenly soma of the sun and moon exhilarate you. Let the soma sweetness and beauty of things earthly created here exhilarate you. Let the soma of your own grandeur by which you do wonders exhilarate you. And let the soma of your own valour by which you destroy the enemies exhilarate you.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजाने चार प्रकारच्या सोमचे सेवन केले पाहिजे, ज्यामुळे हर्ष होतो. प्रथम आकाशाचा सोम चंद्र त्याचे सेवन केले पाहिजे. दुसरा - पृथ्वीच्या औषधीरूपी सोमचे रसपान केले पाहिजे. तिसरा - राज्यैश्वर्याचे चांगल्या प्रकारे सेवन करून राष्ट्र चालविले पाहिजे. चौथा - वीर्य शरीरात सुरक्षित ठेवले पाहिजे. आनंदासाठी आत्म्याला चारही सोमचे सेवन केले पाहिजे. ॥३॥

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