Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 116 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 116/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अग्नियुतः स्थौरोऽग्नियूपो वा स्थौरः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इ॒दं ह॒विर्म॑घव॒न्तुभ्यं॑ रा॒तं प्रति॑ सम्रा॒ळहृ॑णानो गृभाय । तुभ्यं॑ सु॒तो म॑घव॒न्तुभ्यं॑ प॒क्वो॒३॒॑ऽद्धी॑न्द्र॒ पिब॑ च॒ प्रस्थि॑तस्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । ह॒विः । म॒घ॒ऽव॒न् । तुभ्य॑म् । रा॒तम् । प्रति॑ । सम्ऽरा॑ट् । अहृ॑णानः । गृ॒भा॒य॒ । तुभ्य॑म् । सु॒तः । म॒घ॒ऽव॒न् । तुभ्य॑म् । प॒क्वः॑ । अ॒द्धि । इ॒न्द्र॒ । पिब॑ । च॒ । प्रऽस्थि॑तस्य ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदं हविर्मघवन्तुभ्यं रातं प्रति सम्राळहृणानो गृभाय । तुभ्यं सुतो मघवन्तुभ्यं पक्वो३ऽद्धीन्द्र पिब च प्रस्थितस्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । हविः । मघऽवन् । तुभ्यम् । रातम् । प्रति । सम्ऽराट् । अहृणानः । गृभाय । तुभ्यम् । सुतः । मघऽवन् । तुभ्यम् । पक्वः । अद्धि । इन्द्र । पिब । च । प्रऽस्थितस्य ॥ १०.११६.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 116; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (मघवन्) हे राजसूय यज्ञ को प्राप्त या संस्कारयज्ञ से संस्कृत (इन्द्र) हे राजन् ! या आत्मन् ! (तुभ्यम्) तेरे लिये (इदं हविः) यह उपहाररूप या खाने योग्य (रातम्) दिये हुए को (सम्राट्) सम्यक् राजमान हुआ (अहृणानः) निस्सङ्कोच हुआ-निर्लज्ज हुआ (प्रति गृभाय) स्वीकार कर या ले (तुभ्यम्) तेरे लिये (सुतः) निष्पादित सोमरस उसे (पिब) पी (च) और (तुभ्यम्) तेरे लिये (पक्वः) पका हुआ भोजन पदार्थ (प्रस्थितस्य) समर्पित है (अद्धि) उसे खा ॥७॥

    भावार्थ

    राजा जब राजसूययज्ञ में राजपद को प्राप्त होता है-राजा बनता है तब उसके लिये उपहार भेंट दी जानी चाहिये, उसके लिये पीने को सोमरस और खाने को पौष्टिक पकवान भेंट करने चाहिये एवं जब आत्मा वेदारम्भ संस्कार से संस्कृत हो जावे, तब उसे प्राशन के लिये रस, दूध, दही आदि और पके हुए मिष्ठान्न आदि देना चाहिये ॥७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    दानपूर्वक अदन - सोम का रक्षण

    पदार्थ

    [१] हे (मघवन्) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (इदं हविः) = यह हवि (तुभ्यं रातम्) = आपकी प्राप्ति के लिए दी गई है, हवि के द्वारा ही प्रभु का पूजन होता है। हे प्रभो ! (सम्राट्) = आप ही शासक हो । (अहृणान:) = किसी भी प्रकार हमारे पर क्रुद्ध न होते हुए (प्रति गृभाय) = इस हवि को ग्रहण करिये । वस्तुतः हवि के द्वारा प्रभु-पूजन करनेवाला प्रभु का प्रिय होता है, प्रभु इसपर कभी अप्रसन्न नहीं होते । 'दानपूर्वक अदन'-' यज्ञशेष का सेवन'-'हवि' ही मार्ग है, प्रभु के आराधन का। [२] हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो! (तुभ्यं सुतः) = आपकी प्राप्ति के लिए ही शरीर में इस सोम का उत्पादन हुआ है। (तुभ्यं पक्वः) = आपकी प्राप्ति के लिए ही संयमाग्नि में इसका ठीक प्रकार से परिपाक किया गया है। [३] प्रभु जीव से कहते हैं कि इन्द्र है जितेन्द्रिय पुरुष ! तू (प्रस्थितस्य) = प्रकर्षेण स्थित इस सोम का (अद्धि) = भक्षण करनेवाला हो, शरीर की शक्तियों के विकास में ही तू इसे [to consuere] व्ययित करनेवाला हो । (च) = और (पिब) = तू शरीर में ही इसका पान कर, इसे शरीर में ही व्याप्त करने के लिए यत्नशील हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु प्राप्ति के लिए दो साधन हैं - [ख] दानपूर्वक अदन, [ख] सोम का रक्षण ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    राजा के प्रति प्रजा का स्वकर-दान।

    भावार्थ

    हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन् ! (तुभ्यम्) तेरे हितार्थ (इद्महविः) यह उत्तम अन्नवत् पुष्टिकारक साधन (रातम्) प्रदान किया जाय। तू (सम्राट्) तेजस्वी होकर (अहृदृणानः) विना संकोच वा क्रोध के (प्रति गृभाय) ग्रहण कर, वा हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन् ! (तुभ्यम्) तेरे ही लिये उत्पन्न अन्नवत् समस्त पदार्थ (पक्वः) परिपक्व है। तू (प्रस्थितस्य) आदर से आगे रक्खे अन्न को (अद्धि प्र पिब च) खा और पान कर। उसका उपभोग कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरग्नियुतः स्थौरोऽग्नियूपो वा स्थौरः। इन्द्रो देवता। छन्दः— १, ८, ९ त्रिष्टुप्। २ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४ निचृत् त्रिष्टुप्। ५, ७ विराट् त्रिष्टुप्। ६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (मघवन्-इन्द्र) हे राजसूययज्ञं गत ! ऐश्वर्यवन् राजन् ! यद्वा संस्कारयज्ञेन संस्कृत आत्मन् ! (तुभ्यम्-इदं हविः-रातम्) तुभ्यमेदुपहाररूपं प्राशनीयं दत्तं (सम्राट्-अहृणानः-प्रतिगृभाय) सम्यग् राजमानः-अलज्जमानः “हृणीङ् रोषे लज्जायां च” [कण्वादि०] प्रतिगृहाण स्वीकुरु “ग्रहधातोः-छन्दसि शायजपि” [अष्टा० ३।१।८४] इति शायच् प्रत्ययः ‘लोटि मध्यमैकवचने हकारस्य भकारश्छान्दसः’ (तुभ्यं सुतः) हे राजन्-आत्मन् ! वा तुभ्यं निष्पादितः सोमरसस्तं (पिब च) पिब च (तुभ्यं पक्वः प्रस्थितस्य अद्धि) तुभ्यं पक्वोऽग्निपक्वः पदार्थः समर्पितः ‘व्यत्ययेन षष्ठी’ तं भुङ्क्ष्व ॥७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of glory, this homage and tribute is offered to you. O ruler of self, humanity and all life, pray take it freely without inhibition or hesitation. For you is the soma distilled and offered, O lord of majesty. For you is the food prepared and seasoned. Pray accept it, taste of it and drink of it as it is prepared with faith and love without reservation.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजा जेव्हा राजसूय यज्ञात राजपद प्राप्त करतो, राजा बनतो तेव्हा त्याच्यासाठी उपहार भेट दिली पाहिजे. त्याला पिण्यासाठी सोमरस व खाण्यासाठी पौष्टिक पक्वान्न दिले पाहिजेत व जेव्हा आत्मा वेदारंभ संस्काराने संस्कृत होतो तेव्हा त्याला प्राशन करण्यासाठी रस, दूध, दही इत्यादी पक्व झालेले मिष्टान्न इत्यादी दिले पाहिजेत. ॥७॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top