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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 116 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 116/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अग्नियुतः स्थौरोऽग्नियूपो वा स्थौरः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराडार्चीत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    व्य१॒॑र्य इ॑न्द्र तनुहि॒ श्रवां॒स्योज॑: स्थि॒रेव॒ धन्व॑नो॒ऽभिमा॑तीः । अ॒स्म॒द्र्य॑ग्वावृधा॒नः सहो॑भि॒रनि॑भृष्टस्त॒न्वं॑ वावृधस्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । अ॒र्यः । इ॒न्द्र॒ । त॒नु॒हि॒ । श्रवां॑सि । ओजः॑ । स्थि॒राऽइ॑व । धन्व॑नः । अ॒भिऽमा॑तीः । अ॒स्म॒द्र्य॑क् । व॒वृ॒धा॒नः । सहः॑ऽभिः । अनि॑ऽभृष्टः । त॒न्व॑म् । व॒वृ॒ध॒स्व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    व्य१र्य इन्द्र तनुहि श्रवांस्योज: स्थिरेव धन्वनोऽभिमातीः । अस्मद्र्यग्वावृधानः सहोभिरनिभृष्टस्तन्वं वावृधस्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । अर्यः । इन्द्र । तनुहि । श्रवांसि । ओजः । स्थिराऽइव । धन्वनः । अभिऽमातीः । अस्मद्र्यक् । ववृधानः । सहःऽभिः । अनिऽभृष्टः । तन्वम् । ववृधस्व ॥ १०.११६.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 116; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् राजन् ! आत्मन् ! वा (अर्यः) तू राष्ट्र का स्वामी हुआ या शरीर का स्वामी होता हुआ (श्रवांसि) धन अन्नादि भोग्य वस्तुओं को (वि तनुहि) विस्तृत कर-बढ़ा (अभिमातीः) अभिमन्यमान शत्रुओं को या अभिभावक कामादियों को (ओजः) ओज से स्वबल से (स्थिरा-इव) दृढ़ ही (धन्वनः) धनुषों को विस्तृत कर (अस्मद्र्यक्) हमारे सम्मुख होता हुआ हमें लक्षित करता हुआ (अनिभृष्टः) अन्य से न तापित हुआ (सहोभिः) विविध बलों के द्वारा (वावृधानः) बढ़ता हुआ (तन्वम्) शरीर की भाँति राष्ट्र को या अपने शरीर को (वावृधस्व) बढ़ा ॥६॥

    भावार्थ

    राजा को चाहिये कि वह राष्ट्र का स्वामी होकर धन अन्न की वृद्धि करे और शत्रुओं पर दृढ़ शस्त्रों से प्रहार करने के लिये उनका विस्तार करे और प्रजाओं को लक्ष्य करके राष्ट्र को समृद्ध करे एवं आत्मा शरीर का-स्वामी होकर उसके निर्वाह के लिये आवश्यक धन अन्न आदि वस्तुओं का उपार्जन करे और अन्दर के दबानेवाले काम आदि दोषों के दबाने के लिये दृढ़ शिवसङ्कल्पों का विस्तार करे और अपने शरीर को बढ़ावे ॥६॥

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    विषय

    ज्ञान, ओज व बल

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (अर्यः) = स्वामी होते हुए आप (श्रवांसि) = हमारे ज्ञानों को (वितनुहि) = विशेषरूप से विस्तृत करिये। हमारी (ओजः) = शक्ति को भी बढ़ाइये । आप (अभिमानी:) = हमारे शत्रुओं के प्रति (स्थिरा इव धन्वनः) = बढ़े दृढ़ ही धनुषों को (वितनुहि) =

    भावार्थ

    तानिये । इन धनुषों द्वारा उनका विनाश करिये। [२] (अस्मद्र्यग्) = आप हमें प्राप्त होनेवाले होइये। 'अस्यान् अञ्चति' । (सहोभिः) = शत्रु-मर्षण शक्तियों से (वावृधान:) = खूब ही हमारा वर्धन करते हुए (अनिभृष्टः) = शत्रुओं से अपरभवनीय होते हुए आप (तन्वं वावृधस्व) = हमारे शरीरों का वर्धन करिये। हमारे अंग-प्रत्यंग की शक्ति को आप बढ़ाइये ।

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    विषय

    उसके बल पर शत्रु को काटे।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू (अर्यः) स्वामी होकर वा (अर्यः) शत्रु के (श्रवांसि) धनों, और अन्नों को (वि तनुहि) नष्ट कर। और हमें (स्थिराणि) स्थिर बल प्रदान कर। अपने (धन्वनः ओजः) धनुष के पराक्रम को (स्थिरा इव वि तनुहि) स्थिर रूप से विशेष रूप से विस्तृत कर। और (अस्मद्रयक्) हमें प्राप्त होकर (ववृधानः) बढ़ता हुआ (अनि-भृष्टः) शत्रुओं से पराजित न होकर (सहोभिः) अपने बलों से (अभि-मातीः) अभिमानी शत्रुओं को (ववृधस्व) नित्य काट और (तन्वं) अपनी विस्तृत शक्ति को (ववृधस्व) बराबर बढ़ा।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरग्नियुतः स्थौरोऽग्नियूपो वा स्थौरः। इन्द्रो देवता। छन्दः— १, ८, ९ त्रिष्टुप्। २ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४ निचृत् त्रिष्टुप्। ५, ७ विराट् त्रिष्टुप्। ६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् राजन् ! आत्मन् ! वा (अर्यः) त्वं राष्ट्रस्य स्वामी सन् शरीरस्य स्वामी सन् वा (श्रवांसि वि तनुहि) धनान्नादीनि-भोग्यानि वस्तूनि “श्रवः-धननाम” [निघ० २।१०] श्रवः-अन्ननाम” [निघ० २।७] विस्तारय (अभिमातीः) अभिमन्यमानान् शत्रून्-अभिभावकान् कामादीन् वा (ओजः-स्थिरा-इव-धन्वनः) ओजसा “विभक्तेर्लुक् छान्दसः” दृढान्येव, एवार्थे “इव” हि धनूंषि विस्तारय (अस्मद्र्यक्) अस्मदभिमुखः सन् (अनिभृष्टः) अन्येनातापितः सन् (सहोभिः वावृधानः) विविधबलैर्वर्धमानः (तन्वं वावृधस्व)  तनूरिव राष्ट्रं वर्धय यद्वा स्वशरीरं वर्धय ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of life and human society, expand the resources of food, energy and sustenance, heighten the power and prestige of life and extend the spatial knowledge and power as on a permanent basis. Unresisted and inviolable by virtue of your own patience, persistence and power, rising in strength and lustre of glory before us, raise the power and prestige of the self and the total human organisation.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजाने राष्ट्राचा स्वामी बनून धन व अन्नाची वृद्धी करावी. शत्रूंवर दृढ शस्त्रांनी प्रहार करण्यासाठी त्यांचा विस्तार करावा व प्रजासुख हे ध्येय बाळगून राष्ट्राला समृद्ध करावे. आत्मा शरीराचा स्वामी असून, त्याच्या निर्वाहासाठी आवश्यक धन, अन्न इत्यादी वस्तूंचे उपार्जन करावे. दबंग काम इत्यादी दोषांना दाबण्यासाठी दृढ शिवसंकल्पाचा विस्तार करावा व आपल्या शरीराला वाढवावे. ॥६॥

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