ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 12/ मन्त्र 5
ऋषिः - हविर्धान आङ्गिः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
किं स्वि॑न्नो॒ राजा॑ जगृहे॒ कद॒स्याति॑ व्र॒तं च॑कृमा॒ को वि वे॑द । मि॒त्रश्चि॒द्धि ष्मा॑ जुहुरा॒णो दे॒वाञ्छ्लोको॒ न या॒तामपि॒ वाजो॒ अस्ति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठकिम् । स्वि॒त् । नः॒ । राजा॑ । ज॒गृ॒हे॒ । कत् । अ॒स्य॒ । अति॑ । व्र॒तम् । च॒कृ॒म॒ । कः । वि । वे॒द॒ । मि॒त्रः । चि॒त् । हि । स्म॒ । जु॒हु॒रा॒णः । दे॒वान् । श्लोकः॑ । न । या॒ताम् । अपि॑ । वाजः॑ । अस्ति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
किं स्विन्नो राजा जगृहे कदस्याति व्रतं चकृमा को वि वेद । मित्रश्चिद्धि ष्मा जुहुराणो देवाञ्छ्लोको न यातामपि वाजो अस्ति ॥
स्वर रहित पद पाठकिम् । स्वित् । नः । राजा । जगृहे । कत् । अस्य । अति । व्रतम् । चकृम । कः । वि । वेद । मित्रः । चित् । हि । स्म । जुहुराणः । देवान् । श्लोकः । न । याताम् । अपि । वाजः । अस्ति ॥ १०.१२.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 12; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(राजा) ज्ञानप्रकाश से राजमान परमात्मा (नः) हमारे (किं स्वित्-जगृहे) किस ही स्तुतिवचन को ग्रहण कर सके-स्वीकार कर सके (अस्य कत्-व्रतम्) इसके किस कर्मविधान शासन को (अतिचकृम) हम अत्यन्त सेवन करें, यह (कः विवेद) कोई भाग्यशाली धीर विवेचन करके जान सकता है (जुहुराणः) बुलाया जाता हुआ-प्रार्थित किया जाता हुआ (मित्रः-चित्-हि-स्म) वह तो मित्रसमान ही (श्लोकः-देवान्-न याताम्) स्तुति सुनने में समर्थ सत्यस्तुति से संयुक्त हुआ हम उपासक मुमुक्षुओं को प्राप्त होवे, (वाजः-अस्ति) मुमुक्षुओं का अमृतभोग है ॥५॥
भावार्थ
परमात्मा को कौन सा स्तुतिवचन स्वीकार होता है तथा उसके किस कर्मशासन आदेश-उपदेश का आचरण या पालन करना चाहिए, यह तो उपासक धीर मुमुक्षु जान सकता है। वह ऐसे मुमुक्षु उपासक का बुलाने स्मरण करने योग्य मित्र है, स्तुति को सुननेवाला, स्तुति सुनने में समर्थ, अमृत भोग देनेवाला उन्हें प्राप्त हो जाता है ॥५॥
विषय
यशो बलम् [श्लोकः + वाजः ]
पदार्थ
[१] वह (राजा) = देदीप्यमान [राज दीप्तौ] ब्रह्माण्ड का शासक प्रभु (किं स्वित्) = क्या (नः जगृहे) = हमारा ग्रहण करेगा ? जैसे पिता पुत्र को गोद में लेता है उसी प्रकार क्या वे प्रभु हमें गोद में लेंगे? [२] (कत्) = कब [कदा] (अस्य) = इस प्रभु के (अतिव्रतम्) = तीव्र व्रतों को (चक्रमा) = हम कर पाएँगे ? अर्थात् उस पिता प्रभु की प्राप्ति के लिये साधनभूत महान् यम-नियम आदि व्रतों का हम कब पूर्णतया पालन कर सकेंगे ? इन बातों को तो (कः) = वह अनिर्वचनीय [शब्दातीत] प्रजापति प्रभु ही (विवेद) = जानते हैं । 'हमारे कर्म प्रभु प्राप्ति के योग्य कब होंगे' ? यह बात तो प्रभु के ही ज्ञान का विषय हो सकती है। ज्यों ही हमारे कर्म उस योग्यता के होंगे त्यों ही प्रभु हमें अपनी गोद में अवश्य ग्रहण करेंगे। [३] वे प्रभु (चित् हि ष्मा) = निश्चय से (मित्रः) = [प्रमीतेः जायते] मृत्यु व रोगों से बचानेवाले हैं, और (देवान्) = देववृत्ति वाले लोगों को (जुहुराण:) = स्नेह पूर्वक अपने समीप पुकारनेवाले हैं [स्निग्धमाह्वयमानः सा०] । जब हम देव बनते हैं, तो हमें उस पिता का स्नेह प्राप्त होता ही है । [४] परन्तु जब तक हम उस योग्यता को नहीं भी प्राप्त कर पाते तब तक (न) = [संप्रति] वर्तमान काल में (याताम्) = गतिशील हम लोगों का (श्लोक:) = यश और (वाजः अपि) = बल भी (अस्ति) = होता ही है । अर्थात् जब तक हम पूर्णरूप से देव नहीं बन जाते तब तक प्रभु कृपा से हमें गतिशीलता के द्वारा यशस्वी बल तो प्राप्त हुआ हुआ ही रहे। इस यशस्वी बल को प्राप्त करके हम देव बनने के लिये अग्रेसर होंगे।
भावार्थ
भावार्थ- हम देव बनकर प्रभु स्नेह के पात्र हों। गतिशील बनकर यशस्वी बल वाले हों।
विषय
शासक के कर्तव्य, उसका वेदवत् सत्य व्यवहारवान् सत्यवक्ता होने का आदेश।
भावार्थ
(राजा) सूर्यवत्, तेजस्वी राजा (नः किं स्वित् जगृहे) हमारा क्या स्वीकार करे ? (अस्य व्रतं) उसके नियम को हम (कत् अति चकृम) कब २ उल्लंघन करते हैं ? (कः विवेद) इस बात को विशेष रूप से कौन जानता है ? वह राजा वस्तुतः हम प्रजाओं का (मित्रः चित्) स्नेही मित्र के समान (जुहुराणः हि) सदा आमन्त्रित होकर (नः देवान् याताम्) हम अभिलाषी जनों को प्राप्त हो। वह (वाजः अपि अस्ति) निश्चय बलवान्, ऐश्वर्यवान्, वेगवान् है तो भी वह (श्लोकः नः) वेदो-पदेश के तुल्य माननीय और विश्वसनीय होकर हमें प्राप्त हो। इत्येकादशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हविर्धान आङ्गिर्ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः— १, ३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ४,५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ९ त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(राजा नः किं स्वित्-जगृहे) ज्ञानप्रकाशेन राजमानः परमात्माऽस्माकं किं हि खलु स्तुतिवचनं स्वीकुर्यात् (अस्य कत्-व्रतम्-अतिचकृम) अस्य किं कथम्भूतं व्रतं कर्म विधानं शासनं वयमत्यन्तं सेवेमहि, इति (कः-विवेद) कश्चन भाग्यशाली धीरो विविच्य वेत्तुमर्हति (जुहुराणः) आहूयमानः (मित्रः-चित्-हि-स्म) स तु मित्र इव हि खलु (श्लोकः-देवान् न याताम्) स स्तुतिश्रवणसमर्थः सत्यस्तुति-संयुक्तः “श्लोकः शृणोतेः” [निरु०९।६] “श्लोकः सत्यवाक्संपृक्तः” [यजु०११।५ दयानन्दः] न सम्प्रत्यर्थे, अस्मान्-उपासकान् मुमुक्षून् प्राप्नोति (वाजः-अस्ति) मुमुक्षूणां वाजोऽमृतभोगोऽस्ति “अमृतोऽन्नं वै वाजः” [जै०२।१९३] ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Does the ruling and refulgent Agni receive and accept our homage? Do we sometime overstep its laws and limits of benediction and experimentation? Who knows this secret we ought to know? Agni after all is a friend. Invoked and served with excess or remiss, it would still accept our homage and adoration and convey it to the divinities, and we pray let there be success and ultimate victory.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर कोणते स्तुतिवचन स्वीकारतो व त्याचे कोणते कर्म-शासन आदेश-उपदेशाचे आचरण किंवा पालन केले पाहिजे हे उपासक धीर मुमुक्षू जाणू शकतो. तो अशा मुमुक्षू उपासकाला आमंत्रित करून स्मरण करण्यायोग्य मित्र आहे. स्तुती ऐकणारा, स्तुती ऐकण्यात समर्थ, अमृत भोग देणारा परमात्मा त्यांना प्राप्त होतो. ॥५॥
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