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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 12/ मन्त्र 7
    ऋषिः - हविर्धान आङ्गिः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यस्मि॑न्दे॒वा वि॒दथे॑ मा॒दय॑न्ते वि॒वस्व॑त॒: सद॑ने धा॒रय॑न्ते । सूर्ये॒ ज्योति॒रद॑धुर्मा॒स्य१॒॑क्तून्परि॑ द्योत॒निं च॑रतो॒ अज॑स्रा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्मि॑न् । दे॒वाः । वि॒दथे॑ । मा॒दय॑न्ते । वि॒वस्व॑तः । सद॑ने । धा॒रय॑न्ते । सूर्ये॑ । ज्योतिः॑ । अद॑धुः । मा॒सि । अ॒क्तून् । परि॑ । द्यो॒त॒निम् । च॒र॒तः॒ । अज॑स्रा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्मिन्देवा विदथे मादयन्ते विवस्वत: सदने धारयन्ते । सूर्ये ज्योतिरदधुर्मास्य१क्तून्परि द्योतनिं चरतो अजस्रा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्मिन् । देवाः । विदथे । मादयन्ते । विवस्वतः । सदने । धारयन्ते । सूर्ये । ज्योतिः । अदधुः । मासि । अक्तून् । परि । द्योतनिम् । चरतः । अजस्रा ॥ १०.१२.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 12; मन्त्र » 7
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (देवाः) मुमुक्षु विद्वान् जन (यस्मिन्-विदथे) जिस वेदनीय-अनुभवनीय में या स्वात्मरूप जिसके आश्रय पर अनुभव करते हैं, उस ऐसे ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा में (मादयन्ते) हर्ष आनन्द को प्राप्त करते हैं, उसे (विवस्वतः-सदने धारयन्ते) मनुष्य के शरीर में बसनेवाले आत्मा के हृदयगृह में धारण करते हैं, जो परमात्मा (सूर्ये ज्योतिः-मासि-अक्तून्-अदधुः) सूर्य में प्रकाश चन्द्रमा में अन्धकार-अन्धकार में व्यक्त होनेवाले नक्षत्र-तारों को धारण करता है, उस (द्योतनिम्-अजस्रा परिचरतः) अपने प्रकाशित करनेवाले परमात्मा को सूर्य चन्द्रमा निरन्तर परिपूर्णरूप आश्रय कर रहे हैं ॥७॥

    भावार्थ

    परमात्मा में मुमुक्षुजन आनन्द प्राप्त करते हैं, उसे अपने हृदय में धारण करते हैं। वह सूर्य में प्रकाश चन्द्रमा में अन्धकार एवं चमकनेवाले तारों को आश्रित करता है। सूर्य और चन्द्रमा निरन्तर परमात्मा के आश्रय में रहते हैं। इसी तरह परमात्मा द्वारा उपासक हृदय में प्रकाश तेज और मन में शान्ति प्राप्त करता है, ज्ञानविकास करता है ॥७॥

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    विषय

    क्रियाशीलता व ज्ञान की उपासना

    पदार्थ

    [१] गतमन्त्र के अनुसार प्रभु के रक्षण में चलनेवाले (देवाः) = देववृत्ति के लोग (यस्मिन्) = जिस समय प्रभु की गोद में रहते हुए, (विदथे) = ज्ञानयज्ञों में (मादयन्ते) = हर्ष का अनुभव करते हैं, अर्थात् सदा ज्ञान- प्रधान जीवन बिताते हैं । [२] (विवस्वतः) = सूर्य के (सदने) = निवास स्थान द्युलोक में (धारयन्ते) = अपना धारण करते हैं। 'द्युलोक' शरीर में मस्तिष्क है, सो जो लोग अपने को मस्तिष्क में धारित करते हैं, अर्थात् हृदय-प्रधान व भावुक वृत्ति के नहीं होते, समझदार = [sensible] तो होते हैं परन्तु बहुत महसूस कर जानेवाले - [sensitive] नहीं हो जाते । [३] (सूर्ये) = 'सूर्ये: चक्षुर्भूत्वा० अपनी आँखों में (ज्योतिः अदधुः) = प्रकाश को धारण करते हैं अर्थात् इनकी आँखों में सदा वह चमक होती है जो कि इनके मानस प्रसाद व उत्साह का संकेत करती है। [४] (मासि) = [चन्द्रमा मनो भूत्वा०], मास्=[the moon] अपने मनों में अक्तून् प्रकाश की किरणों को धारण करते हैं, अर्थात् हृदयस्थ प्रभु के प्रकाश को देखते हैं। [५] तो इस लोक-समाज में (अजस्त्रा) = [अ+जस्= छोड़ना] कर्मों को सदा करनेवाले पति-पत्नी (द्योतनिम्) = ज्ञान की ज्योति का (परिचरतः) = सदा उपासन करते हैं। अर्थात् आदर्श लोकों के घरों में 'क्रियाशीलता व ज्ञान की उपासना' निरन्तर चलती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम ज्ञानयज्ञों में आनन्द लें, सदा समझदारी से चलें, हमारी आँखों में ज्योति मन में आह्लाद। क्रियाशील हों व ज्ञान के उपासक ।

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    विषय

    सूर्यवत् सर्वशासक प्रभु की उपासना।

    भावार्थ

    (यस्मिन् विदथे) ज्ञानस्वरूप जिसमें (देवाः मादयन्ते) विद्वान, ज्ञानवान्, धन और ज्ञान के इच्छुक पुरुष अति हर्ष को प्राप्त होते हैं और (यस्य विवस्वन्तः सदने) नाना वसने योग्य ग्रहों के अध्यक्ष सूर्य के तुल्य जिसके आश्रय में (देवाः) किरणों के तुल्य विद्वान् और वीर जन (धारयन्ते) अपने में व्रत-नियमादि गुण धारण करते हैं। जिस (सूर्ये) सूर्यवत् तेजस्वी के अधीन रह कर (ज्योतिः अदधुः) वे तेज और ज्ञान को धारण करते हैं और (मासि अक्तून्) चन्द्रमा के तुल्य जिसके आश्रय रहकर लोग रात्रियों के समान विशेष सौम्य गुण धारण करते हैं उस (द्योतनिं) तेजस्वी पुरुष के आश्रय ही (अजस्रा) सब नर नारी एक दूसरे का नाश और हिंसा आदि न करते हुए, निरन्तर (परि चरतः) सेवा करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हविर्धान आङ्गिर्ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः— १, ३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ४,५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ९ त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (देवाः) मुमुक्षवो विद्वांसः (यस्मिन् विदथे) यस्मिन् वेदने वेदनीये स्वात्मवेदनं यदाश्रयं तस्मिन् वा ज्ञानप्रकाशस्वरूपे परमात्मनि “परं ज्योतिरुपसम्पद्य स्वेन रूपेणाभि निष्पद्यते” [छान्दो०८।३।४] इत्युक्तं यथा (मादयन्ते) हर्षमाप्नुवन्ति-आनन्दन्ति तं च (विवस्वतः-सदने धारयन्ते) मनुष्यस्य “विवस्वन्तो मनुष्याः” [निघ०२।३] शरीरे निवसते-आत्मनो हृदयगृहे धारयन्ति, यश्च परमात्मा (सूर्ये ज्योतिः-अदधुः) सूर्ये ज्योतिः-प्रकाशमदधात्-दधाति, ‘व्यत्ययेन बहुवचनम्’ पूजार्थं वा (मासि-अक्तून्) मासयति मासश्चन्द्रमाः “एषः-चन्द्रमाः-मासः” [जै०२।३] तत्र चन्द्रमसि तद्विरुद्धमन्धकारमन्धकारे दृश्यमानानि व्यक्तानि नक्षत्राणि दधाति (द्योतनिम्-अजस्रा परिचरतः) तौ सूर्याचन्द्रमसौ तं स्वद्योतयितारं निरन्तरं स्वव्यवहार-कर्तारौ परितः-आश्रयतः ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    In whose being the divinities of nature and humanity rejoice in the yajnic order of existence, carry on their assigned tasks in the regions of light and in the heart and mind of humanity, and vest light in the sun and the dark tinge in the moon, that self-refulgent Agni, the sun and moon and all other divinities constantly adore and serve.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वरात मुमुक्षूजन आनंद प्राप्त करतात. त्याला आपल्या हृदयात धारण करतात. तो सूर्यात प्रकाश व अंधारात चंद्र, तसेच अंधारात चमकणाऱ्या ताऱ्यांना धारण करतो. सूर्य व चंद्र निरंतर परमेश्वराच्या आश्रयाने राहतात, याच प्रकारे परमात्म्याद्वारे उपासक हृदयात प्रकाश तेज व मनात शांती प्राप्त करतो. ज्ञान विकास करतो. ॥७॥

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