ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 12/ मन्त्र 8
ऋषिः - हविर्धान आङ्गिः
देवता - अग्निः
छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यस्मि॑न्दे॒वा मन्म॑नि सं॒चर॑न्त्यपी॒च्ये॒३॒॑ न व॒यम॑स्य विद्म । मि॒त्रो नो॒ अत्रादि॑ति॒रना॑गान्त्सवि॒ता दे॒वो वरु॑णाय वोचत् ॥
स्वर सहित पद पाठयस्मि॑न् । दे॒वाः । मन्म॑नि । स॒म्ऽचर॑न्ति । अ॒पी॒च्ये॑ । न । व॒यम् । अ॒स्य॒ । वि॒द्म॒ । मि॒त्रः । नः॒ । अत्र॑ । अदि॑तिः । अना॑गान् । स॒वि॒ता । दे॒वः । वरु॑णाय । वो॒च॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्मिन्देवा मन्मनि संचरन्त्यपीच्ये३ न वयमस्य विद्म । मित्रो नो अत्रादितिरनागान्त्सविता देवो वरुणाय वोचत् ॥
स्वर रहित पद पाठयस्मिन् । देवाः । मन्मनि । सम्ऽचरन्ति । अपीच्ये । न । वयम् । अस्य । विद्म । मित्रः । नः । अत्र । अदितिः । अनागान् । सविता । देवः । वरुणाय । वोचत् ॥ १०.१२.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 12; मन्त्र » 8
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यस्मिन् मन्मनि-अपीच्ये) जिस मननीय प्रशंसाप्राप्त तथा हृदयान्तर्हित परमात्मा में (देवाः सञ्चरन्ति) मुमुक्षु आत्माएँ सङ्गत होते हैं-समागमलाभ करते हैं (अस्य वयं न विद्म) इसके स्वरूप को हम साधारण जन नहीं जान पाते हैं, वह (अत्र) इसी जन्म में (मित्रः) कर्मार्थ प्रेरित करनेवाला सखा (अदितिः) अविनाशी माता (सविता) उत्पादक पिता (देवः) ज्ञानदाता गुरु (वरुणाय) ‘वरुणः’ मोक्षार्थ वरनेवाला बन्धु भ्राता (नः-अनागान्) हम पापरहितों पुण्यात्मा हुओं को बुलाता है, कल्याणवचन कहता है ॥८॥
भावार्थ
मुमुक्षु आत्माएँ मननीय स्तुति करने योग्य हृदयस्थित परमात्मा में समागम करते हैं। साधारण जन उसे नहीं जान पाते हैं। इसी जन्म में वह कर्मार्थ प्रेरक सखा अविनाशी माता, उत्पादक पिता, ज्ञानदाता गुरु, मोक्षार्थ वरनेवाला बन्धु हम पापरहितों पुण्यात्माओं को बुलाता है, कल्याणवचन सुनाता है ॥८॥
विषय
निष्पापता व प्रभु दर्शन
पदार्थ
[१] (यस्मिन्) = जिस परमात्मा की उपासना के होने पर (देवा:) = देववृत्ति के लोग (मन्मनि) = ज्ञानस्वरूप में (संचरन्ति) = विचरण करते हैं, जो ज्ञानस्वरूप प्रभु (अपीच्ये) = अन्तर्हित हैं, हृदय रूप गुहा में स्थित होते हुए भी हमारे ज्ञान का विषय नहीं बनते। (अस्य) = इस परमात्मा के स्वरूप को (वयम्) = हम (न विद्म) = नहीं जानते हैं । [२] परमात्मा हमारे हृदयों में ही हैं। ऐसा होते हुए भी वे हमारे ज्ञान का विषय नहीं बनते। हम प्रातः सायं वर्षों प्रभु का उपासन करते हैं और उसको पूरा-पूरा जानते नहीं इसी से प्रभु को यहाँ 'अपीच्य' शब्द से स्मरण किया है। ये प्रभु (नः मित्रः) = हमारे मित्र हैं। (अदितिः) = [अविद्यमाना दितिर्यस्मात्] अपने उपासक के स्वास्थ्य को न नष्ट होने देनेवाले हैं। 'मित्रः ' रूप में उपासक को पापों से बचाते हैं, 'अदिति' रूप में रोगों से नष्ट नहीं होने देते । एवं प्रभु हमें (आधि) = व्याधियों से सुरक्षित करनेवाले हैं। [३] ये (सविता) = सब उत्तम प्रेरणाओं को देनेवाले (देवः) = ज्ञान प्रकाश के पुञ्ज प्रभु (अनागान्) = निरपराध जीवन वाले हम लोगों को (वरुणाय) = द्वेष - निवारण के लिये वोचत् उपदेश दें। हमारा जीवन द्वेष शून्य होगा तभी हम प्रभु का साक्षात्कार कर पायेंगे।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु हमारे मित्र हैं। निर्देषता से ही हम प्रभु का साक्षात्कार कर पायेंगे ।
विषय
मुक्ति के अविज्ञेय ब्रह्म के ज्ञान की जिज्ञासा।
भावार्थ
(यस्मिन् मन्मनि) मनन करने योग्य ज्ञानमय जिसमें वा जिसके अधीन (देवाः संचरन्ति) विद्वान् और तेजस्वी लोग सम्यक् आचरण करते हैं। (वयम् अस्य) हम लोग उस प्रभु के (अपीच्ये) अप्रकट रूप में, विद्यमान स्वरूप को (न विद्म) नहीं जानते। वह (मित्रः) स्नेही, सब दुःखों से त्राण करने वाला, (अदितिः) अविनाशी, (सविता) सर्वोत्पादक, (देवः) सर्व-ज्ञानप्रद (वरुणाय) सर्वश्रेष्ठ प्रभु को प्राप्त करने के लिये (अनागान् नः) अपराध-रहित, निष्पाप हम को (अत्र) उस अजेय प्रभु के सम्बन्ध में (वोचत्) उपदेश करे, जिससे हम मुक्त हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हविर्धान आङ्गिर्ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः— १, ३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ४,५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ९ त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यस्मिन् मन्मनि-अपीच्ये) यस्मिन् हि मननीये “मन्मभिः-मननीयैः’ [निरु०१०।६] अपीच्ये-अपचिते प्रशंसां प्राप्ते हृदयान्तर्हिते वा “अपीच्यमपचितमपिहितमन्तर्गतं वा” [निरु०४।२५] परमात्मनि (देवाः-सञ्चरन्ति) मुमुक्षवो विद्वांसः सम्यक् चरन्ति सम्यग् विहरन्ति-सङ्गच्छन्ते (वयम्-अस्य न विद्म) वयं साधारणजनाः-अस्य परमात्मनः स्वरूपं न विद्म, सः (अत्र) अस्मिन् जन्मनि (मित्रः) संसारे कर्मकरणाय प्रेरकः सखा (अदितिः) अविनाशिनी माता (सविता) उत्पादकः-पिता (देवः) ज्ञानदाता गुरुः (वरुणाय) ‘वरुणः’ मोक्षार्थं वरयिता बन्धुः, ‘व्यत्ययेन प्रथमास्थाने चतुर्थी’ (नः-अनागान्-वोचत्) अस्मान् पापसम्पर्करहितान् पुण्यवत आध्यात्मिजनान् स्वं कल्याणवचनं वदेत्-उपदिशेत् ॥८
इंग्लिश (1)
Meaning
In whose illuminative yet mysterious being all divine powers exist and act, we know not well. May the same self refulgent Agni, the divine powers reveal to us, simple, sincere and conscientious seekers of divinity, so that we may distinctly and intelligently know and serve the divine power. May Mitra, universal spirit of divine love, Aditi, imperishable Mother Nature, self- refulgent Savita, the sun, reveal the mysterious power and presence to us.
मराठी (1)
भावार्थ
मुमुक्षू आत्मे मननीय स्तुती करण्यायोग्य हृदयस्थित परमात्म्याला प्राप्त करतात. सामान्य लोक त्याला जाणू शकत नाहीत. याच जन्मात तो कर्मार्थ प्रेरक सखा, अविनाशी माता, उत्पादक पिता, ज्ञानदाता गुरू, मोक्षार्थ वरणारा बंधू आम्हा पापरहित पुण्यात्म्यांना बोलावितो, आमंत्रित करतो, कल्याण वचन ऐकवितो. ॥८॥
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