ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 12/ मन्त्र 6
ऋषिः - हविर्धान आङ्गिः
देवता - अग्निः
छन्दः - स्वराडार्चीत्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
दु॒र्मन्त्वत्रा॒मृत॑स्य॒ नाम॒ सल॑क्ष्मा॒ यद्विषु॑रूपा॒ भवा॑ति । य॒मस्य॒ यो म॒नव॑ते सु॒मन्त्वग्ने॒ तमृ॑ष्व पा॒ह्यप्र॑युच्छन् ॥
स्वर सहित पद पाठदुः॒ऽमन्तु॑ । अत्र॑ । अ॒मृत॑स्य । नाम॑ । सऽल॑क्ष्मा । यत् । विषु॑ऽरूपा । भवा॑ति । य॒मस्य॑ । यः । म॒नव॑ते । सु॒ऽमन्तु॑ । अग्ने॑ । तम् । ऋ॒ष्व॒ । पा॒हि॒ । अप्र॑ऽयुच्छन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
दुर्मन्त्वत्रामृतस्य नाम सलक्ष्मा यद्विषुरूपा भवाति । यमस्य यो मनवते सुमन्त्वग्ने तमृष्व पाह्यप्रयुच्छन् ॥
स्वर रहित पद पाठदुःऽमन्तु । अत्र । अमृतस्य । नाम । सऽलक्ष्मा । यत् । विषुऽरूपा । भवाति । यमस्य । यः । मनवते । सुऽमन्तु । अग्ने । तम् । ऋष्व । पाहि । अप्रऽयुच्छन् ॥ १०.१२.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 12; मन्त्र » 6
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यद्-अत्र) जब इस जन्म में (सलक्ष्मा नाम विषुरूपा भवाति) समानलक्षण मानवी बुद्धि उससे भिन्न विलक्षण दैवी मुमुक्षुजनवाली सुसूक्ष्मा बुद्धि हो जावे, तो (अमृतस्य यमस्य) अमृतस्वरूप जगन्नियन्ता तुझ परमात्मा के (सुमन्तु दुर्मन्तु) सुगमता से मानने योग्य तथा कठिनता से मानने योग्य स्वरूप को (यः-मन्वते) जो निश्चय कर लेता है, वह (ऋष्व अग्ने) हे महान् परमात्मन् ! (तम्-अप्रयुच्छन् पाहि) उसकी निरन्तर रक्षा करता है ॥६॥
भावार्थ
उपासक जब इसी जन्म में अपनी मानवी बुद्धि को दैवी बुद्धि सुसूक्ष्मा बनाकर अमृतस्वरूप परमात्मा के लोकप्रसिद्ध तथा गुह्यस्वरूप को जान लेता है, तो उसकी परमात्मा रक्षा करता है ॥६॥
विषय
नाम-स्मरण की दुष्करता
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के अनुसार हम यशस्वी बल वाले होकर अविच्छिन्न प्रयत्न से देव बनेंगे और प्रभु के प्रिय होंगे। परन्तु हमारा यह प्रयत्न, प्रभु को भूल ही गये तो अवश्य विच्छिन्न हो जाएगा। सो हमें चाहिए कि प्रभु का स्मरण अवश्य रखें। यह बात ठीक है कि (अत्र) = यहाँ इस संसार में (अमृतस्य नाम) = उस अविनाशी प्रभु का नाम (दुर्मन्त्) = स्मरण करना कठिन है । [२] कठिन इसलिए है (यत्) = क्योंकि (सलक्ष्मा) = यह उत्तम लक्षणों वाली [ लक्ष्मभिः सहिता] प्रकृति (विषुरूपा भवाति) = विविध सुन्दर रूपों वाली होती है। यह हिरण्मयी प्रकृति हमारे ध्यान को आकृष्ट करती है और हमें प्रभु से दूर ले जाती है। इसकी चमक हमें प्रभु नाम को विस्मृत करा देती है। वर्तमान में इस देह को धारण करके हम भी देही व साकार बने हुए हैं, प्रकृति है ही साकार । सो यह प्रकृति वर्तमान में हमारी 'सलक्ष्मा' है। हमारा झुकाव इस प्रकृति की ओर ही होता है और परिणामतः हमारे लिये प्रभु नाम-स्मरण बड़ा दुष्कर हो जाता है । [३] यदि आश्चर्यवत् (यः) = जो कोई मनुष्य (यमस्य) = उस नियन्ता प्रभु के (सुमन्तु) = उत्तम मनन योग्य नाम का (मनवते) = [अवबुध्यते] मनन करता है। (अग्ने) = हे अग्रेणी (ऋष्व) = दर्शनीय व जाने योग्य प्रभो ! (तम्) = उस नाम-स्मरण करनेवाले को (अप्रयुच्छन्) = प्रमाद रहित होते हुए आप पाहि = रक्षित करते हो। यह स्तोता आप की रक्षा का पात्र होता है । [४] वस्तुतः यह कितने सौभाग्य का दिन होगा जब कि हम प्रभु नाम-स्मरण में लीन होंगे और प्रभु हमारी रक्षा कर रहे होंगे। यह प्रभु का स्तोता गतमन्त्र के 'याताम्' शब्द के अनुसार खूब क्रियाशील होता है। उस-उस क्रिया को करता हुआ प्रभु को भूलता नहीं, अपने को प्रभु का निमित्त जानता हुआ उन कर्मों का गर्व भी नहीं करता। यही व्यक्ति है जो कि प्रभु की रक्षा का पात्र होता है।
भावार्थ
भावार्थ - प्रकृति की चमक के कारण यहाँ प्रभु नाम-स्मरण कठिन अवश्य है, परन्तु जब हम उस नाम का स्मरण कर पाते हैं तो प्रभु के द्वारा रक्षणीय होते हैं।
विषय
अविज्ञेय परम रहस्य। उसके ज्ञान का आदेश।
भावार्थ
(यत्) जो (सलक्ष्मा) समान लक्षणों से युक्त स्त्रीवत् प्रकृति (विषु-रूपा भवाति) विविध रूपों से सम्पन्न होती है इस सम्बन्ध में (अमृतस्य) अमृत स्वरूप उस प्रभु का (नाम) स्वरूप (दुर्मन्तु) बड़ा दुर्विज्ञेय है। (यः) जो पुरुष उस (यमस्य) पति के तुल्य सर्वनियन्ता, नियामक प्रभु के (सु-मन्तु) सुख से मनन करने योग्य अमृतमय रूप का (मनवते) मनन करता है, हे (अग्ने) तेजस्विन् ! हे (ऋष्व) महान् ! तू (अ प्रयुच्छन्) निष्प्रमाद होकर (तम् पाहि) उसकी रक्षा कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हविर्धान आङ्गिर्ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः— १, ३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ४,५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ९ त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यद्-अत्र) यदाऽस्मिन् जन्मनि (सलक्ष्मा नाम विषुरूपा भवाति) समानलक्षणा मानवी बुद्धिः खलु विषुरूपा तद्भिन्नरूपा विलक्षणा दैवी बुद्धिः सुसूक्ष्मा भवेत् “लिङर्थे लेट्” [अष्टा०३।४।६] “विषुरुपः प्राप्तविद्यः” [ऋ०५।१५।४ दयानन्दः] तदा (अमृतस्य यमस्य) अमृतस्वरूपस्य जगन्नियन्तुस्तव परमात्मनः (सुमन्तु दुर्मन्तु यः-मनवते) सुगमतया मन्तव्यं दुर्गमतया-कठिनतया मन्तव्यं स्वरूपं निश्चिनोति सः (ऋष्व-अग्ने) हे महान् परमात्मन् ! (तम्-अप्रयुच्छन् पाहि) त्वमप्रमाद्यन्-निरन्तरं तं रक्ष-रक्षसि ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Incomprehensible is this mystery of immortal Agni and its power, for sure, since arising from the same one origin and being homogeneous, it grows to boundless variety of forms, which, nevertheless, for the man who knows the One Supreme, Agni, ordainer and controller of this existential variety, is simple and clearly understood. This man, O lord great and gracious, protect and promote without relent.
मराठी (1)
भावार्थ
उपासक याच जन्मी आपल्या मानवी बुद्धीला दैवी बुद्धीला सूक्ष्म बनवून अमृतस्वरूप परमेश्वराच्या प्रसिद्ध व गुह्यस्वरूपाला जाणतो. त्याचे परमेश्वर रक्षण करतो. ॥६॥
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