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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 125 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 125/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वागाम्भृणी देवता - वागाम्भृणी छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒हं राष्ट्री॑ सं॒गम॑नी॒ वसू॑नां चिकि॒तुषी॑ प्रथ॒मा य॒ज्ञिया॑नाम् । तां मा॑ दे॒वा व्य॑दधुः पुरु॒त्रा भूरि॑स्थात्रां॒ भूर्या॑वे॒शय॑न्तीम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒हम् । राष्ट्री॑ । स॒म्ऽगम॑नी । वसू॑नाम् । चि॒कि॒तुषी॑ । प्र॒थ॒मा । य॒ज्ञिया॑नाम् । ताम् । मा॒ । दे॒वाः । वि । अ॒द॒धुः॒ । पु॒रु॒ऽत्रा । भूरि॑ऽस्थात्राम् । भूरि॑ । आ॒ऽवे॒शय॑न्तीम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् । तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहम् । राष्ट्री । सम्ऽगमनी । वसूनाम् । चिकितुषी । प्रथमा । यज्ञियानाम् । ताम् । मा । देवाः । वि । अदधुः । पुरुऽत्रा । भूरिऽस्थात्राम् । भूरि । आऽवेशयन्तीम् ॥ १०.१२५.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 125; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (अहं राष्ट्री) मैं जगद्रूप राष्ट्र की स्वामिनी हूँ (वसूनां सङ्गमनी) समस्त धनों की सङ्गति करानेवाली-प्राप्त करानेवाली (यज्ञियानाम्) श्रेष्ठ कर्मों की (प्रथमा) प्रथम-प्रमुख (चिकितुषी) चेतानेवाली हूँ (भूरिस्थात्राम्) बहुरूप स्थितिवाली (भूरि-आवेशयन्तीम्) जड़ जङ्गम पदार्थों में बहुरूप से आवेश करती हुई (तं मा) उस ऐसी मुझको (देवाः) विद्वान् जन (पुरुत्रा) बहुत रूपों में (व्यदधुः) वर्णन करते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    पारमेश्वरी ज्ञानशक्ति जगद्रूप राष्ट्रस्वामिनी है, धनों की प्राप्ति भी वह कराती है, यज्ञसम्बन्धी कर्मों का विधान बतानेवाली है। बहुत विद्यास्थानवाली सब पदार्थों में प्रविष्ट को विद्वान् जन बहुत रूपों में वर्णन करें जानें ॥३॥

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    विषय

    सर्वशासक - सर्वाधार

    पदार्थ

    [१] (अहम्) = मैं ही (राष्ट्री) = सम्पूर्ण जगत् की शासिका ईश्वरी हूँ। (वसूनाम्) = सब वसुओं को, निवास के लिए आवश्यक धनों को संगमनी प्राप्त करानेवाली हूँ। (चिकितुषी) = ज्ञानवाली मैं ही हूँ । अतएव (यज्ञियानां प्रथमा) = उपास्यों में प्रथम मैं ही हूँ। [२] (ताम्) = उस (मा) = मुझको (देवाः) = देववृत्ति के लोग (पुरुत्रा) = पालन व पूरण के दृष्टिकोण से (व्यदधुः) = धारण करते हैं । जो मैं (भूरिस्थात्राम्) = पालक व पोषक रूप में सर्वत्र स्थित हूँ तथा (भूरि-आवेशयन्तीम्) = पालक व पोषक तत्त्वों को सब जीवों में प्रवेश करानेवाला हूँ। [३] प्रभु सारे चराचर ब्रह्माण्ड के शासन करनेवाले हैं [राष्ट्री ] । सूर्यादि सब वसुओं को प्राप्त करानेवाले प्रभु ही हैं [ संगमनी वसूनां] सूर्य में अपनी शक्ति नहीं। यह प्रभु की ही शक्ति सूर्य में काम कर रही है। प्रभु ही इनमें पालक व पोषक रूप में स्थित हैं [भूरिस्थात्राम् ] । इसी प्रकार सब प्राणियों को चेतना देनेवाले प्रभु ही हैं [चिकितुषी] प्रभु ही इनमें सब पोषक तत्त्वों का प्रदेश कराते हैं [भूरि आवेशयन्तीम्] । वस्तुतः जड़ जगत् के द्वारा चेतन जगत् का धारण करनेवाले ये प्रभु हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ही सबके शासक हैं, प्रभु ही सबके आधार हैं।

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    विषय

    वाग् आम्भृणी। परमात्मा का आत्मशक्ति वर्णन। आत्म विभूति प्रकाश।

    भावार्थ

    (अहं राष्ट्री) मैं सर्वत्र तेज से चमकने वाली, सबको चमकाने वाली, वा राष्ट्र की स्वामिनी के तुल्य, सर्वप्रभु ईश्वरी शक्ति हूँ। मैं (वसूनां संगमनी) नाना ऐश्वर्यों को प्राप्त कराने वाली, समस्त लोकों को प्राप्त कराने वाली, (यज्ञियानां) यज्ञों द्वारा उपास्य (प्रथमा) सबसे श्रेष्ठ, (चिकितुषी) ज्ञानवती हूँ। (ताम्) उस मुझको ही (भूरिस्थात्राम्) बहुत प्रकारों से विद्यमान और (भूरि आवेशयन्तीम्) बहुत से तत्वों वा शक्ति का प्रदान करने वाली मुझको ही (देवाः वि अदधुः) विद्वान् जन विविध प्रकार से प्रतिपादन करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्वाग् आम्भृणी॥ देवता—वाग् आम्भृणी॥ छन्द:- १, ३, ७, ८ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ५ त्रिष्टुप्। ६ निचृत् त्रिष्टुप्। २ पादनिचृज्जगती। अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (अहं राष्ट्री) मैं जगद्रप राष्ट्र की स्वामिनी हूं "राट्री ईश्वरनाम" [निघ० २|२२] (वसूनां सङ्गमनी) समस्त धनों की सङ्गति-प्राप्ति कराने वाली हूं (यज्ञियानां प्रथमा चिकितुषी) यज्ञिय भावनाओं की प्रमुख चेताने वाली -ज्ञानदात्री हूँ (भूरि-स्थात्राम्) बहुत रूप स्थिति वाली - (भूरि आवेशयन्तीम्) जड जङ्गमों में अपने को बहुत प्रकार से आविष्ट करती हुई (तां मा) उस मुझ को (देवाः) विद्वान् जन (पुरुत्रा) बहुरूप में (व्यदधुः) वर्णन करते हैं "एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति” [ऋ० १।१६४।४६] ॥३॥

    विशेष

    ऋषिः- वागाम्भृणी "अम्भृणः महन्नाम" [ निघ० ३।३ महान् परमात्मा की प्रचारिका व्यक्ति ] देवता-वागम्भृणी (परमात्मा की ज्ञानशक्ति पारमेश्वरी अनुभूति)

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अहं राष्ट्री) अहं जगद्रूपस्य राष्ट्रस्य स्वामिनी खल्वस्मि “राष्ट्री ईश्वरनाम” [निघ० २।१२] (वसूनां सङ्गमनी) समस्तधनानां सङ्गमयित्री (यज्ञियानां प्रथमा चिकितुषी) श्रेष्ठकर्मणां प्रमुखा चेतयित्री (भूरि-स्थात्राम्) बहुरूपस्थितिमतीं (भूरि-आवेशयन्तीम्) जडजङ्गमेषु पदार्थेषु बहुरूपेणावेशन्तीमाविष्टां (तां मा) तां मां (देवाः) विद्वांसः (पुरुत्रा) बहुरूपेषु (वि अदधुः) वर्णयन्ति “एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति” [ऋ० १।१६४।४६] ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I am the spirit and organisation of the social system. I am the pioneer and harbinger of the wealth, honours and excellences of the corporate system with the people. I am the thought, awareness and determined organisation of the basics of human life and its values. Sages and scholars establish me in many socio-political forms with many permanent stabilities and many evolving powers and possibilities of progress in various directions.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    पारमेश्वरी ज्ञानशक्ती जगद्रूप राष्ट्रस्वामिनी आहे. ती धनाची प्राप्ती पण करविते. यज्ञासंबंधी कर्माचे विधान सांगणारी आहे. पुष्कळ विद्यास्थानयुक्त असून, सर्व पदार्थांमध्ये प्रविष्ट आहे. विद्वान लोकांनी तिचे अनेक रूपांत वर्णन करावे व जाणावे. ॥३॥

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