ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 125/ मन्त्र 4
मया॒ सो अन्न॑मत्ति॒ यो वि॒पश्य॑ति॒ यः प्राणि॑ति॒ य ईं॑ शृ॒णोत्यु॒क्तम् । अ॒म॒न्तवो॒ मां त उप॑ क्षियन्ति श्रु॒धि श्रु॑त श्रद्धि॒वं ते॑ वदामि ॥
स्वर सहित पद पाठमया॑ । सः । अन्न॑म् । अ॒त्ति॒ । यः । वि॒ऽपश्य॑ति । यः । प्राणि॑ति । यः । ई॒म् । शृ॒णोति॑ । उ॒क्तम् । अ॒म॒न्तवः॑ । माम् । ते । उप॑ । क्षि॒य॒न्ति॒ । श्रु॒धि । श्रु॒त॒ । श्र॒द्धि॒ऽवम् । ते॒ । व॒दा॒मि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणिति य ईं शृणोत्युक्तम् । अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि ॥
स्वर रहित पद पाठमया । सः । अन्नम् । अत्ति । यः । विऽपश्यति । यः । प्राणिति । यः । ईम् । शृणोति । उक्तम् । अमन्तवः । माम् । ते । उप । क्षियन्ति । श्रुधि । श्रुत । श्रद्धिऽवम् । ते । वदामि ॥ १०.१२५.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 125; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
पदार्थ
(मम) मेरे द्वारा अनुमोदित (सः-अन्नम्-अत्ति) वह भोजन खाता है (यः-विपश्यति) जो विशेष देखता है (यः प्राणिति) जो प्राण लेता है (यः-ईम्-उक्तं शृणोति) जो ही कहे हुए को सुनता है (माम्) मुझे (अमन्तवः) न माननेवाले हैं (ते) वे (उप क्षियन्ति) उपक्षय-नाश को प्राप्त होते हैं (ते) तुझे (श्रद्धिवम्) श्रद्धायुक्त सत्यवचन (वदामि) कहती हूँ (श्रुत-श्रुधि) हे विश्रुत-प्रसिद्ध सुन ॥४॥
भावार्थ
जो खानेवाली-देखनेवाली, सुननेवाली पारमेश्वरी ज्ञानशक्ति को नहीं मानते, तदनुसार आचरण नहीं करते, वे क्षीण हो जाते हैं, यह सत्य है ॥४॥
विषय
सर्वपालक प्रभु
पदार्थ
[१] (मया) = मेरे से ही (सः) = वह (अन्नं अत्ति) = अन्न को खाता है (यः) = जो (विपश्यति) = विशिष्टरूप से देखता है, देखते हैं, परन्तु कुछ समझते नहीं, वे अत्यन्त स्थिर-सी अवस्था में पड़े हुए क्षुद्र जन्तु मेरे से ही भोजन को खाते हैं। इसी प्रकार (यः प्राणिति) = जो श्वासोच्छ्वास लेते हुए जीवन को बिता रहे हैं, वे भी मेरे से ही अन्न को प्राप्त करते हैं। केवल देखनेवालों से ये कुछ उत्कृष्ट हैं। इन से भी उत्कृष्ट वे हैं (ये) = जो (ईम्) = निश्चय से (अक्तं शृणोति) = कहे हुए को सुनते हैं। इस प्रकार श्रवण से ज्ञान की वृद्धिवाले मनुष्य भी मेरे से ही अन्न को खाते हैं । [२] (ते अमन्तवः) = वे मनन व विचार से शून्य होने के कारण मुझे न माननेवाले भोग प्रधान वृत्तिवाले व्यक्ति भी (मां उपक्षियन्ति) = मेरे आधार से ही निवास करते हैं। मेरे आधार से जीते हुए भी वे माया से मोहित हुए हुए मुझे नहीं देखते। [३] परन्तु प्रभु का प्रिय पुत्र तो वही है जो मायामूढ न बनकर प्रभु की प्रेरणा को सुनता है । हे (श्रुत) = अन्तः स्थित प्रभु की प्रेरणा को सुननेवाले जीव ! (श्रुधि) = सुन । (श्रद्धिवम्) = [श्रद्धिः श्रद्धा तया युक्तं श्रद्धा यत्वेन तभ्यं ईदृशं ब्रह्मात्मकं वस्तु सा० ] श्रद्धा से लभ्य आत्मज्ञान को ते वदामि तेरे लिए मैं कहता हूँ । इस प्रभु की वाणी को सुननेवाला श्रद्धावान् पुरुष ही ज्ञान को प्राप्त करता है।
भावार्थ
भावार्थ-देखनेवाले केवल श्वासोच्छ्वास लेनेवाले, सुननेवाले सभी प्रभु से ही अन्न को प्राप्त करते हैं। मनन रहित भोग प्रधान पुरुषों को भी प्रभु ही भोजन देते हैं और सुननेवालों को प्रभु ही ज्ञान देते हैं।
विषय
वाग् आम्भृणी। परमात्मा का आत्मशक्ति वर्णन। आत्म विभूति प्रकाश।
भावार्थ
(यः विपश्यति) जो विविध प्रकार के तत्व ज्ञानों का दर्शन करता है, (यः प्राणिति) जो प्राण लेता है, (यः ईम् उक्तम् शृणोति) जो इस उपदिष्ट ज्ञान वेद का श्रवण करता है, (सः मया) वह मेरे दिये (अन्नं) अक्षय कर्मफल का ही भोग करता है। और जो (माम् अमन्तवः) मुझे स्वीकार नहीं करते (ते उप क्षियन्ति) वे नष्ट हो जाते हैं। अथवा—(अमन्तवः) जो अज्ञानी हैं (ते) वे भी (माम् उप क्षियन्ति) गुरु के समीप शिष्यवत् मेरे पास रहते और ज्ञानार्जन का यत्न करते, मेरी उपासना करते हैं। हे (श्रुत) श्रवण (श्रुत) श्रवण करने में समर्थ पुरुष ! तू (श्रुधि) श्रवण कर। (ते) तुझे मैं (श्रद्धिवं) श्रद्धा से धारण करने योग्य सत्य-ज्ञान का (वदामि) उपदेश करती हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्वाग् आम्भृणी॥ देवता—वाग् आम्भृणी॥ छन्द:- १, ३, ७, ८ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ५ त्रिष्टुप्। ६ निचृत् त्रिष्टुप्। २ पादनिचृज्जगती। अष्टर्चं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(यः-अन्नम्-अत्ति) जो अन्न को खाता है (विपश्यति) विशेष देखता है (यः-प्राणिति) जो प्राण लेता है (य:-इम्-उक्तं शृणोति) जो ही कहे को सुनता है (सः-मया) वह मेरे द्वारा खाता देखता प्राण नेता सुनता है (माम्-अमन्तवः) मुझे न मानने वाले हैं (ते-उपक्षियन्ति) वे क्षीण हो जाते हैं। (श्रुत) हे सुनने वाले श्रोता जन! (ते) तेरे लिए (श्रद्धिवं वदामि) श्रद्धावाले श्रद्धायुक्त वचन को बोलती हूं ॥४॥
टिप्पणी
आहन्तव्यमभित्रोतव्यं सोमं यद्वा शत्रूणामाहन्तारं दिवि वर्तमानं देवतात्मकं सोमम्” (सायणः)
विशेष
ऋषिः- वागाम्भृणी "अम्भृणः महन्नाम" [ निघ० ३।३ महान् परमात्मा की प्रचारिका व्यक्ति ] देवता-वागम्भृणी (परमात्मा की ज्ञानशक्ति पारमेश्वरी अनुभूति)
संस्कृत (1)
पदार्थः
(मया) मयाऽनुमोदितः (सः-अन्नम्-अत्ति) स भोजनं भक्षयति (सः-विपश्यति) स विशिष्टं पश्यति (यः प्राणिति) यः प्राणं गृह्णाति (यः-ईम्-उक्तं शृणोति) यश्चोक्तं वचनं शृणोति (माम्-अमन्तवः) मां न मन्यमानाः (ते-उप क्षियन्ति) ते खलूपक्षयं प्राप्नुवन्ति (ते) तुभ्यं (श्रद्धिवं वदामि) श्रद्धायुक्तं वचनं वदामि (श्रुत श्रुधि) विश्रुत-श्रवणे प्रसिद्ध ! मम वचनं शृणु ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O listener, listen, what I say to you is worth listening and doing in faith: Whoever sees whatever he sees, whoever breathes whatever he breathes, whoever hears what is said, he receives the food of life by me. Those who do not listen, do not care, do not believe what I say and neglect me, they waste away, they come to ruin.$(We may realise here that Vagambhmi is not only the voice of divinity, it is also the voice of the people who think and speak truly, positively and jointly whenever and wherever they happen to do so, whether it be in parliaments or assemblies or in the press or in the universities. And this voice must be invariably true and authentic.)
मराठी (1)
भावार्थ
जे खाणाऱ्या (भोजन देणाऱ्या), पाहणाऱ्या, ऐकणाऱ्या परमेश्वरी ज्ञानशक्तीला मानत नाहीत, त्यानुसार आचरण करत नाहीत, ते क्षीण होतात, हे सत्य आहे. ॥४॥
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