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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 136 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 136/ मन्त्र 3
    ऋषिः - मुनयो वातरशनाः देवता - केशिनः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    उन्म॑दिता॒ मौने॑येन॒ वाताँ॒ आ त॑स्थिमा व॒यम् । शरी॒रेद॒स्माकं॑ यू॒यं मर्ता॑सो अ॒भि प॑श्यथ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत्ऽम॑दिता । मौने॑येन । वाता॑न् । आ । त॒स्थि॒म॒ । व॒यम् । शरी॑रा । इत् । अ॒स्माक॑म् । यू॒यम् । मर्ता॑सः । अ॒भि । प॒श्य॒थ॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उन्मदिता मौनेयेन वाताँ आ तस्थिमा वयम् । शरीरेदस्माकं यूयं मर्तासो अभि पश्यथ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्ऽमदिता । मौनेयेन । वातान् । आ । तस्थिम । वयम् । शरीरा । इत् । अस्माकम् । यूयम् । मर्तासः । अभि । पश्यथ ॥ १०.१३६.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 136; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (मौनेयेन) मननीय सूर्य के द्वारा (उन्मदिताः) उत्कृष्ट हर्षित-प्रकाशित हुए (वयं वातान्-आ तस्थिम) गतिप्रद वायुओं-वातसूत्रों को आश्रित करके हम भलीभाँति ठहरे हुए हैं आकाश में (यूयं मर्त्तासः) हे ! तुम मनुष्यो ! (अस्माकं शरीराणि-इत्) हमारे बाहिरी शरीर आकार को ही (अभि पश्यथ) देखते हो, विशिष्ट नहीं जानते हो ॥३॥

    भावार्थ

    आलङ्कारिक भाषा में आकाश के ग्रह बोलते हैं-मननीय सूर्य के द्वारा ग्रह प्रकाशित होते हैं, गतिप्रद वातसूत्रों के आश्रित आकाश में गति करते हैं, मनुष्य केवल उन बाहिरी रूप को देखते हैं, परन्तु अन्दर के स्वरूप को नहीं जानते हैं ॥३॥

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    विषय

    प्राणाधिष्ठानता

    पदार्थ

    [१] 'मुनेर्भावः मौनेयम्' (मौनेयेन) = मौन साधना व मनन के द्वारा (उन्मदिताः) = उत्कृष्ट हर्ष को प्राप्त हुए हुए (वयम्) = हम (वातान्) = प्राणों के (आतस्थिम) = अधिष्ठाता बनते हैं । प्राणसाधना के द्वारा प्राणों को वश में करना ही प्राणों का अधिष्ठाता बनना है। प्राणों के अधिष्ठाता बनकर ये व्यक्ति निर्दोष बनते हुए देव बनकर प्रभु में प्रवेश करनेवाले होते हैं । [२] प्रभु कहते हैं कि हैं (मर्तासः) = सामान्य मनुष्यो ! तुम तो (अस्माकम्) = हमारे शरीरा (इत्) = इन शरीरों को ही (अभिपश्यथ) = देखते हो। तुम इन शरीरों से ऊपर नहीं उठ पाते । अन्नमयकोश तक ही तुम्हारी दौड़ रहती हैं, तुम प्राणमय में नहीं आ पाते। बस, अन्नमय से ऊपर उठेंगे तभी देववृत्ति का प्रारम्भ होगा। असुर लोग अन्नमय में ही रमे रह जाते हैं। वे इन शरीरों का ही पोषण करते-करते समाप्त हो जाते हैं । देव लोग शरीर को स्वस्थ रखते हुए आगे बढ़ते हैं, वे प्राणमयकोश को उत्तम बनाने का ध्यान करते हैं। इस प्राणसाधना से उनका मन निष्पाप बनता है, बुद्धि तीव्र होती है और वे प्रभु में प्रवेश करनेवाले बनते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम मर्त न बने रहकर देव बनें । प्राणों के अधिष्ठाता बनकर आगे बढ़ें।

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    विषय

    देह में प्राणों के सूक्ष्म और स्थूल रूप।

    भावार्थ

    प्राणगण कहते हैं—(वयम्) हम (मौनेयेन) मननशील अन्तःकरण के भी स्वामी आत्मा द्वारा (उन्मदिताः) उत्तम हर्षयुक्त होकर (वातान् आतस्थिम) केवल प्राणों, वायुओं के आश्रय पर विराजते हैं। हे (मर्त्तासः) मनुष्यो ! (यूयं मर्त्तासः) आप मरणधर्मा लोग (शरीरा इत् अस्माकं अभि पश्यथ) हमारे शरीरमात्र, अर्थात् बाह्य आकृति मात्र ही को देख सकते हो। भीतरी रूप को नहीं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः मुनयो वातरशनाः। देवता—१ जूतिः। २ वातजूतिः। ३ विप्रजूतिः। ४ वृषाणकः। ५ करिक्रतः। ६ एतशः। ७ ऋष्यशृगः॥ केशिनः॥ छन्दः— १ विराडनुष्टुप्। २—४,७ अनुष्टुप्। ५, ६ निचृदनुष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (मौनेयेन) मननीयसूर्येण (उन्मदिताः) उत्कृष्टं हर्षिताः प्रकाशिताः (वयं वातान्-आ तस्थिम) वयं वायून्-आश्रित्य समन्तात् स्थिताः-ग्रहाः (यूयं मर्त्तासः) हे मनुष्या (अस्माकं शरीरा-इत्) अस्माकं शरीराणि हि बाह्याकारान् हि (अभि पश्यथ) अभिपश्यत न विशिष्टं जानीथ ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Inspired by the sun we, space objects, abide in orbital stability by the cosmic currents of universal energy. O mortals, you may see our body on the surface, but nothing inside.$(Pranic energies of the sage inspired by spiritual energy, we abide in balance with the psychic currents of the soul. O mortals, you can visualise and observe our physical movements, but the inner reality, you can’t.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आलंकारिक भाषेत आकशातील ग्रह बोलतात. सूर्याद्वारे ग्रह प्रकाशित होतात. गतिप्रद वातसूत्रांच्या आश्रित आकाशात गती करतात. माणसे केवळ त्या बाहेरच्या रूपांना पाहतात; परंतु आतल्या स्वरूपाला जाणत नाहीत. ॥३॥

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