ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 136/ मन्त्र 4
अ॒न्तरि॑क्षेण पतति॒ विश्वा॑ रू॒पाव॒चाक॑शत् । मुनि॑र्दे॒वस्य॑देवस्य॒ सौकृ॑त्याय॒ सखा॑ हि॒तः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्तरि॑क्षेण । प॒त॒ति॒ । विश्वा॑ । रू॒पा । अ॒व॒ऽचाक॑शत् । मुनिः॑ । दे॒वस्य॑ऽदेवस्य । सौकृ॑त्याय । सखा॑ । हि॒तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्तरिक्षेण पतति विश्वा रूपावचाकशत् । मुनिर्देवस्यदेवस्य सौकृत्याय सखा हितः ॥
स्वर रहित पद पाठअन्तरिक्षेण । पतति । विश्वा । रूपा । अवऽचाकशत् । मुनिः । देवस्यऽदेवस्य । सौकृत्याय । सखा । हितः ॥ १०.१३६.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 136; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(मुनिः) मननीय सूर्य (अन्तरिक्षेण पतति) आकाश से प्राप्त होता है (देवस्य देवस्य) प्रत्येक ग्रह के (विश्वा रूपा) सब रूपों को (अवचाकशत्) प्रकाशित करता है (सौकृत्याय) शोभन गति कार्य के हेतु (सखा हितः) सखा बना हुआ ॥४॥
भावार्थ
सूर्य आकाश में प्राप्त होता है, तो प्रत्येक ग्रह के सब रूपों को प्रकाशित करता है उनके सुन्दर गतिकार्य के लिये सखा बना हुआ ॥४॥
विषय
मध्यमार्ग से चलना
पदार्थ
[१] गत मन्त्र का प्राणसाधक (अन्तरिक्षेण पतति) = सदा मध्य मार्ग से चलता है। 'युक्ताहार विहार' बनता है । प्राणायाम का लाभ इस युक्तचेष्ट पुरुष को ही होता है। यह (विश्वारूपा अवचाकशत्) = सब पदार्थों को सूक्ष्मता से देखता है, उनके तत्त्व को जानता हुआ उनका ठीक ही प्रयोग करता है । [२] (मुनिः) = यह मौन के साथ मनन करनेवाला होता है। इस चिन्तन का ही परिणाम है कि यह (देवस्य देवस्य) = प्रत्येक इन्द्रिय के (सौकृत्याय) = उत्तम कृत्य के लिए होता है । इसकी सब इन्द्रियाँ शुभ ही कर्मों को करनेवाली होती हैं। यह सबका (सखा) = मित्र होता है। और (हितः) = सबके हित की कामना व करणीवाला होता है । यह कभी दूसरों के अहित के दृष्टिकोण से कार्यों को नहीं करता।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधक सदा मध्यमार्ग से चलता है। विचारशील होता है, सदा सबका हित करने की वृत्तिवाला होता है।
विषय
देहाश्रम में स्थित आत्ममुनि का वर्णन।
भावार्थ
(मुनिः) मननशील, विज्ञानमय आत्मा वा मनः सत्व, (अन्तरिक्षेण) भीतरी व्याप्त साधन या बल से (पतति) गति करता है और (विश्वा रूपा अव चाकशत्) समस्त रूपों वा रुचिकर पदार्थों को देखता है। वह (देवस्य-देवस्य) प्रत्येक इन्द्रिय के (सौकृत्याय) उत्तम रूप से कार्य करने के लिये उसके (सखा) समान नाम रूप वाला मित्रवत् होकर (हितः) उसमें विराजता है।
टिप्पणी
यत्रैतदाकाशमनुविषण्णं चक्षुः पुरुषो दर्शनाय चक्षुः। अथ यो वेद इदं जिघ्राणीति स आत्मा गन्धाय घ्राणम्। अथ यो वेद इदमभिव्याहराणि इति स आत्मा अभिव्याहाराय वाग्। अथ यो वेदेदं शृणवानीति स आत्मा श्रवणाय श्रोत्रम् । अथ यो वेदेदं मन्वानीति स आत्मा मनोऽस्मद्दैवं चक्षुः। स वा एता एतेन दैवेन चक्षुषा मनसा एतान् कामान् पश्यन् [ रमते ] छान्दोग्य उप० अ० ८ ख० १३ ॥ यदेतम् हृदयं मनश्वेतत्। संज्ञानमाज्ञानं विज्ञानं प्रज्ञानं मेधा दृष्टिर्धृतिर्मनीषा, जूति स्मृतिः संकल्पः क्रतुरसुः कामो वश इति। छा० एष हि द्रष्टा स्पष्टा श्रोता घ्राता रसयिता मन्ता बोद्धा कर्त्ता विज्ञानात्मा पुरुषः ॥ प्रश्न० प्र० ४। ९ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः मुनयो वातरशनाः। देवता—१ जूतिः। २ वातजूतिः। ३ विप्रजूतिः। ४ वृषाणकः। ५ करिक्रतः। ६ एतशः। ७ ऋष्यशृगः॥ केशिनः॥ छन्दः— १ विराडनुष्टुप्। २—४,७ अनुष्टुप्। ५, ६ निचृदनुष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(मुनिः) मननीयः सूर्यः (अन्तरिक्षेण पतति) अन्तरिक्षेण गच्छति प्राप्नोति वा (देवस्य देवस्य) प्रत्येकग्रहस्य (विश्वा रूपा-अवचाकशत्) सर्वाणि रूपाणि प्रकाशयति (सौकृत्याय) शोभनगतिकार्यस्य हेतवे (सखा हितः) सखा हितः सन् ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The sun which is an object of meditative realisation flies through space, illuminating and watching the forms of heavenly bodies in the solar system. It itself is placed in orbit by the divine spiritual energy of the cosmos for the sake of harmony among the heavenly objects of the cosmic system.$(So does the soul vibrate in the microcosmic system illuminating, the intelligence and energising the mind and senses and the pranas to achieve the individual’s harmony with himself and the totality of existence.)
मराठी (1)
भावार्थ
सूर्य आकाशात असतो. तेव्हा प्रत्येक ग्रहाच्या सर्व रूपांना त्यांच्या सुंदर गतीच्या कार्यासाठी प्रकाशित करतो. ॥४॥
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