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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 141 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 141/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अग्निस्तापसः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    प्र नो॑ यच्छत्वर्य॒मा प्र भग॒: प्र बृह॒स्पति॑: । प्र दे॒वाः प्रोत सू॒नृता॑ रा॒यो दे॒वी द॑दातु नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । नः॒ । य॒च्छ॒तु॒ । अ॒र्य॒मा । प्र । भगः॑ । प्र । बृह॒स्पतिः॑ । प्र । दे॒वाः । प्र । उ॒त । सू॒नृता॑ । रा॒यः । दे॒वी । द॒दा॒तु॒ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र नो यच्छत्वर्यमा प्र भग: प्र बृहस्पति: । प्र देवाः प्रोत सूनृता रायो देवी ददातु नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । नः । यच्छतु । अर्यमा । प्र । भगः । प्र । बृहस्पतिः । प्र । देवाः । प्र । उत । सूनृता । रायः । देवी । ददातु । नः ॥ १०.१४१.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 141; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अर्यमा नः प्र यच्छतु) न्यायाधीश हमारे लिए न्याय दे (भगः-प्र) ऐश्वर्यवान् ऐश्वर्य दे (बृहस्पतिः-प्र) वेदवाणी का स्वामी वेदाचार्य वेदज्ञान प्रदान करे (देवाः-प्र) विद्वान् जन हमारे लिए शरण प्रदान करें (उत सूनृता देवी) तथा शोभन अन्नवाली अन्नव्यवस्थापिका समिति (नः-रायः-प्र ददातु) हमारे लिए धन अन्नादि को प्रदान करे ॥२॥

    भावार्थ

    राष्ट्र में रहनेवाले प्रजाजनों के लिए न्यायाधीश न्याय दे और धन-सम्पत्तिशाली जन केवल अपने लिए ही नहीं, अपितु प्रजाजनों के लिए उस सम्पत्ति का यथोचित भाग दें, विद्वान् जन प्रजा को ज्ञान शरण प्रदान करें, अन्नादि की व्यवस्था करनेवाली समिति या राजनीति प्रजा के लिए अन्न आदि देती रहे ॥२॥

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    विषय

    सत्य से धनार्जन

    पदार्थ

    [१] (नः) = हमारे लिये (अर्यमा) = देनेवाला प्रभु (रायः) = धनों को (प्रयच्छतु) = प्रकर्षेण देनेवाला हो [अर्यमेति तमाहुर्यो ददाति ] । (भगः) = ऐश्वर्य का स्वामी प्रभु (प्र) = धनों को दे । (बृहस्पतिः) = ज्ञान का स्वामी प्रभु (प्र) = धनों को दे । (देवाः) = देव (प्र) = धनों को दें। (उत) = और (सूनृता देवी) = प्रिय सत्यासत्य की वाणी (नः) = हमारे लिये (रायः) = धनों को (प्र ददातु) = प्रकर्षेण देनेवाला हो। [२] अर्यमा आदि नामों से प्रभु को स्मरण करते हुए धन को माँगने का भाव यह है कि हम भी अर्यमा आदि बनें। हम धनों को देनेवाले हों [अर्यमा], धनों के स्वामी हों [भगः ], ज्ञानी बनकर धनों में आसक्त न हों [बृहस्पति], देववृत्तिवाले बनें [देवा:], कभी अनृत मार्ग से, असत्य से धन को कमानेवाले न हों [सूनृता देवी] ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम धनों को प्राप्त करें । परन्तु इन धनों में आसक्त न होकर इन्हें देनेवाले हों, ज्ञान को महत्त्व दें। सदा सत्यमार्ग से धन को कमाते हुए देववृत्तिवाले बनें ।

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    विषय

    न्यायकारी से न्याय, वेदज्ञ से ज्ञान, विदुषी सेवा भूमि से नाना ऐश्वर्यादि की याचना।

    भावार्थ

    (अर्यमा नः प्र यच्छतु) न्यायकारी जन हमें सत्य न्याय प्रदान करे। (भगः) ऐश्वर्यवान् हमें (प्र) उत्तम ऐश्वर्य प्रदान करें। (बृहस्पतिः) बड़े राज्य और ज्ञान का स्वामी हमें (प्र) राज्य और ज्ञान दे। (देवाः) तेजस्वी जन (उत) और (सूनृता देवी) उत्तम अन्न जल और सत्य वचन से युक्त दानशील विदुषी और भूमि हमें (रायः) देने योग्य, प्रकाश, ज्ञान, अन्न, जल, सत्य वचन (नः प्रददातु) हमें प्रदान करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिग्निस्तापसः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:- १, २ निचृद्नुष्टुप्। ३, ६ विराडनुष्टुप्। ४, ५ अनुष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अर्यमा नः प्र यच्छतु) न्यायाधीशः “अर्यमा न्यायाधीशः” [ऋ० १।२६।४ दयानन्दः] अस्मभ्यं न्यायं प्रददातु (भगः-प्र) भगमैश्वर्यं यस्य स भगः, ‘अकारो मत्वर्थीयः’ ऐश्वर्यवान्, ऐश्वर्यभागं प्रददातु (बृहस्पतिः प्र) बृहत्या वेदवाचः स्वामी वेदाचार्यः-वेदज्ञानं प्रददातु (देवाः-प्र) विद्वांसोऽस्मभ्यं शरणं प्रददतु (उत सूनृता देवी) अपि-च शोभनमन्नं यस्यां सा शोभनान्नवती साऽन्नव्यवस्थापिकासमितिः “सूनृतान्ननाम” [निघ० २।७] सूनृता “अन्नादिसमूहकरी राजनीति...” [ऋ० १।५१।२ दयानन्दः] (नः-रायः प्र ददातु) अस्मभ्यं धनान्नादीन् प्रददातु ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May Aryama, lord of justice and rectitude, Bhaga, lord giver of wealth, power and glory, Brhaspati, lord of expansive space, universal vision and speech, Devas, all divinities of nature and nobilities of humanity, and divine Sunrta, Vedic voice of truth and law of existence, give us wealth, honour and prosperity of life, wisdom and enlightenment.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राष्ट्रात राहणाऱ्या प्रजेला न्यायाधीशाने न्याय द्यावा व धन संपत्तियुक्त लोकांनी केवळ आपल्यासाठी नव्हे तर प्रजेसाठी त्या संपत्तीचा यथायोग्य भाग द्यावा. विद्वान लोकांनी प्रजेला ज्ञानासाठी आश्रय द्यावा. अन्न इत्यादींची व्यवस्था करणाऱ्या समितीने प्रजेसाठी अन्न इत्यादी देत राहावे. ॥२॥

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