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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 145 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 145/ मन्त्र 3
    ऋषिः - इन्द्राणी देवता - उपनिषत्सपत्नीबाधनम् छन्दः - स्वराडार्च्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    उत्त॑रा॒हमु॑त्तर॒ उत्त॒रेदुत्त॑राभ्यः । अथा॑ स॒पत्नी॒ या ममाध॑रा॒ साध॑राभ्यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत्ऽत॑रा । अ॒हम् । उ॒त्ऽत॒रे॒ । उ॒त्ऽत॒रा । इत् । उत्ऽत॑राभ्यः । अथ॑ । स॒ऽपत्नी॑ । या । मम॑ । अध॑रा । सा । अध॑राभ्यः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्तराहमुत्तर उत्तरेदुत्तराभ्यः । अथा सपत्नी या ममाधरा साधराभ्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्ऽतरा । अहम् । उत्ऽतरे । उत्ऽतरा । इत् । उत्ऽतराभ्यः । अथ । सऽपत्नी । या । मम । अधरा । सा । अधराभ्यः ॥ १०.१४५.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 145; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (उत्तरे) हे उत्कृष्ट सोम ओषधि ! तू (उत्तरा) ओषधियों में उत्कृष्ट है (अहम्) मैं अध्यात्मविद्या (उत्तराभ्यः) सब उत्कृष्ट विद्याओं से (उत्तरा) उत्कृष्ट हूँ (अथ) और (या) जो (मम) मेरी (सपत्नी) सपत्नी कामवासना (अधरा) अधरा नीच है (अधराभ्यः) नीचों से (अधरा) नीच है ॥३॥

    भावार्थ

    जैसे ओषधियों में सोम उत्कृष्ट है, ऐसे अध्यात्मविद्या सब विद्याओं में उत्कृष्ट है, कामवासना नीच है सब नीच भावनाओं में, अतः कामवासना को स्थान अधिक न देना चाहिए ॥३॥

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    विषय

    एक उत्तरा, दूसरी अधरा

    पदार्थ

    [१] 'इन्द्राणी' आत्मविद्या को सम्बोधन करती हुई कहती है कि (उत्तरे) = हे जीवन को उत्कृष्ट बनानेवाली आत्मविद्ये! (अहं उत्तरा) = मैं उत्कृष्ट जीवनवाली होती हूँ । (उत्तराभ्यः इत् उत्तरा) = उत्कृष्ट जीवनवालों से भी उत्कृष्ट जीवनवाली होती हूँ। [२] (अथा) = अब (या मम सपत्नी) = ये जो भोगवृत्तिरूप मेरी सपत्नी है, मेरी शत्रु है, (सा) = वह (अधराभ्यः अधरा) = नीचे से भी नीचे होती है। ये तो जीवन को बड़ा निकृष्ट बना डालती है, इसे मैं कुचल ही डालती हूँ, पाँवों तले दबा देती हूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ-योगवृत्ति बढ़े और भोगवृत्ति क्षीण हो । भोगवृत्ति की अधरता में ही योगवृत्ति की उत्तरता है ।

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    विषय

    ब्रह्मविद्या की सर्वोत्तमता।

    भावार्थ

    हे (उत्तरे) उत्तम लोक को लेजाने वाली कर्मविद्ये ! (अहम् उत्तरा) मैं तुझ से भी अधिक उत्कृष्ट लोक में पुरुष को पहुंचाती हूं। (उत्तराभ्यः इत् उत्तरा) उत्तम गति प्राप्त करने वाली सभी विद्याओं से मैं उत्तम हूं । (अथ) और (या) जो (मम सपत्नी) मेरी सौत के तुल्य अविद्या है (सा अधराभ्यः अधरा) वह नीचे लेजाने वाली सब गतियों में से सबसे अधिक नीचे गिराने वाली है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषि इन्द्राणी ॥ देवता—उपनिषत्सपत्नी बाधनम्। छन्दः- १, ५ निचृदनुष्टुप्। २, ४ अनुष्टुप्। ३ आर्ची स्वराडनुष्टुप्। ६ निचृत् पंक्तिः॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (उत्तरे-उत्तरा) हे उत्कृष्टे सोमोषधे ! त्वामोषधिषूत्कृष्टा (अहम्-उत्तराभ्यः-उत्तरा) अहमध्यात्मविद्या सर्वाभ्य उत्कृष्टाभ्यो विद्याभ्य उत्कृष्टाऽस्मि (अथ) अथ च (या मम सपत्नी-अधरा) या मम सपत्नी कामवासना साऽधराऽस्ति (अधराभ्यः-अधरा) निकृष्टाभ्यो निकृष्टाऽस्ति ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O soma, you are higher, more efficacious. I also am higher than the fascination, greater than all others who are superior, generally speaking. May that which is my rival be lower than the lowest fascinations.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जशी औषधींमध्ये सोम औषधी उत्कृष्ट आहे. तशी अध्यात्मविद्या सर्व विद्यांमध्ये उत्कृष्ट आहे. सर्व नीच भावनेमध्ये कामवासना नीच आहे. त्यासाठी कामवासनेला अधिक स्थान देऊ नये. ॥३॥

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