ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 145/ मन्त्र 4
ऋषिः - इन्द्राणी
देवता - उपनिषत्सपत्नीबाधनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
न॒ह्य॑स्या॒ नाम॑ गृ॒भ्णामि॒ नो अ॒स्मिन्र॑मते॒ जने॑ । परा॑मे॒व प॑रा॒वतं॑ स॒पत्नीं॑ गमयामसि ॥
स्वर सहित पद पाठन॒हि । अ॒स्याः॒ । नाम॑ । गृ॒भ्णामि॑ । नो इति॑ । अ॒स्मिन् । र॒म॒ते॒ । जने॑ । परा॑म् । ए॒व । प॒रा॒ऽवत॑म् । स॒ऽपत्नी॑म् । ग॒म॒या॒म॒सि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नह्यस्या नाम गृभ्णामि नो अस्मिन्रमते जने । परामेव परावतं सपत्नीं गमयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठनहि । अस्याः । नाम । गृभ्णामि । नो इति । अस्मिन् । रमते । जने । पराम् । एव । पराऽवतम् । सऽपत्नीम् । गमयामसि ॥ १०.१४५.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 145; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अस्याः-नाम) इस कामवासना का-नाम मैं अध्यात्म-विद्या (नहि गृभ्णामि) नहीं ग्रहण करवाती हूँ (अस्मिन् जने) इस मनुष्य में जिसमें मैं अध्यात्मविद्या रहती हूँ (न रमते) उसमें कामवासना नहीं रमण करती है-नहीं ठहर सकती है (सपत्नीम्) विरोधी कामवासना को (परम्-एव) अन्य दिशा को-दूर दिशा को ही (परावतम्) दूर देश को (गमयामसि) पहुँचा देती हूँ ॥४॥
भावार्थ
जिस मनुष्य के अन्दर अध्यात्मविद्या बस जाती है, उसमें कामवासना नहीं रहती है, अपितु वह कामवासना का नाम तक नहीं लेता,उससे कामवासना दूर हो जाती है ॥४॥
विषय
भोगवृत्ति का नाम भी न लेना
पदार्थ
[१] (अस्याः) = इस भोगवृत्ति का (नाम) = नाम भी (नहि गृभ्णामि) = नहीं ग्रहण करता हूँ । (अस्मिन् जने) = इस मनुष्य में (नो) = नहीं (रमते) = रमण करती। यह भोगवृत्ति इस प्रभु के उपासक में अपनी क्रीड़ा नहीं करती यह भोगवृत्ति से दूर ही रहता है। [२] (पराम्) = शत्रुभूत इस (सपत्नीम्) = इन्द्राणी की सपत्नीरूप भोगवृत्ति को (परावतं गमयामसि) = बहुत दूर भेजते हैं। आत्मविद्या की प्राप्ति इस भोगवृत्ति को हमारे से सुतरां दूर कर देती है।
भावार्थ
भावार्थ- आत्मविद्या की ओर झुकाव के होने पर भोगवृत्ति का नामोनिशान भी हमारे में नहीं रहता ।
विषय
अविद्यानाश का वर्णन।
भावार्थ
मैं (अस्याः नाम न हि गृभ्णामि) इस अविद्या रूप सौत का नाम भी ग्रहण नहीं करती हूं। (अस्मिन् जने) इस पुरुष में यह अविद्या (नो रमते) कभी सुख प्रदान नहीं करती। हम (सपत्नीं) आत्मा पर अपना अधिकार करने वाली वा सदा नीचे गिराने वाली अविद्या को (पराम् एव परावतम्) दूर से दूर ही (गमयामसि) करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषि इन्द्राणी ॥ देवता—उपनिषत्सपत्नी बाधनम्। छन्दः- १, ५ निचृदनुष्टुप्। २, ४ अनुष्टुप्। ३ आर्ची स्वराडनुष्टुप्। ६ निचृत् पंक्तिः॥ षडृचं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अस्याः-नाम न हि गृभ्णामि) अस्याः कामवासनायाः खलु नाम नहि ग्राहयामि ‘अन्तर्गतो णिजर्थः’ अहमुपनिषदध्यात्मविद्या (अस्मिन् जने न रमते) यस्मिन् ह्यहमध्यात्मविद्या रमे, अस्मिन्-अध्यात्मविद्यावति शान्ते जने न कामवासना रमतेऽवतिष्ठते (सपत्नीम्) विरोधिनीं कामवासनां (पराम्-एव परावतम्) परामन्यां दिशं हि तथाऽन्यं दूरदेशं (गमयामसि) प्रेरयामसि प्रक्षिपामि “अस्मदो द्वयोश्च” [अष्टा० १।२।५९] ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
I do not even think of its name. No one entertains this human distraction, no one is distracted by this human fascination. We throw this remote fascination far off at the farthest.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या माणसामध्ये अध्यात्मविद्या असते त्याच्यामध्ये कामवासना राहत नाही. तो कामवासनेचे नावही घेत नाही. त्याच्यातून कामवासना दूर होते. ॥४॥
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