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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 146 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 146/ मन्त्र 3
    ऋषिः - देवमुनिरैरम्मदः देवता - अरण्यानी छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    उ॒त गाव॑ इवादन्त्यु॒त वेश्मे॑व दृश्यते । उ॒तो अ॑रण्या॒निः सा॒यं श॑क॒टीरि॑व सर्जति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । गावः॑ऽइव । अ॒द॒न्ति॒ । उ॒त । वेश्म॑ऽइव दृ॒श्य॒ते॒ । उ॒तो इति॑ । अ॒र॒ण्या॒निः । सा॒यम् । श॒क॒टीःऽइ॑व । स॒र्ज॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत गाव इवादन्त्युत वेश्मेव दृश्यते । उतो अरण्यानिः सायं शकटीरिव सर्जति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । गावःऽइव । अदन्ति । उत । वेश्मऽइव दृश्यते । उतो इति । अरण्यानिः । सायम् । शकटीःऽइव । सर्जति ॥ १०.१४६.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 146; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (उत) और (गावः-इव-अदन्ति) गौवें जैसे अरण्यपशु गवय-नीलगाय घास-आदि खाते हैं (उत) और (वेश्म-इव दृश्यते) कहीं पर घर जैसा गुल्म आदि का वितान-घेरा बना हुआ दिखाई देता है (उत) और सायङ्काल के समय (अरण्यानिः) अरण्यानी (शकटीः-इव) गाड़ियों जैसी को (सर्जति) वायु के प्रचलन से चलाती हुई सी दिखलाई देती है ॥३॥

    भावार्थ

    अरण्यों के समूह अरण्यानी का यह भी एक दृश्य है, उनमें नीलगाय आदि वन्य पशु घास खाते हुए विचरते हैं और वहीं पर गुल्म तरु आदियों से छाया हुआ घर जैसा दिखलाई पड़ता है और सायंकाल के समय तीव्र वायु के झोंके लगते हैं, जैसे गाड़ियाँ चलती हों ॥३॥

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    विषय

    सादगी व शून्यावस्था का अभ्यास

    पदार्थ

    [१] (उत) = और (गावः इव) = गौवों की तरह (अदन्ति) = वनस्थ पुरुष खाते हैं। ये ग्राम्य भोजनों को छोड़कर वन के फल-मूलादिकों को ही खानेवाले बनते हैं । यथासम्भव अग्निपक्व आहार का यह त्याग कर देते हैं । [२] (उत) = और इन्हें यह वन ही (वेश्म इव) = घर की तरह (दृश्यते) = दिखता है । यह कुटिया को ही महल समझते हैं । (उत उ) = और निश्चय से (अरण्यानि:) = यह वनस्थ पुरुष (सायम्) = सायंकाल (शकटीः इव) = गाड़ियों की तरह (सर्जति) = सब हृदयस्थ भावों को विसृष्ट करता है। जैसे वन से सब लकड़ी आदि को लेने के लिये आयी हुई गाड़ियाँ लौट जाती हैं, इसी प्रकार यह वनस्थ पुरुष दिन की समाप्ति पर सब भावों को दूर करके शून्यावस्था को लाने का अभ्यास करता है। संसार से उपरत होने का प्रतिदिन अभ्यास करता हुआ यह प्रभु के अधिक समीप होता चलता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- वनस्थ पुरुष का खान-पान रहनसहन अधिक से अधिक प्रकृति के समीप होता है । यह प्रतिदिन शून्यावस्था को प्राप्त करने का अभ्यास करता है ।

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    विषय

    वानप्रस्थ का कर्त्तव्य ज्ञानाभ्यास, वेदाभ्यास।

    भावार्थ

    जिस प्रकार वन में (गावः अदन्ति) गौवें विचरती और चारा चरती हैं उसी प्रकार उस विद्वान् वानप्रस्थ के अधीन गौओं के तुल्य शिष्य जन ज्ञान को प्राप्त करता वा उसके भीतर नाना वाणियां विचरती हैं। और वह स्वयं (वेश्म इव दृश्यते) गृह के समान, शिष्यों का एकमात्र शरण दीखता है, (उतो) और (सायं शकटीः इव) सायंकाल जिस प्रकार वन से नाना गाड़ियें चारा, लकड़ी आदि लेकर निकलती हैं मानों जंगल उनको प्रसव करता है इसी प्रकार वह वानप्रस्थ पुरुष भी अनेक शक्तियों वा सेनाओं को वा शक्तिमान् व्यक्तियों या वाणियों को उत्पन्न करता है। वा मन्द चलने वाले मन्दमतियों को ज्ञान दे कर तीव्र करता है, शब्द सहित बाहर आने वाली वाणियों को प्रकट करता है।

    टिप्पणी

    शकटः शकृद् इतं भवति, शनकैस्तकतीति वा, शकेन तकतीति वा, शकादिभ्योऽटन्। (उणा०) शक्नोतीति शकटः। शकेन शक्ता वा अटतीति वा। शकेर्ऋतिन्। उणा०। शक्नोतीति शकृत्।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्देवमुनिरैरम्मदः॥ देवता—अरण्यानी॥ छन्दः– १ विराडनुष्टुप्। २ भुरिगनुष्टुप्। ३, ५ निचृदनुष्टुप्। ४, ६ अनुष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (उत) अपि च (गावः-इव-अदन्ति) गाव इवारण्यपशवो गवयाः खलु घासादिकं भक्षयन्ति (उत) अपि च (वेश्म-इव दृश्यते) क्वचित् गृहमिव गुल्मादिवितानो दृश्यते (उत) अपि च (सायम्) सायंकाले (अरण्यानिः-शकटीः-इव सर्जति) वायुप्रचलनादरण्यानी शकटीर्यानानि विसृजति चालयति-इव दृश्यते ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Forest animals graze like cows, clusters of flowers give a homely look, and the forest spirit appears to say good bye to the carts that leave for village homes.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अरण्यांचा समूह अरण्यानीचे हेही एक दृश्य आहे. त्यात नीलगाय इत्यादी वन्य पशू गवत खात हिंडतात व तेथे लता, वेली, वृक्ष इत्यादींनी आच्छादित घराप्रमाणे दृश्य दिसून येते व सायंकाळी तीव्र वायूचे झोके पाहून असे वाटते, की जशा गाड्या चालत आहेत. ॥३॥

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