ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 149/ मन्त्र 2
ऋषिः - अर्चन्हैरण्यस्तुपः
देवता - सविता
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यत्रा॑ समु॒द्रः स्क॑भि॒तो व्यौन॒दपां॑ नपात्सवि॒ता तस्य॑ वेद । अतो॒ भूरत॑ आ॒ उत्थि॑तं॒ रजोऽतो॒ द्यावा॑पृथि॒वी अ॑प्रथेताम् ॥
स्वर सहित पद पाठयत्र॑ । स॒मु॒द्रः । स्क॒भि॒तः । वि । औन॑त् । अपा॑म् । न॒पा॒त् । स॒वि॒ता । तस्य॑ । वे॒द॒ । अतः॑ । भूः । अतः॑ । आः॒ । उत्थि॑तम् । रजः॑ । अतः॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । अ॒प्र॒थे॒ता॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्रा समुद्रः स्कभितो व्यौनदपां नपात्सविता तस्य वेद । अतो भूरत आ उत्थितं रजोऽतो द्यावापृथिवी अप्रथेताम् ॥
स्वर रहित पद पाठयत्र । समुद्रः । स्कभितः । वि । औनत् । अपाम् । नपात् । सविता । तस्य । वेद । अतः । भूः । अतः । आः । उत्थितम् । रजः । अतः । द्यावापृथिवी इति । अप्रथेताम् ॥ १०.१४९.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 149; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यत्र) जिसमें जिसके आश्रय में (समुद्रः) समुन्दनशील आकाशस्थ सूक्ष्म जलाशय (स्कभितः) वायु के द्वारा सम्भाला हुआ-ठहरा हुआ (वि-औनत्) भूमि को विशेषरूप से गीला करता है (अपां नपात्) जलों को न गिरानेवाला (सविता तस्य वेद) परमात्मा उसको जानता है (अतः-भूः) इससे जो उत्पन्न होती है विकृति महत्तत्त्वादि पञ्चतन्मात्र पर्यन्त सत्ता (अतः-रजः उत्थितम्-आः) यहीं से अन्तरिक्षलोक उत्पन्न हुआ है (अतः) यहीं से (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवीलोक (अप्रथेताम्) प्रथित हुए फैले ॥२॥
भावार्थ
परमात्मा के आश्रय आकाश का जलाशय वायु के द्वारा सम्भला हुआ है, वही भूमि पर बरसता है, वह कैसे बनता और कैसे स्थिर रहता है, उसको वायु नहीं जानता, किन्तु परमात्मा जानता है, उस परमात्मा से महत्तत्त्व से लेकर पञ्च तन्मात्राओं तक सूक्ष्म सृष्टि उत्पन्न होती है, वहीं से अन्तरिक्षलोक भी उत्पन्न होता है, और द्युलोक पृथ्वीलोक भी उसी के द्वारा फैलाये हुए हैं ॥२॥
विषय
त्रिलोकी के निर्माता 'प्रभु'
पदार्थ
[१] (यत्रा) = जहाँ (स्कभितः) = अन्तरिक्ष में थमा हुआ (समुद्रः) = यह अन्तरिक्षस्थ समुद्र, अर्थात् मेघ (व्यौनत्) = विशेषरूप से भूमि को क्लिन्न करता है, (अपांनपात्) = जलों का न गिरने देनेवाला (सविता) = यह उत्पादक प्रभु (तस्य वेद) = उस अन्तरिक्षलोक के निर्माण को जानता है। प्रभु ही इस अन्तरिक्ष लोक का निर्माण करते हैं जहाँ स्थित हुआ हुआ मेघ भूमि को क्लिन्न करता है । [२] (अतः) = इस प्रभु से ही (भूः) = पृथिवी का निर्माण होता है, (अतः) = इस प्रभु से ही (आ) = चारों ओर (रजः) = ये लोक-लोकान्तर (उत्थितम्) = उठ खड़े हुए हैं, बनाये गये हैं । (अतः) = इस प्रभु से ही (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवी लोक (अप्रथेताम्) = विस्तृत किये गये हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ही अन्तरिक्ष लोक व अन्तरिक्षस्थ मेघों का निर्माण करते हैं। वे ही द्यावापृथिवी को भी विस्तृत करते हैं।
विषय
परमेश्वर से सृष्टि का प्रकट रूप से उत्पन्न होना। उसमें परमेश्वर की सूर्य के साथ तुलना।
भावार्थ
(यत्र) जिसके आश्रय (समुद्रः) जल बरसाने वाला आकाशस्थ समुद्र के तुल्य महान् मेघ (वि औनत्) भूमि को विशेष रूप से सेंचता है, (अपां नपात्) जलों, प्रकृति के परमाणुओं वा लोकों को थामने वाला (सविता) सूर्य वा प्रभु ही (तस्य वेद) उस महान् शक्ति को जानता, जनाता वा प्राप्त है। (अतः) इससे ही (भूः) यह पृथिवी वा प्रकृति उत्पन्न, व्यक्त होती है (अतः रजः आ उत्थितम्) उससे ही यह समस्त लोक-समूह सर्वत्र चारों ओर उठते हैं। और अतः उससे ही यह (द्यावा पृथिवी) सूर्य या आकाश और भूमि दोनों (अप्रथेताम्) विस्तार को पाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः अर्चन् हैरण्यस्तूपः॥ सविता देवता॥ छन्द:– १, ४ भुरिक् त्रिष्टुप्। २, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ३ निचृत् त्रिष्टुप्। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यत्र) यस्मिन्-यदाश्रये (समुद्रः-स्कभितः) समुन्दनशीलः-आकाशस्थः समुद्रः सूक्ष्मजलाशयो वायुना स्तम्भितः (वि-औनत्) भूमिं विशेषेण-उनत्ति क्लेदयति “उन्दी क्लेदने” [रुधादि०] अस्माच्छान्दसं रूपं लुङि (अपां नपात्) अपां न पातयिता सविता परमात्मा तं समुद्रं वेद जानाति “तस्य द्वितीयार्थे षष्ठी व्यत्ययेन” (अतः-भूः) अतो भवति या सा विकृतिः सत्ता महत्तत्वादिपञ्चतन्मात्रान्ता (अतः-रजः-उत्थितम्-आः) उद्गतम-न्तरिक्षलोकः आसीत् “रजसः-अन्तरिक्षलोकस्य” [निरु० १२।७] (अतः-द्यावापृथिवी-अप्रथेताम्) अत एव द्यावापृथिव्यौ विस्तीर्णौ भवतः ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Where the ocean of vapours and water is sustained and whence it sprinkles the earth with showers, only Savita, eternal sustainer of waters, knows that mystery. Thence, from Savita, arises the earth, thence arises the sky and thence only the heaven and earth arise in mutual relation and expand.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्म्याच्या आश्रयाने आकाशाचा जलाशय वायूद्वारे सांभाळला जातो, तोच भूमीवर बरसतो. तो कसा बनतो व कसा स्थिर राहतो ते वायू जाणत नाही; परंतु परमात्मा जाणतो. त्या परमात्म्याद्वारे महत्तत्त्वापासून पञ्च तन्मात्रापर्यंत सूक्ष्म सृष्टी उत्पन्न होते. तेथूनच अंतरिक्षलोकही उत्पन्न होतो. द्युलोक व पृथ्वीलोकही त्याच्याकडूनच निर्माण झालेले आहेत. ॥२॥
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