ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 166/ मन्त्र 2
ऋषिः - ऋषभो वैराजः शाक्वरो वा
देवता - सपत्नघ्नम्
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
अ॒हम॑स्मि सपत्न॒हेन्द्र॑ इ॒वारि॑ष्टो॒ अक्ष॑तः । अ॒धः स॒पत्ना॑ मे प॒दोरि॒मे सर्वे॑ अ॒भिष्ठि॑ताः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒हम् । अ॒स्मि॒ । स॒प॒त्न॒ऽहा । इन्द्रः॑ऽइव । अरि॑ष्टः । अक्ष॑तः । अ॒धः । स॒ऽपत्नाः॑ । मे॒ । प॒दोः । इ॒मे । सर्वे॑ । अ॒भिऽस्थि॑ताः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अहमस्मि सपत्नहेन्द्र इवारिष्टो अक्षतः । अधः सपत्ना मे पदोरिमे सर्वे अभिष्ठिताः ॥
स्वर रहित पद पाठअहम् । अस्मि । सपत्नऽहा । इन्द्रःऽइव । अरिष्टः । अक्षतः । अधः । सऽपत्नाः । मे । पदोः । इमे । सर्वे । अभिऽस्थिताः ॥ १०.१६६.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 166; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अहं सपत्नहा) मैं शत्रुओं का हननकर्ता (इन्द्रः-इव) राजा (अरिष्टः) अहिंसित तथा (अक्षतः) क्षयरहित (अस्मि) मैं हूँ (इमे सर्वे) ये सब (अभिष्ठिताः) सम्मुख स्थित (सपत्नाः) विरोधी शत्रुजन (मे पदोः-अधः) मेरे पैरों के नीचे होवें ॥२॥
भावार्थ
राजा शत्रुओं का नाशक, अहिंसित और क्षयरहित हुआ सब शत्रुओं को अपने अधीन करनेवाला होना चाहिये ॥२॥
विषय
अरिष्ट- अक्षत
पदार्थ
[१] (अहम्) = मैं (सपत्नहा) = सपत्नभूत काम-क्रोध आदि का विनष्ट करनेवाला (अस्मि) = हूँ | (इन्द्रः इव) = एक जितेन्द्रिय पुरुष की तरह (अरिष्टः) = वासनाओं से तो मैं हिंसित न होऊँ। तथा (अक्षतः) = शरीर में रोगों से किसी प्रकार की क्षतिवाला न होऊँ। [२] (इमे सर्वे) = ये सारे (अभिष्ठिता:) = चारों ओर ठहरे हुए (सपत्ना:) = शत्रु मे (पदोः अधः) = मेरे पाँवों के नीचे हों। मैं इन काम-क्रोध आदि सब ओर से आक्रमण करनेवाले शत्रुओं को पादाक्रान्त करनेवाला बनूँ । इनको कुचलकर ही मैं अरिष्ट व अक्षत हो सकता हूँ ।
भावार्थ
भावार्थ- मैं सपत्नों को नष्ट करके 'अहिंसित व अक्षत' होऊँ । ऋषिः - ऋषभो वैराजः शाक्वरो वा ॥
विषय
स्वयं अहिंसक होकर शत्रु को पददलित करने का संकल्प।
भावार्थ
(अहम्) मैं (इन्द्रः इव) ऐश्वर्यवान् शत्रुहन्ता सेनापति के तुल्य ही (अरिष्टः) स्वयं अपीड़ित और (अक्षतः) अविनष्ट होकर (सपत्नहा अस्मि) शत्रुओं का नाश करने वाला होऊं। (इमे सर्वे सपत्नाः) ये सब शत्रुगण जो मेरी भूमि के मेरे समान ही स्वामी होना चाहते हैं वा अधिकार करते हैं वे सब (अभि-स्थिताः) मेरे सन्मुख खड़े होकर भी (मे पदोः अधः) मेरे पैरों के नीचे हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्ऋषभो वैराजः शाकरो वा॥ देवता—सपत्नघ्नम्॥ छन्द:– १, २ अनुष्टुप्। ३, ४ निचृदनुष्टुप्। ५ महापक्तिः। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अहं सपत्नहा) अहं शत्रुहन्ता (इन्द्रः-इव) राजेव (अरिष्टः-अक्षतः) अहिंसितः क्षतरहितश्च (अस्मि) भवेयम् ‘लिङर्थे लेट्’ (इमे सर्वे-अभिष्ठिताः सपत्नाः) एते सर्वे सम्मुखं स्थिता विरोधिनः (मे पदोः-अधः) मम पादयोः “पद्दन्नो…” [अष्टा० ६।१।६१] इति पादस्य पदादेशः” नीचैर्भवेयुः ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
I am like Indra, destroyer of adversaries, unhurt, uninjured, and unbroken. All these rivals, adversaries and enemies ranged against me are under my foot.
मराठी (1)
भावार्थ
राजा शत्रूंचा नाशक, अहिंसक व क्षतिरहित असावा. सर्व शत्रूंना आपल्या अधीन ठेवणारा असावा. ॥२॥
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