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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 166 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 166/ मन्त्र 4
    ऋषिः - ऋषभो वैराजः शाक्वरो वा देवता - सपत्नघ्नम् छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अ॒भि॒भूर॒हमाग॑मं वि॒श्वक॑र्मेण॒ धाम्ना॑ । आ व॑श्चि॒त्तमा वो॑ व्र॒तमा वो॒ऽहं समि॑तिं ददे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि॒ऽभूः । अ॒हम् । आ । अ॒ग॒म॒म् । वि॒श्वऽक॑र्मेण । धाम्ना॑ । आ । वः॒ । चि॒त्तम् । आ । वः॒ । व्र॒तम् । आ । वः॒ । अ॒हम् । सम्ऽइ॑तिम् । द॒दे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभिभूरहमागमं विश्वकर्मेण धाम्ना । आ वश्चित्तमा वो व्रतमा वोऽहं समितिं ददे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभिऽभूः । अहम् । आ । अगमम् । विश्वऽकर्मेण । धाम्ना । आ । वः । चित्तम् । आ । वः । व्रतम् । आ । वः । अहम् । सम्ऽइतिम् । ददे ॥ १०.१६६.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 166; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अहम्) मैं (अभिभूः) शत्रुओं का दबानेवाला (विश्वकर्मेण) सब कर्म जिससे किये जाते हैं, वैसे (धाम्ना) अङ्ग से-अङ्गबल से (आगमम्) आक्रमण करता हूँ (वः) तुम्हारे (चित्तम्) चित्त को (अहम्) मैं (आददे) स्वाधीन करता हूँ (वः-व्रतम्-आ) तुम्हारे कर्म को स्वाधीन करता हूँ (वः-समितिम्-आ०) तुम्हारी सभा या संग्राम को स्वाधीन करता हूँ ॥४॥

    भावार्थ

    राजा के अन्दर शत्रुओं को दबाने का आत्मबल और युद्ध करने को अङ्गों का बल होना चाहिये तथा शत्रुओं के मनों को स्वाधीन करने का मनोबल और उनके कर्म को और समिति को स्वाधीन करने के लिए शस्त्रबल होना चाहिए ॥४॥

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    विषय

    अभिभूः

    पदार्थ

    [१] (अहम्) = मैं (विश्वकर्मेण धाम्ना) = सब कर्मों को करनेवाले तेज से (अभिभूः) = सब शत्रुओं को अभिभूतवाला बनकर (आगमम्) = आया हूँ। वस्तुतः तेजस्विता से मैं सब शत्रुओं को निस्तेज बनानेवाला हुआ हूँ। [२] यह तेजस्वी पुरुष जब सभा में आता है तो सबके चित्तों को अपनी ओर आकृष्ट करता है। (वः) = तुम्हारे सब सभ्यों के (चित्तम्) = चित्त को (आददे) = अपनी ओर आकृष्ट करता हूँ। इसके बाद (वः) = तुम्हारे (व्रतम्) = कर्मों को (आददे) = ग्रहण करता हूँ, अर्थात् समिति के कार्यों में दिलचस्पी लेने लगता हूँ और अन्ततः (अहम्) = मैं (वः) = आपकी (समितिम्) = इस समिति को (आददे) = ग्रहण करनेवाला होता हूँ । समिति का मुखिया हो जाता हूँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ - जितेन्द्रिय पुरुष ही सभाओं का संचालन कर पाता है ।

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    विषय

    शत्रु वा प्रजा के समान कर्मों वा समितियों आदि पर राजा को वश करने का उपदेश।

    भावार्थ

    मैं (विश्वकर्मेण धाम्ना) समस्त शत्रुओं के वश करने वाले तेज से (अभि-भूः) सबका पराजय करने वाला होकर (आ अगमम्) प्राप्त होऊं। (अहं) मैं (वः व्रतम् वः समितिम्) आप लोगों के चित्त को, व्रतों, कर्मों और समिति सभा आदि को (आ ददे) सब प्रकार से वश करूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्ऋषभो वैराजः शाकरो वा॥ देवता—सपत्नघ्नम्॥ छन्द:– १, २ अनुष्टुप्। ३, ४ निचृदनुष्टुप्। ५ महापक्तिः। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अहम्-अभिभूः विश्वकर्मेण धाम्ना-आगमम्) अहं शत्रूणामभिभविता-ऽस्मि विश्वानि कर्माणि येन क्रियन्ते तथाभूतेन-अङ्गेनाङ्गबलेन “अङ्गानि वै धामानि” [का० श० ४।३।४।११] आक्रमामि (वः) युष्माकम् (चित्तम्-अहम्-आददे) अहं चित्तं स्वाधीनीकरोमि (वः व्रतम्-आ०) युष्माकं कर्म स्वाधीनीकरोमि (वः समितिम्-आ०) युष्माकं सभां सग्रामं-वा स्वाधीनीकरोमि ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I am the controller and disciplinarian over all, come with the light and power over the entire activity here. I take over, accept and honour your mind and speech, your law, discipline and behaviour, and your assembly under my power and control.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजामध्ये शत्रूचे दमन करण्याचे आत्मबल व युद्ध करण्यासाठी अंगात बल असले पाहिजे. शत्रूच्या मनाला स्वाधीन करण्याचे मनोबल व त्यांचे कर्म व सभा स्वाधीन करण्यासाठी शस्त्रबल पाहिजे. ॥४॥

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