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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 169 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 169/ मन्त्र 2
    ऋषिः - शबरः काक्षीवतः देवता - गावः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    याः सरू॑पा॒ विरू॑पा॒ एक॑रूपा॒ यासा॑म॒ग्निरिष्ट्या॒ नामा॑नि॒ वेद॑ । या अङ्गि॑रस॒स्तप॑से॒ह च॒क्रुस्ताभ्य॑: पर्जन्य॒ महि॒ शर्म॑ यच्छ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याः । सऽरू॑पाः । विऽरू॑पाः । एक॑ऽरूपाः । यासा॑म् । अ॒ग्निः । इष्ट्या॑ । नामा॑नि । वेद॑ । याः । अङ्गि॑रसः । तप॑सा । इ॒ह । च॒क्रुः । ताभ्यः॑ । प॒र्ज॒न्य॒ । महि॑ । शर्म॑ । य॒च्छ॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    याः सरूपा विरूपा एकरूपा यासामग्निरिष्ट्या नामानि वेद । या अङ्गिरसस्तपसेह चक्रुस्ताभ्य: पर्जन्य महि शर्म यच्छ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याः । सऽरूपाः । विऽरूपाः । एकऽरूपाः । यासाम् । अग्निः । इष्ट्या । नामानि । वेद । याः । अङ्गिरसः । तपसा । इह । चक्रुः । ताभ्यः । पर्जन्य । महि । शर्म । यच्छ ॥ १०.१६९.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 169; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (याः) जो (सरूपाः) समानरूपवाली (विरूपाः) भिन्न-भिन्न रूपवाली (एकरूपाः) जाति से एकरूप गौवें होती हैं (यासां नामानि) जिनके नाम (इष्ट्या) याग द्वारा-यज्ञ में उनके घृत होमने के द्वारा (अग्निः) अग्रणी ऋत्विक्-ब्रह्मा (वेद) गुणानुसार जानता है (याः-अङ्गिरसः) जिन गौवों को ऋत्विक् जन (तपसा) तप से-अपने ज्ञानमय तप से (इह चक्रुः) इस मानवसमाज में प्रसिद्ध करते हैं-सम्पन्न करते हैं (ताभ्यः) उन गौवों के लिए (पर्जन्य) यजमान (शर्म यच्छ) स्वागत के साथ घर दे-पालन पोषण करे ॥२॥

    भावार्थ

    गौवें एक रंगवाली भिन्न-भिन्न रंगवाली होती हुई भी जाति से सब एक ही हैं, वे सब अपने-अपने गुणों से प्रसिद्ध की जाती हैं, उनके घृत के होम से और उपयोग से ऋत्विक् जन और ब्रह्मा उनके नाम रखते हैं और उन्हें अलंकृत करते हैं, यजमान उनको अपने घर में स्वागत के साथ रखें और उपयोगी आहार प्रदान कर सुखी करें ॥२॥

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    विषय

    गोदुग्ध-तपस्या से अंगिरस् बनना

    पदार्थ

    [१] (या:) = जो गौएँ (सरूपा:) = समानरूपवाली हैं अथवा (विरूपाः) = विविध रूपोंवाली हैं, और जो (एकरूपा:) = एक रूपवाली हैं, जिनका सारा शरीर एक रंगवाला है, (यासाम्) = जिनके (नामानि) = नामों को (अग्निः) = अग्निहोत्र करनेवाला पुरुष (इष्ट्या) = यज्ञ के हेतु से (वेद) = जानता है । वैदिक संस्कृति में घर में गौ इस उद्देश्य से भी रखी जाती है कि उसके घृत से अग्निहोत्र करने का सम्भव होगा । इस गौ का नाम ही 'अग्निहोत्री' होता था। इस प्रकार अग्निहोत्र करनेवाला व्यक्ति यहाँ 'अग्नि' कहा गया है। वह गौओं के अघ्न्या आदि नामों को जानता है और उन नामों द्वारा सूचित होनेवाले गौवों के महत्त्व को समझता है । [२] ये गौवें हैं (याः) = जो (इह) = इस संसार में (तपसा) = तप के साथ, अर्थात् तपस्या के होने पर इन तपस्वियों को (अंगिरसः चक्रुः) = अंगिरस बना देती हैं, अंग-प्रत्यंग में इनका दूध रस का संचार करनेवाला होता है । परन्तु यह आवश्यक है कि इन गोदुग्ध सेवन करनेवाले में तपस्या अवश्य हो। बिना तप के केवल गोदुग्ध हमें अंगिरस् नहीं बना सकता। हे (पर्जन्य) = बादल (ताभ्यः) = उन गौवों के लिये (महि शर्म यच्छ) = महान् सुख को प्राप्त करा । वृष्टि से चारों ओर चारा पर्याप्त मात्रा में हो जाता है और इन पशुओं के भूखे मरने का प्रसंग नहीं होता । वृष्टि क्या होती है, पशुओं के लिये पर्याप्त भोजन ही बरसता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- गोदुग्ध सेवन के साथ तप के होने पर मनुष्य 'अंगिरस्' बनता है ।

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    विषय

    परमेश्वर से उनके लिये सुख दया याचना।

    भावार्थ

    (याः) जो (स-रूपाः वि-रूपाः) एक समान रूप वाली और विविध रूप वाली, और (एक-रूपाः) एक रुचि वाले एक रूप वाली हैं, (यासाम्) जिन के (इष्ट्या) चाहने योग्य वा यज्ञोचित उत्तम २ (नामानि) समस्त रूपों और नामों को (अग्निः) अग्निवत् बुद्धिमान पुरुष (वेद) जानता है (याः) जिनको (अङ्गिरसः तपसा) सूर्य के किरणों के तुल्य विद्वान् जन (इह) इस लोक में (चक्रुः) कृषि आदि रूप से उत्पन्न करते हैं है (पर्जन्य) रसों के देने वाले (ताभ्यः) उनसे या उनके लिये (महि शर्म यच्छ) बड़ा भारी सुख प्रदान कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः शत्ररः काक्षीवतः। गावो देवताः छन्द:- १ विराट् त्रिष्टुप् २, ४ त्रिष्टुप्। ३ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (याः-सरूपाः-विरूपाः-एकरूपाः) याः खलु गावः समानरूपाः, विभिन्नरूपाः सत्योऽप्येकरूपाः सन्ति जात्या (यासां नामानि इष्ट्या-अग्निः-वेद) यासां नामानि गुणानुसारीणि यागेन-होमे तद्घृतोपयोगेन ज्ञाता ब्रह्मा विद्वान् जानाति, (याः-अङ्गिरसः-तपसा-इह चक्रुः) ऋत्विग्जनास्तपसा सम्पन्नाः कुर्वन्ति (ताभ्यः पर्जन्य शर्म यच्छ) ताभ्यो हे यजमान ! गृहं प्रदेहि “शर्म गृहनाम” [निघ० ३।४] ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Parjanya, generous powers of life and liquid nourishment, provide great peace, comfort, protection and felicity to cows and other animals of similar species, different forms but the same one genus, whose names and qualities, Agni, the scientist, knows through developmental study, and which the Angirasas, technologists, have developed through continuous dedicated research and experimentation.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    गायी एका रंगाच्या, भिन्नभिन्न रंगाच्या असूनही त्यांची जात एकच असते. त्या सर्व आपापल्या गुणाने प्रसिद्ध असतात. त्यांच्या घृताच्या होमाने व उपयोगाने ऋत्विज लोक व ब्रह्मा त्यांच्या गुणाने त्यांना जाणतात व त्यांना अलंकृत करतात. यजमानांनी आपल्या घरात त्यांचे स्वागत करावे व उपयोगी आहार प्रदान करून सुखी करावे. ॥२॥

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