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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 22/ मन्त्र 5
    ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    त्वं त्या चि॒द्वात॒स्याश्वागा॑ ऋ॒ज्रा त्मना॒ वह॑ध्यै । ययो॑र्दे॒वो न मर्त्यो॑ य॒न्ता नकि॑र्वि॒दाय्य॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । त्या । चि॒त् । वात॑स्य । अश्वा॑ । आ । अ॒गाः॒ । ऋ॒ज्रा । त्मना॑ । वह॑ध्यै । ययोः॑ । दे॒वः । न । मर्त्यः॑ । य॒न्ता । नकिः॑ । वि॒दाय्यः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं त्या चिद्वातस्याश्वागा ऋज्रा त्मना वहध्यै । ययोर्देवो न मर्त्यो यन्ता नकिर्विदाय्य: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । त्या । चित् । वातस्य । अश्वा । आ । अगाः । ऋज्रा । त्मना । वहध्यै । ययोः । देवः । न । मर्त्यः । यन्ता । नकिः । विदाय्यः ॥ १०.२२.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 22; मन्त्र » 5
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (त्वं चित्) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्। तू ही (वातस्य) प्राण के (त्या-ऋज्रा-अश्वा) उन ऋजुगामी गतिशील शरीर में व्यापक प्राण, अपान, श्वास, प्रश्वास (वहध्यै) वहने चलाने के लिए (त्मना-अगाः) स्वकीयरूप से चलाता है (ययोः-यन्ता) जिन श्वास-प्रश्वासों को चलानेवाला (देवः-न मर्त्यः) न मुमुक्षु और न मरणधर्मा साधारण जन है (नकि-विदाय्यः) न कोई वेत्ता न ज्ञाता है ॥५॥

    भावार्थ

    प्राण के ऋजुगामी श्वास-प्रश्वासों को चलाने के लिए परमात्मा तू ही समर्थ है। तुझसे अतिरिक्त न कोई मुमुक्षु, न कोई इसका ज्ञाता ही है ॥५॥

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    विषय

    इन्द्रियों की प्रबलता

    पदार्थ

    [१] (त्वम्) = हे (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव ! तू (त्या) = उन (वातस्य) = वायु के (चित्) = भी (अश्वा) = घोड़ों को अर्थात् वायु के समान वेगवान् व बलवान् इन्द्रियाश्वों को (आगा:) = सर्वथा प्राप्त होता है । ये इन्द्रियाश्व तेरे अधिष्ठातृत्व में (ऋज्रा) = ऋजु मार्ग से चलनेवाले हैं। तू इन्हें (त्मना) = स्वयं (वहध्यै) = वहन के लिये प्राप्त होता है। तू इनका अधिष्ठाता बनता है, ये तुझे इधर-उधर भटकानेवाले नहीं होते । [२] तू उन ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रिय रूप अश्वों को लक्ष्य स्थान की ओर ले चलता है, (ययोः) = जिनका (यन्ता) = काबू करनेवाला (न देवः) = न तो देव है, (न) = और ना ही (मर्त्यः) = मनुष्य | बड़े-बड़े विद्वान् भी इन इन्द्रियाश्वों को काबू नहीं कर पाते, मनुष्य की तो क्या शक्ति है कि इन्हें काबू कर सके ? इन इन्द्रियाश्वों की शक्ति को (विदाय्यः) = जाननेवाला भी (नकिः) = कोई नहीं है । 'इन्द्रियाणि प्रमाथीनि' इन शब्दों के अनुसार ये इन्द्रियाँ मनुष्य को कुचल देनेवाली हैं। इनका संयम सुगम नहीं। इतनी प्रबल शक्ति वाली भी इन इन्द्रियों को वह जीव, जो कि प्रभु का प्रिय पुत्र बनने का प्रयत्न करता है, अपने वश में करके ऋजु मार्ग से जीवनयात्रा में आगे बढ़ता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- इन्द्रियों को वश में करना कठिन है। एक साधक ही इन इन्द्रियों को वश में करके जीवनयात्रा को सिद्ध करता है।

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    विषय

    राजा के तुल्य देह में आत्मा की रीति

    भावार्थ

    (ययोः) जिन दोनों का (न देवः) न कोई प्रकाशयुक्त पिण्ड, (न मर्त्यः) और न कोई मरणधर्मा देहादि जड़ पदार्थ (यन्ता) नियमन कर सकता है और (नकिः) न कोई उनका (विदाय्यः) ज्ञान करने हारा है। (त्वं) तू (त्या चित्) उन दोनों (वातस्य अश्वा) वायु के बने अश्वों के समान देह के चालक (ऋज्रा) ऋजु मार्ग से जाने वाले प्राण अपान को (त्मना) अपने आत्म-सामर्थ्य से (वहध्यै) धारण करने के लिये (आ अगाः) प्राप्त होता है। (२) इसी प्रकार राजा भी अश्वों के तुल्य प्रजास्थ स्त्री पुरुषों को वा शास्य-शासकों को अपने सामर्थ्य से धारण करने के लिये प्राप्त है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विमद ऐन्द्रः प्रजापत्यो वा वसुकृद् वा वासुक्रः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १,४,८, १०, १४ पादनिचृद् बृहती। ३, ११ विराड् बृहती। २, निचृत् त्रिष्टुप्। ५ पादनिचृत् त्रिष्टुष्। ७ आर्च्यनुष्टुप्। १५ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पन्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (त्वं चित्) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! त्वं हि, चित् पूजायामत्र “आचार्यश्चिदिदं ब्रूयादिति पूजायाम्” [निरु० १।४] (वातस्य) प्राणस्य (त्या-ऋज्रा-अश्वा) तावृजुगामिनौ गतिमन्तौ शरीरे व्यापिनौ प्राणापानौ श्वासप्रश्वासौ (वहध्यै) वहनाय चालनाय (त्मना-अगाः) स्वीयस्वरूपतः-गमयास ‘अन्तर्गतणिजर्थः’ (ययोः-यन्ता) ययोः प्राणापानयोः श्वासप्रश्वासयोर्यमयिता चालयिता (देवः-न मर्त्यः) न मुमुक्षुर्न मरणधर्मा साधारणजनोऽस्ति  (नकिः-विदाय्यः) न कश्चिद् वेत्ता ज्ञाताऽस्ति ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    You by yourself impel those two straight and natural currents of cosmic energy of which there is no other impeller divine or human, nor is any one else who really knows. (The energies may be interpreted as prana and apana of the body system too.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्राणाचे ऋजुगामी श्वास-प्रश्वास चालविण्यासाठी परमात्मा तूच समर्थ आहेस. तुझ्याशिवाय कोणी मुमुक्षू, सामान्य माणूस त्यांचा ज्ञाता नाही. ॥५॥

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