ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 22/ मन्त्र 7
ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - आर्च्यनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
आ न॑ इन्द्र पृक्षसे॒ऽस्माकं॒ ब्रह्मोद्य॑तम् । तत्त्वा॑ याचाम॒हेऽव॒: शुष्णं॒ यद्धन्नमा॑नुषम् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । पृ॒क्ष॒से॒ । अ॒स्माक॑म् । ब्रह्म॑ । उत्ऽय॑तम् । तत् । त्वा॒ । या॒चा॒म॒हे॒ । अवः॑ । शुष्ण॑म् । यत् । हन् । अमा॑नुषम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ न इन्द्र पृक्षसेऽस्माकं ब्रह्मोद्यतम् । तत्त्वा याचामहेऽव: शुष्णं यद्धन्नमानुषम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । नः । इन्द्र । पृक्षसे । अस्माकम् । ब्रह्म । उत्ऽयतम् । तत् । त्वा । याचामहे । अवः । शुष्णम् । यत् । हन् । अमानुषम् ॥ १०.२२.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 22; मन्त्र » 7
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमात्मन् ! तू (नः-आ पृक्षसे) हमें सब प्रकार से आलिङ्गन करता है, अतः (अस्माकं ब्रह्म-उद्यतम्) हमारे मननीय स्तवन तेरे समर्पित हों (तत्) तिससे (त्वा-अवः शुष्णं याचामहे) तुझ रक्षा करनेवाले बल को हम चाहते हैं (यत्-अमानुषं हन्) जिससे कि तू दैव-बल को प्राप्त है अथवा राक्षस-बल को नष्ट करता है ॥७॥
भावार्थ
परमात्मा भलीभाँति हमारे साथ सम्पर्क करता है, इसलिए हमारी स्तुति-स्तवन उसके प्रति होना चाहिए। हम उसके सुखमय रक्षण को चाहते हैं। वह दैव-बल रखता है एवं राक्षसबल को नष्ट करता है ॥७॥
विषय
मनुष्य बनना
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के अनुसार जब हम इन्द्रियों का निरोध कर पाते हैं तो (इन्द्र) = हे परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! आप (नः) = हमारे से (आपृक्षसे) = संपृक्त होते हैं । इन्द्रियों का निरोध करके ही तो (ब्रह्म) = दर्शन का सम्भव होता है। [२] इस सम्पर्क के होने पर (अस्माकम्) = हमारा (ब्रह्म) = ज्ञान (उद्यतम्) = [raised, lifted up] उन्नत होता है। प्रभु के सम्पर्क में आकर हमारा जीवन प्रकाशमय हो उठता है । प्रभु प्रकाश के पुञ्ज हैं, उनके सम्पर्क में आनेवाला अन्धकार में रह ही कैसे सकता है ? [३] इस प्रकाश को प्राप्त करके हम हे प्रभो ! (त्वा) = आप से (तत्) = उस (अवः) = रक्षण व (शुष्णम्) = बल को (याचामहे) = माँगते हैं, (यत्) = जो बल (अमानुषम्) = अमनुष्योचित प्रत्येक बुराई को (हन्) = नष्ट कर देती है। प्रभु से 'प्रकाश, रक्षण व बल' को प्राप्त करके हम सब आसुर भावनाओं को दूर करने व दिव्यभावनाओं को अपनाने में समर्थ होते हैं। हमारे अमानुष भाव दूर होते हैं और हमारे में दिव्य भावों का विकास होता है। 'अमानुष' शब्द क्रूरता व स्वार्थ का संकेत करता है, ये सब क्रूर व स्वार्थमयी भावनायें प्रभु के प्रकाश से नष्ट हो जाती हैं।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु कृपा से हमें वह शत्रु-शोषक बल प्राप्त हो जो कि हमारे सब अमानुष भावों को दूर करके हमें सच्चा मनुष्य बनने की क्षमता प्राप्त कराये ।
विषय
उदार प्रभु से ज्ञान, बल आदि की याचना।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! दुष्टों को नाश करने में समर्थ ! तू (नः आपृक्षसे) हमें सब प्रकार से, सब ओर से अपने साथ जोड़े रख। (अस्माकं ब्रह्म) हमारा महान् स्तवन, महान धन, महान् ऐश्वर्य भी (उद्-यतम्) तेरे लिये ऊपर उठा हुआ है, तेरे लिये समर्पित है। (त्वा) हम तेरे से (तत् अमानुषं अवः) वही अमानुष रक्षण, बल, प्रेम और ज्ञान की (याचामहे) याचना करते हैं जिसको कोई मनुष्य नहीं दे सकता (यत्) जो (अमानुषं) अमानुष, मनुष्यों की सीमा से पार कर जाने वाले (शुष्णं) शोषणकारी आसुरी बल को (हन्) नाश कर सके।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विमद ऐन्द्रः प्रजापत्यो वा वसुकृद् वा वासुक्रः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १,४,८, १०, १४ पादनिचृद् बृहती। ३, ११ विराड् बृहती। २, निचृत् त्रिष्टुप्। ५ पादनिचृत् त्रिष्टुष्। ७ आर्च्यनुष्टुप्। १५ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पन्चदशर्चं सूक्तम् ॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! त्वम् (नः-आ-पृक्षसे) अस्मान् समन्तात् सम्पर्कयसि-आलिङ्गयसि, अतस्त्वदर्थम् (अस्माकं ब्रह्म-उद्यतम्) अस्माकं मन्त्रं मननीयं स्तवनं समर्पणमस्तु (तत्) तस्मात् (त्वा-अवः शुष्णम् याचामहे) त्वां रक्षाकरं बलं कामयामहे “शुष्णं बलनाम” [निघ० २।९] येन बलेन (यत्-अमानुषं हन्) यतस्त्वं दैवं बलं प्राप्तोऽसि “हन् हिंसागत्योः” [अदादिः] इति गत्यर्थः, यद्वा राक्षसं हंसि ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord omnipotent of cosmic energy and pranic vitality, pray join us and accept our homage of adoration by which we pray of you that great strength and protection of divinity which may repel and destroy inhuman and evil onslaughts of our mortal enemies.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा चांगल्या प्रकारे आमच्याबरोबर संबंध ठेवतो. त्यामुळे आमचे स्तुती स्तवन त्याच्यासाठी असावे. आम्ही त्याचे सुखी संरक्षण इच्छितो. तो दैवबलाची राखण करतो व राक्षसबल नष्ट करतो. ॥७॥
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