Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 23 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 23/ मन्त्र 4
    ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिगार्चीजगती स्वरः - निषादः

    सो चि॒न्नु वृ॒ष्टिर्यू॒थ्या॒३॒॑ स्वा सचाँ॒ इन्द्र॒: श्मश्रू॑णि॒ हरि॑ता॒भि प्रु॑ष्णुते । अव॑ वेति सु॒क्षयं॑ सु॒ते मधूदिद्धू॑नोति॒ वातो॒ यथा॒ वन॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सो इति॑ । चि॒त् । नु । वृ॒ष्टिः । यू॒थ्या॑ । स्वा । सचा॑ । इन्द्रः॑ । श्मश्रू॑णि । हरि॑ता । अ॒भि । प्रु॒ष्णु॒ते॒ । अव॑ । वे॒ति॒ । सु॒ऽक्षय॑म् । सु॒ते । मधु॑ । उत् । इत् । धू॒नो॒ति॒ । वातः॑ । यथा॑ । वन॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सो चिन्नु वृष्टिर्यूथ्या३ स्वा सचाँ इन्द्र: श्मश्रूणि हरिताभि प्रुष्णुते । अव वेति सुक्षयं सुते मधूदिद्धूनोति वातो यथा वनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सो इति । चित् । नु । वृष्टिः । यूथ्या । स्वा । सचा । इन्द्रः । श्मश्रूणि । हरिता । अभि । प्रुष्णुते । अव । वेति । सुऽक्षयम् । सुते । मधु । उत् । इत् । धूनोति । वातः । यथा । वनम् ॥ १०.२३.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 23; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सा-उ चित्-नु वृष्टिः) वह ही उत्तम सुखवृष्टि राष्ट्र में होती है, जिससे (इन्द्रः स्वा यूथ्या सचा) राजा अपनी यूथरूप सभा के साथ (हरिता श्मश्रूणि) हरित रङ्गवाले हरे-भरे धान्यतृणों को (अभि प्रुष्णुते) अभिषिक्त मानता है, तब ही (सुक्षयम्-अव वेति) उत्तमस्थान राष्ट्र को प्राप्त होता है (सुते) निष्पन्न (मधु) मधुमय राष्ट्र में (इत्) अवश्य (उत्-धूनोति) विरोधी को कम्पाता है (वातः-यथा वनम्) प्रबल वायु जैसे वन को कम्पाता है ॥४॥

    भावार्थ

    राष्ट्र में उत्तम वृष्टि होने पर राजा सभा के साथ हरे-भरे कृषि धान्यों को देखकर अपने को सफल मानता है और विरोधी दुष्टकाल आदि को नष्ट करता है ॥४॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सुक्षयम् [उत्तम गृह]

    पदार्थ

    [१] (स उ) = और वह (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (चित् नु) = निश्चय से अब (वृष्टिः) = सब पर सुखों की वर्षा करनेवाला होता है। यह प्रभु-भक्त सर्वभूत हितरत हो जाता है और (स्वा) = अपने (यूथ्या) = यूथ में, समूह में होनेवाले ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय, प्राण व अन्तःकरण के पञ्चकों को (सचान्) = उस प्रभु से मेल वाला करता है [ षच समवाये] । [२] (इन्द्रः) = यह जितेन्द्रिय पुरुष (श्मश्रूणि) = शरीर में आश्रित 'इन्द्रियों, मन व बुद्धि' को (हरिता) = सब मलों का हरण करनेवाले सोम [वीर्य] कणों से (अभिप्रुष्णुते) = सींचता है । सोम के रक्षण से इसकी ऊर्ध्वगति होकर यह शरीर में व्याप्त होता है। शरीर को तो यह नीरोग बनाता है, मन को निर्मल तथा बुद्धि को यह तीव्र करता है। [३] इस प्रकार इस सोम के रक्षण व सोम के द्वारा 'इन्द्रियों, मन व बुद्धि' के सेचन से यह (सुक्षयम्) = उत्तम शरीररूप गृह को (अव वेति) = आभिमुख्येन प्राप्त होता है । [४] (सुते) = सोम के उत्पन्न होने पर (मधु) = यह सब भोजन के रूप में खायी हुई ओषधियों का सारभूत सोम (इत्) = निश्चय से (उत् धूनोति) = सब मलों को इस प्रकार कम्पित कर देता है (यथा) = जैसे (वातः) = वायु (वनम्) = वन को । वायु से पत्ते हिलते हैं और उनपर पड़ी हुई मट्टी कम्पित होकर दूर हो जाती है, इसी प्रकार सोम शरीर में व्याप्त होकर सब इन्द्रियों, मन व बुद्धि को निर्मल कर देता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम शरीर में सुरक्षित होकर शरीर को निर्मल बनानेवाला होता है ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    मेघ से वृष्टि के तुल्य राजा की प्रजा पर उदार वृष्टि। मेघ के तुल्य उसका वर्त्तन।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (इन्द्रः) तेजस्वी सूर्य (हरिता) अपने प्रखर तेज से (श्मश्रूणि) भूमि पर लोमवत् उगे वनस्पतियों को (अभि प्रुष्णुते) जल से सींचता है, (सो चित् नु वृष्टिः) वही उत्तम वर्षा कहाती है। उसी प्रकार (इन्द्रः) धन-ऐश्वर्य देने वाला राजा, प्रभु (स्वा सचा यूथ्या) अपने सहयोगी यूथ या समूहों को (अभि प्रुष्णुते) सेंचता और बढ़ाता है, (सो चित् नु वृष्टिः) राजा की अपने प्रजा के प्रति वही उत्तम वृष्टि है। इसीसे राजा मेघवत् है। वह (सुते) ऐश्वर्य प्राप्त होने या अभिषिक्त होने पर (सु-क्षयं अव वेति) उत्तम भवन को प्राप्त होता है, और (मधु वेति) मधुर, सुखप्रद जल, आतिथ्य, मधुपर्क और सुखदायक अन्न प्राप्त करता है तब (यथा वातः वनम्) जिस प्रकार प्रबल वायु वन को कंपा देता है, उसी प्रकार वह भी स्व-सैन्य का (वनम्) प्रोक्षण जल के समान (उद् धुनोति) सर्वोपरि रह कर संचालित करता और परसैन्य को भय से त्रस्त करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१ विराट् त्रिष्टुप्। २, ४ आर्ची भुरिग् जगती। ६ आर्ची स्वराड् जगती। ३ निचृज्जगती। ५, ७ निचृत् त्रिटुष्प् ॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सा-उ चित्-नु वृष्टिः) सैव खलूत्तमा सुखवृष्टी राष्ट्रे, यया (इन्द्रः, स्वा यूथ्या सचा) राजा “स्वा” स्वया, यूथ्या यूथया साकम् (हरिता श्मश्रूणि) हरितवर्णानि कृषिभूमेर्धान्यतृणानि (अभि प्रुष्णुते) अभिषिक्तानि मन्यते “ष्णु प्रस्रवणे” [अदादि०] तदा हि (सुक्षयम्-अव वेति) उत्तमस्थानं राष्ट्रं प्राप्नोति (सुते) निष्पन्ने (मधु) मधुनि-मधुमये राष्ट्रे (इत्) एव (उद्-धूनोति) विरोधिनं कम्पयति (वातः-यथा वनम्) प्रबलो वायुर्यथा वनं कम्पयति ॥४॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The real shower is that when with his own essential lustre and with his complementary forces Indra sprinkles and fills the waving greenery on earth with life energy, when the divine presence pervades happy homes and weaves them into a happy web of life on earth with sweets of life, vibrates with power and shakes contradictory forces as the storm shakes the forest.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    राष्ट्रात उत्तम वृष्टी झाल्यावर राजा सभेबरोबर हिरवीगार कृषी धान्य पाहून आपल्याला सफल मानतो व विरोधी लोकांना तसेच दुष्काळ इत्यादी ही नष्ट करतो. ॥४॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top