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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 23/ मन्त्र 7
    ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    माकि॑र्न ए॒ना स॒ख्या वि यौ॑षु॒स्तव॑ चेन्द्र विम॒दस्य॑ च॒ ऋषे॑: । वि॒द्मा हि ते॒ प्रम॑तिं देव जामि॒वद॒स्मे ते॑ सन्तु स॒ख्या शि॒वानि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    माकिः॑ । नः॒ । ए॒ना । स॒ख्या । वि । यौ॒षुः॒ । तव॑ । च॒ । इ॒न्द्र॒ । वि॒ऽम॒दस्य॑ । च॒ । ऋषेः॑ । वि॒द्म । हि । ते॒ । प्रऽम॑तिम् । दे॒व॒ । जा॒मि॒ऽवत् । अ॒स्मे इति॑ । ते॒ । स॒न्तु॒ । स॒ख्या । शि॒वानि॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    माकिर्न एना सख्या वि यौषुस्तव चेन्द्र विमदस्य च ऋषे: । विद्मा हि ते प्रमतिं देव जामिवदस्मे ते सन्तु सख्या शिवानि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    माकिः । नः । एना । सख्या । वि । यौषुः । तव । च । इन्द्र । विऽमदस्य । च । ऋषेः । विद्म । हि । ते । प्रऽमतिम् । देव । जामिऽवत् । अस्मे इति । ते । सन्तु । सख्या । शिवानि ॥ १०.२३.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 23; मन्त्र » 7
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 7
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे राजन् ! (तव) तेरे (च) और (विमदस्य-ऋषेः) राष्ट्र में विशेष हर्षित करनेवाले तुझे प्राप्त प्रजागण के (एना सख्या) ये सखिभाव दोनों के हितकर (माकिः-न वियौषुः) कदापि न वियुक्त हों, न शिथिल हों, (देव) हे सुखदाता राजन् ! (ते प्रमतिं विद्म हि) तेरी प्रकृष्ट-ऊँची प्रजापालनपरायणा मति को हम प्रजाजन जानते हैं (अस्मे) हमारे लिये (ते) और तेरे लिये (सख्या शिवानि) समान राष्ट्रशासक शास्यसम्बन्धी कर्म कल्याणकर (जामिवत् सन्तु) वंशज शाश्वतिक स्थिर होवें ॥७॥

    भावार्थ

    शासक और शास्य प्रजा वर्ग के पारस्परिक सखिभाव सदा बने रहने चाहिए और वंशज सम्बन्ध के समान कल्याणकारी होवें ॥७॥

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    विषय

    [ इन्द्र व विमद की] अटूट मित्रता

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (तव) = आपकी (च) = और (ऋषेः विमदस्य) = तत्त्वज्ञानी विमद की (एना) = ये (सख्या) = मित्रताएँ (नः) = हमारे लिये (माकिः वियौषुः) = मत नष्ट हों। ये मित्रताएँ हमारे लिये कल्याणकर हों। हम प्रभु का स्तवन करनेवाले हों और निरभिमान तत्त्वज्ञानियों के सम्पर्क में रहनेवाले हों। [२] हे (देव) = प्रकाशमान प्रभो ! हम (हि) = निश्चय से (ते) = आपकी (प्रमतिम्) = प्रकृष्ट कल्याणी मति को (विद्मा) = जानें । (जामिवत्) = जैसे एक बहिन भाई की प्रमति को प्राप्त करती है अथवा जैसे एक बन्धु अपने बड़े बन्धु की सुमति को प्राप्त करता है। [३] (अस्मे) = हमारे लिये (ते) = आपकी (सख्या) = मित्रताएँ (शिवानि) = कल्याणकर (सन्तु) = हों। आपकी मित्रता में हमारे अकल्याण का सम्भव ही कहाँ ? वस्तुतः प्रभु की मित्रता अभिमानशून्य पुरुषों के साथ ही होती है। ये निरभिमानी सदा प्रभु के चरणों में अपने कर्मों का प्रणिधान करते हैं। यह प्रणिधान उन्हें अहंकार से दूर करता है । निरहंकारता उन्हें प्रभु जैसा बना देती है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम विमद बनें, कर्मों द्वारा प्रभु का अर्चन करें। हमारी मित्रताएँ अनश्वर हों । सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से हुआ है कि हम क्रियाकुशल प्रभु का पूजन करते हैं । [१] हम इन्द्रियों को जीतकर प्रभु-प्रवण बनायें, [२] प्रभु-भक्त हितरमणीय क्रियाओं वाला होता है, [३] यह अपने शरीर में सोम को सुरक्षित करके इसे निर्मल बनाता है, [४] हम वाग्वीर न बनकर सदा कर्मवीर बनें, [५] प्रभु गोपाल हों तो हम उनकी गौवें, [६] प्रभु के साथ हमारी मित्रता कभी नष्ट न हो, [७] इस मित्र का मौलिक प्रेरण यही है कि सोम का पान करो।

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    विषय

    परम स्नेही सखा प्रभु।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! सब ऐश्वर्यों के देने हारे ! जल अन्न के वितरण करने वाले ! (वि-मदस्य तव) विशेष आनन्द, हर्ष आदि से युक्त तेरा और (वि-मदस्य च ऋषेः) विशेष आनन्द और हर्ष-उल्लास से युक्त तेरे दर्शन करने वाले के (एना सख्या) ये नाना मैत्रीभाव (माकिः वि यौषुः) कोई भी न तोड़े और कभी भी न टूटें। हे (देव) सब सुखों के देने वाले ! हम (ते प्र-मतिम्) तेरी सर्वोत्कृष्ट बुद्धि वा ज्ञान को (विद्म हि) अवश्य जानें, (जामिवत्) भाई के प्रति बहिन के समान, पति के प्रति सन्ततिजनक पत्नी के समान और बन्धु के प्रति बन्धु के समान, (ते) तेरे (सख्या) यह मित्रता, स्नेह और सौहार्द के भाव (अस्मे शिवा निसन्तु) हमारे लिये कल्याणकारी और सुखजनक हों। इसी प्रकार हमारे ये सब प्रेम भाव (ते शिवानि सन्तु) तेरे प्रति हमें बांधने वाले और कल्याणकारी हों। इति नवमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१ विराट् त्रिष्टुप्। २, ४ आर्ची भुरिग् जगती। ६ आर्ची स्वराड् जगती। ३ निचृज्जगती। ५, ७ निचृत् त्रिटुष्प् ॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे राजन् ! (तव विमदस्य-ऋषेः-च) तव तथा त्वदीयराष्ट्रे विशिष्टहर्षयितुस्त्वां प्राप्तस्य प्रजागणस्य (एना सख्या) एतानि सखित्वानि खलूभयहितकराणि (माकिः-न वियौषुः) न कदाचिद् वियुज्येरन्-न शिथिलानि भवेयुः (देव) हे सुखदातः ! राजन् ! (ते प्रमतिं विद्म हि) तव प्रकृष्टां राज्यशासनमतिं प्रजापालनपरायणां मतिं वयं प्रजाजना जानीमः (अस्मे) अस्मभ्यम् (ते) तुभ्यं च (सख्या शिवानि) समानराज्यशासकशास्यसम्बन्धिकर्माणि कल्याणकराणि (जामिवत् सन्तु) वंश्यानि शाश्वतिकानि स्थिराणि भवन्तु ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, mighty ruler of life and the world, let not this bond of friendship between you and the sage free from the shackles of pride and passion ever sever. O generous lord of light and life, we know your good will and kindness toward us and we enjoy it too. May this bond of friendship and the gifts of the bond be good and blissful for us like the filial bond of parent and child.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    शासक व शास्य प्रजेचे पारस्परिक सखिभाव सदैव टिकावेत व वंशज संबंधाप्रमाणे कल्याणकारी असावेत. ॥७॥

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