Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 23 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 23/ मन्त्र 6
    ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराडार्चीजगती स्वरः - निषादः

    स्तोमं॑ त इन्द्र विम॒दा अ॑जीजन॒न्नपू॑र्व्यं पुरु॒तमं॑ सु॒दान॑वे । वि॒द्मा ह्य॑स्य॒ भोज॑नमि॒नस्य॒ यदा प॒शुं न गो॒पाः क॑रामहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्तोम॑म् । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । वि॒ऽम॒दाः । अ॒जी॒ज॒न॒न् । अपू॑र्व्यम् । पु॒रु॒ऽतम॑म् । सु॒ऽदान॑वे । वि॒द्म । हि । अ॒स्य॒ । भोज॑नम् । इ॒नस्य॑ । यत् । आ । प॒शुम् । न । गो॒पाः । क॒रा॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्तोमं त इन्द्र विमदा अजीजनन्नपूर्व्यं पुरुतमं सुदानवे । विद्मा ह्यस्य भोजनमिनस्य यदा पशुं न गोपाः करामहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्तोमम् । ते । इन्द्र । विऽमदाः । अजीजनन् । अपूर्व्यम् । पुरुऽतमम् । सुऽदानवे । विद्म । हि । अस्य । भोजनम् । इनस्य । यत् । आ । पशुम् । न । गोपाः । करामहे ॥ १०.२३.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 23; मन्त्र » 6
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे राजन् ! (ते सुदानवे) तुझ शोभन सुखदाता के लिये (विमदाः) तेरे राष्ट्र में विशिष्ट हर्ष को प्राप्त हुए प्रजाजन (पुरुतमम्-अपूर्व्यं स्तोमम्) बहुत प्रकार के श्रेष्ठ शुल्करूप अन्न को (अजीजनन्) हम सम्पन्न करते हैं (अस्य-इनस्य भोजनं विद्म हि) इस तुझ स्वामिरूप शासक के पालन को हम मानते हैं (यत् पशुं न गोपाः) क्योंकि दूध देनेवाले पशु के प्रति दूध के प्रतिकाररूप में उसका आहारदान से जैसे गोपालक सत्कार करते हैं, उसी भाँति पालनादि निमित्त तेरा उपहार द्वारा हम सत्कार करते हैं ॥६॥

    भावार्थ

    प्रजा को उत्तम सुख देनेवाले राजा के राष्ट्र में विशेषरूप से हर्षित सुखी प्रजा बहुत प्रकार से उत्तम अन्न आदि तथा उपहार दिया करें। ऐसे सुख देनेवाले शासक का प्रजाएँ सत्कार किया करती हैं। जैसे दूध देनेवाले पशु का प्रतिदान-आहारदान से सत्कार करते हैं ॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अद्भुत स्तवन

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = शक्तियुक्त कर्मों के करनेवाले प्रभो ! (विमदाः) = मदशून्य व्यक्ति (सुदानवे) = उत्तम दानी व [दाप् लवने] पापों का खण्ड का खण्डन करनेवाले व [दैप शोधने] हमारे जीवनों को शुद्ध करनेवाले (ते) = तेरे लिये (अपूर्व्यं) = अद्भुत, इस स्वकर्म में निरत होने के द्वारा होनेवाले [स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य] (पुरुतमम्) = अधिक से अधिक लोकों का पालन व पूरण करनेवाले (स्तोमम्) = स्तुति को (अजीजनन्) = उत्पन्न करते हैं। अर्थात् कर्मों द्वारा आपकी अर्चन करते हैं । [२] इन कर्मों द्वारा होनेवाले स्तवन को यहाँ 'अपूर्व्य' कहा है। इस स्तवन में किसी शब्द का उच्चारण नहीं होता । बिना ही शब्दों के उच्चारण के चलनेवाला यह स्तवन प्रभु को अत्यन्त प्रिय है। इस स्तवन को 'विमद' ही कर पाते हैं। 'उत्तम कर्मों को करना और उन्हें परमेश्वरार्पण करते जाना' यह विमद का कार्यक्रम है। ये विमद प्रभु के आदेश के अनुसार यज्ञात्मक कर्मों में लगे रहते हैं और प्रभु कृपा से इनका योगक्षेम ठीक प्रकार से चलता है। यहाँ मन्त्र में कहते हैं कि (अस्य इनस्य) = इस ब्रह्माण्ड के स्वामी के (भोजनम्) = भोजन को, प्रभु से दिये गये भोजन को (हि) = निश्चय से (विद्मा) = जानते हैं। हमें यह तो निश्चय है कि हम कर्तव्यपालन करेंगे तो प्रभु भोजन अवश्य प्राप्त करायेंगे ही। यह होता तब है (यदा) = जब कि (पशुं न गोपाः) = पशु के लिये जैसे ग्वाला होता है, इसी प्रकार हम अपने लिये उस प्रभु को (करामहे) = करते हैं । हम भेड़े बनते हैं और प्रभु 'मेषपाल' हम बकरियाँ तो प्रभु 'अजपाल' हम गौवें तो प्रभु 'गोपाल' । प्रभु हमारे चरवाहे हैं, वे हमें चारा देते ही हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-लोकहित के कार्यों में लगे हुए हम प्रभु के सच्चे स्तोता बनते हैं। प्रभु गोपाल -हैं, तो हम उनकी गौवें ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    दाता प्रभु की स्तुति और गोपतिवत् उसकी याद।

    भावार्थ

    हे प्रभो ! (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! समस्त जनों के राजन् ! (वि-मदाः) मद से रहित, वा विशेष हर्ष वा तृप्ति योग से युक्त होकर विद्वान् लोग (ते सु-दानवे) उत्तम कोटि के पूजनीय, तुझ दाता के (अपूर्व्यं) अपूर्व, आश्चर्यजनक, (पुरु-तमं) सब से श्रेष्ठ (स्तोमं) गुणस्तवन को (अजीजनन्) प्रकट करते हैं। (अस्य इनस्य) उस तुझ स्वामी के (भोजनं विद्म हि) पालक ऐश्वर्य को हम जानें और प्राप्त करें और (पशुं न गोपाः) जिस प्रकार गोपालक पशु को सदा अपने सामने रखता और बुलाता है उसी प्रकार हम (गो-पाः) इन्द्रियों के पालक, जितेन्द्रिय होकर (त्वां पशुं आ करामहे) तुझ सर्वद्रष्टा को बुलावें और सदा अपने समक्ष रखें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१ विराट् त्रिष्टुप्। २, ४ आर्ची भुरिग् जगती। ६ आर्ची स्वराड् जगती। ३ निचृज्जगती। ५, ७ निचृत् त्रिटुष्प् ॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे राजन् ! (ते सुदानवे) तुभ्यं शोभनसुखदात्रे (विमदाः) तव राष्ट्रे विशिष्टहर्षप्राप्ताः प्रजाजनाः (पुरुतमम्-अपूर्व्यं स्तोमम्-अजीजनन्) बहुप्रकारं श्रेष्ठमन्नं “अन्नं वै स्तोमः” [मै० ३।४।२] शुल्करूपं समपादयन्-सम्पादितवन्तस्ते खलु वयं स्मः, यतः (अस्य-इनस्य भोजनं विद्म हि) अस्य तव स्वामिभूतस्य शासकस्य पालनं वयं जानीमः (यत् पशुं न गोपाः-आकरामहे) यतो दुग्धदातारं पशुं प्रति दुग्धप्रतिदाननिमित्तं तदाहारदानेन तं गोपाला यथा सत्कुर्वन्ति तद्वत्त्वां वयं सत्कुर्मः ॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Free from pride and passion, we have created and offer you, O lord of divine charity, Indra, an ancient, unique and most copious song of celebration. We know the gifts of protection and promotion of this mighty lord, and, masters of our senses and mind, we keep his divine presence at heart as the all-seeing master of our life and karmic performance.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रजेला उत्तम सुख देणाऱ्या राजाच्या राष्ट्रात विशेष रूपाने सुखी प्रजेने राजाला पुष्कळ प्रकारे उत्तम अन्न इत्यादी उपहार द्यावेत. असे सुख देणाऱ्या शासकाचा प्रजा सत्कार करते. जसे दूध देणाऱ्या पशूचा गोपालक आहार देऊन सत्कार करतात. ॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top