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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 45/ मन्त्र 11
    ऋषिः - वत्सप्रिः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वाम॑ग्ने॒ यज॑माना॒ अनु॒ द्यून्विश्वा॒ वसु॑ दधिरे॒ वार्या॑णि । त्वया॑ स॒ह द्रवि॑णमि॒च्छमा॑ना व्र॒जं गोम॑न्तमु॒शिजो॒ वि व॑व्रुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वाम् । अ॒ग्ने॒ । यज॑मानाः । अनु॑ । द्यून् । विश्वा॑ । वसु॑ । द॒धि॒रे॒ । वार्या॑णि । त्वया॑ । स॒ह । द्रवि॑णम् । इ॒च्छमा॑नाः । व्र॒जम् । गोऽम॑न्तम् । उ॒शिजः॑ । वि । व॒व्रुः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वामग्ने यजमाना अनु द्यून्विश्वा वसु दधिरे वार्याणि । त्वया सह द्रविणमिच्छमाना व्रजं गोमन्तमुशिजो वि वव्रुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाम् । अग्ने । यजमानाः । अनु । द्यून् । विश्वा । वसु । दधिरे । वार्याणि । त्वया । सह । द्रविणम् । इच्छमानाः । व्रजम् । गोऽमन्तम् । उशिजः । वि । वव्रुः ॥ १०.४५.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 45; मन्त्र » 11
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 29; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (2)

    पदार्थ

    (अग्ने) हे अग्रणायक परमात्मन् ! (यजमानाः) अध्यात्मयज्ञ के यजमान-आत्मयाजी (त्वाम्-अनु) तेरे अनुकूल हो (द्यून्) सब दिन (विश्वा वार्याणि वसु दधिरे) सारे वरणीय धनों को धारण करते हैं-प्राप्त करते हैं (त्वया सह द्रविणम्-इच्छमानाः) तेरे साहाय्य से धन को चाहते हुए (उशिजः) मेधावी जन (गोमन्तं व्रजं वि वव्रुः) वाणीवाले ज्ञानमार्ग को विवृत करते हैं-खोलते हैं ॥११॥

    भावार्थ

    परमात्मा के आदेशानुकूल जीवन के सब दिनों में वरणीय धनों को मनुष्य प्राप्त करते हैं और वे अपने लिए ज्ञानमार्ग का विस्तार करते हैं ॥११॥

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    विषय

    सर्वैश्वर्यप्रद सर्वज्ञानप्रद प्रभु।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्ने, सर्वव्यापक सर्वज्ञ ! (अनु द्यून्) सब दिनों (त्वा यजमाना) तेरे उपासक जन तेरी उपासना करते हुए ही (विश्वा वसु दधिरे) समस्त ऐश्वर्यों को धारण करते हैं। और वे (वया सह) तेरे साथ ही (द्रविणम् इच्छमानाः) धनैश्वर्य, ज्ञान की प्राप्ति करना चाहते हुए (उशिजः) विद्वान् मेधावी, नाना फलों की आकांक्षा करते हुए (गोमन्तं व्रजं वि वव्रुः) नाना वाणियों से युक्त, गन्तव्य ज्ञान मार्ग का विवरण, या प्रसार करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्वत्सप्रिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१—५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ त्रिष्टुप्। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ९-१२ विराट् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अग्ने) हे अग्रणायक परमात्मन् ! (यजमानाः) अध्यात्मयज्ञस्य यजमानाः-आत्मयाजिनः (त्वाम्-अनु) त्वामनुलक्ष्य (द्यून्) दिनानि प्रतिदिनम् (विश्वा वार्याणि वसु दधिरे) सर्वाणि वरणीयानि वसूनि धनानि धारयन्ति प्राप्नुवन्ति (त्वया सह द्रविणम्-इच्छमानाः) तव साहाय्येन धनमिच्छन्तः (उशिजः), मेधाविनः “उशिजः-मेधाविनाम” [निघ० ३।१५] (गोमन्तं व्रजं विवव्रुः) वाग्वन्तं ज्ञानमार्गं विवृतं कुर्वन्ति ॥११॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, lord of light and glory, those who offer you yajnic homage and worship are blest with all the world’s wealth, peace and comfort of their choice. Seeking and aspiring for honour and excellence, loving sages and pioneers of progress not only achieve but also open the gates of further possibilities on earth abounding in lands, cows, and culture of knowledge and grace.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म्याच्या आदेशानुकूल जीवनाच्या प्रत्येक दिवशी माणसे वरणीय धन प्राप्त करतात व ते आपल्यासाठी ज्ञानमार्ग विस्तृत करतात. ॥११॥

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