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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 45/ मन्त्र 8
    ऋषिः - वत्सप्रिः देवता - अग्निः छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    दृ॒शा॒नो रु॒क्म उ॑र्वि॒या व्य॑द्यौद्दु॒र्मर्ष॒मायु॑: श्रि॒ये रु॑चा॒नः । अ॒ग्निर॒मृतो॑ अभव॒द्वयो॑भि॒र्यदे॑नं॒ द्यौर्ज॒नय॑त्सु॒रेता॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दृ॒शा॒नः । रु॒क्मः । उ॒र्वि॒या । वि । अ॒द्यौ॒त् । दुः॒ऽमर्ष॑म् । आयुः॑ । श्रि॒ये । रु॒चा॒नः । अ॒ग्निः । अ॒मृतः॑ । अ॒भ॒व॒त् । वयः॑ऽभिः । यत् । ए॒न॒म् । द्यौः । ज॒नय॑त् । सु॒ऽरेताः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दृशानो रुक्म उर्विया व्यद्यौद्दुर्मर्षमायु: श्रिये रुचानः । अग्निरमृतो अभवद्वयोभिर्यदेनं द्यौर्जनयत्सुरेता: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दृशानः । रुक्मः । उर्विया । वि । अद्यौत् । दुःऽमर्षम् । आयुः । श्रिये । रुचानः । अग्निः । अमृतः । अभवत् । वयःऽभिः । यत् । एनम् । द्यौः । जनयत् । सुऽरेताः ॥ १०.४५.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 45; मन्त्र » 8
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अमृतः-अग्निः-अभवत्) यह अमर-मरणधर्मरहित परमात्मा सर्वत्र स्वामिरूप में विराजता है (दृशानः) द्रष्टा (रुक्मः) रोचमान (उर्विया व्यद्यौत्) महती दीप्ति से विशिष्टरूप से प्रकाशित है-प्रकाश करता है (दुर्मर्षम्-आयुः श्रिये रुचानः) आश्रय लेनेवाले उपासक के लिए अबाध्य ज्ञान को प्रकाशित करता हुआ-प्रकट करता हुआ (सुरेताः-द्यौः-वयोभिः-यत्-एनं जनयत्) सम्यक् उत्पादक शक्तिवाले पिता की भाँति तेजो वीर्यवान् प्राणों के द्वारा इस उपासक को सम्पन्न करता है ॥८॥

    भावार्थ

    परमात्मा सर्वत्र एकरस विराजमान है। अबाध्य ज्ञान को विशेषरूप से अपने आश्रयी उपासक के लिए देता है और उत्तम प्राणों से समृद्ध करता है ॥८॥

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    विषय

    तत्त्वद्रष्टा का श्रीसम्पन्न जीवन

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार अपने जीवन को ज्ञानदीप्ति से दीप्त करने के कारण यह (दृशान:) = प्रत्येक वस्तु के तत्त्व को देखनेवाला बनता है । वस्तुओं की आपात रमणीयता से उनमें उलझ नहीं जाता। न उलझने के कारण यह (रुक्मः) = स्वर्ण के समान चमकनेवाला होता है, स्वास्थ्य की दीप्ति से दीप्त होता है। शारीरिक स्वास्थ्य के साथ उर्विया हृदय की विशालता से यह (व्यद्यौत्) = चमकता है। इसका हृदय संकुचित नहीं होता, हृदय को विशाल बनाकर यह समाज में शोभा ही पाता है। (आयुः) = इसका जीवन (दुर्मर्षम्) = शत्रुओं से मर्षण के योग्य नहीं होता, यह शत्रुओं के लिये दुराधर्ष होता है । काम-क्रोधादि के आक्रमण से यह आक्रान्त नहीं होता । (श्रिये रुचानः) = श्री के लिये यह रुचिवाला होता है, किसी भी कार्य को यह अशोभा से नहीं करना चाहता । इस श्री के लिये यह 'सत्य' को अपनाता है, सत्कार्यों से इसका 'यश' होता है, यह यश इसे श्री सम्पन्न जीवनवाला करता है। [२] (अग्निः) = यह जीवनपथ में निरन्तर आगे बढ़ता है । (वयोभिः) = आयुष्य के स्थापक सात्त्विक अन्नों से यह (अमृतः) = रोगों से अनाक्रान्त स्वस्थ दीर्घ- जीवनवाला (अभवत्) = होता है । [३] यह इस प्रकार बन इसलिए पाता है (यत्) = क्योंकि (सुरेता:) = उत्तम रेतस्वाला, ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाला (द्यौः) = ज्ञान- ज्योति से प्रकाशमय जीवनवाला आचार्य (एनम्) = इसको (जनयत्) = विकसित शक्तिवाला करता है। संयमी ज्ञानी आचार्य के नियन्त्रण में रहकर इसकी भी शक्तियों व ज्ञान का विकास समुचित रूप में हो जाता है और इसका जीवन सचमुच श्री सम्पन्न होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ-संयमी ज्ञानी आचार्यों की कृपा से हमारा जीवन श्री सम्पन्न बने। हम तत्त्वद्रष्टा बनकर संसार में उलझे नहीं ।

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    विषय

    आत्मा रूप अग्नि का प्रकाश। उसका अग्नि के तुल्य ही जीवन रूप ज्वलन।

    भावार्थ

    (दृशानः) प्रत्यक्ष देखने वाला, (रुक्मः) नाना रुचियों, इच्छाओं से युक्त, (उर्विया) महान् (वि अद्यौत्) यह आत्मा रूप अग्नि विविध रूप से प्रकाशित होता है। वह (दुर्मर्षम्) कठिनता से पराजय करने योग्य होकर (आयुः) जीवन, प्राणरूप, (श्रिये) शोभा कान्ति की वृद्धि के लिये (रुचानः) स्वयं कान्तिमान्, प्रकाशस्वरूप है। (२) खूब तेजस्वी सूर्य का प्रकाश इस अग्नि को उत्पन्न करता है, तो वही काष्ठों द्वारा बढ़कर नहीं बुझता, उसी प्रकार वह (अग्नि) ज्ञानयुक्त अग्निवत् तेजस्वी होकर भी (वयोभिः अमृतः अभवत्) अन्नों और प्राणों से अमृत, अर्थात् नहीं मरने वाला होजाता है। (यत्) जब कि (सु-रेताः द्यौः एनं जनयत्) उत्तम वीर्यवान् पिता इसको पुत्र रूप से उत्पन्न करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्वत्सप्रिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१—५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ त्रिष्टुप्। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ९-१२ विराट् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अमृतः-अग्निः-अभवत्) एषोऽमरो मरणधर्मरहितः परमात्माग्निः सर्वत्र विराजते (दृशानः) द्रष्टा (रुक्मः) रोचमानः (उर्विया व्यद्यौत्) महत्या दीप्त्या विशिष्टतया प्रकाशते (दुर्मर्षम्-आयुः श्रिये रुचानः) आश्रयति यस्तस्मै-आश्रयप्राप्तये खलूपासकाय “श्रिञ् धातोः क्विप्” [उणा० २।५७] अबाध्यमापुः प्रकाशयन् प्रकटयन् (सुरेताः-द्यौः-वयोभिः-एत् एनं जनयत्) सोऽग्निः परमात्मा सम्यगुत्पादकशक्तिमान् पितेव तेजोवीर्यवान् प्राणैः “प्राणो वै वयः” [ऐ० १।२८] यतः एनमुपासकं जनयति ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    All watching and self-revealed, glorious Agni shines awfully, infinite light, indomitable life and pranic energy, all refulgent for the beauty and grace of life.$Agni is immortal and eternal with waves of living energy since the heavenly divine life spirit of existence generates it as it is.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा सर्वत्र एकरस विराजमान आहे. विशेषरूपाने आपल्या आश्रयी उपासकासाठी अबाध्य ज्ञान देतो व उत्तम प्राणांनी समृद्ध करतो. ॥८॥

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