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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 45/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वत्सप्रिः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    श्री॒णामु॑दा॒रो ध॒रुणो॑ रयी॒णां म॑नी॒षाणां॒ प्रार्प॑ण॒: सोम॑गोपाः । वसु॑: सू॒नुः सह॑सो अ॒प्सु राजा॒ वि भा॒त्यग्र॑ उ॒षसा॑मिधा॒नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्री॒णाम् । उ॒त्ऽआ॒रः । ध॒रुणः॑ । र॒यी॒णाम् । म॒नी॒षाणा॑म् । प्र॒ऽअर्प॑णः । सोम॑ऽगोपाः । वसुः॑ । सू॒नुः । सह॑सः । अ॒प्ऽसु । राजा॑ । वि । भा॒ति॒ । अग्रे॑ । उ॒षसा॑म् । इ॒धा॒नः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्रीणामुदारो धरुणो रयीणां मनीषाणां प्रार्पण: सोमगोपाः । वसु: सूनुः सहसो अप्सु राजा वि भात्यग्र उषसामिधानः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्रीणाम् । उत्ऽआरः । धरुणः । रयीणाम् । मनीषाणाम् । प्रऽअर्पणः । सोमऽगोपाः । वसुः । सूनुः । सहसः । अप्ऽसु । राजा । वि । भाति । अग्रे । उषसाम् । इधानः ॥ १०.४५.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 45; मन्त्र » 5
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (श्रीणाम्-उदारः) यह सूर्य अग्नि प्राणों का उत्तेजक है-उत्पन्न करनेवाला है (रयीणां धरुणः) पुष्टियों का धारक है (मनीषाणां प्रार्पणः) बुद्धियों का प्रेरक है (सोमगोपाः) उत्पन्न होते हुए पदार्थों का रक्षक है (वसुः) बसानेवाला-विस्तृत करनेवाला है (सहसः सूनुः) बल का उद्बोधक है (अप्सु राजा) अन्तरिक्ष में वर्तमान पिण्डों के राजा की भाँति है (उषसाम्-अग्रे-इधानः-विभाति) प्रभात में ज्योतिरेखाओं के आगे अर्थात् पश्चात् विशिष्टरूप से दीप्त होता है ॥५॥

    भावार्थ

    सूर्य संसार में प्राणशक्ति का प्रेरक है, नाना प्रकार की पुष्टियों को देनेवाला है। बुद्धियों का प्रेरक, उत्पन्न होनेवाले पदार्थों को बढ़ानेवाला, बलवर्धक, आकाश के पिण्डों को प्रकाश देनेवाला और उषावेलाओं के पश्चात् प्रकाशित होनेवाला या उदय होनेवाला उपयोगी पिण्ड है ॥५॥

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    विषय

    'प्रभु प्रिय' का जीवन

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार प्रभु की दीप्ति से जीवन के दीप्त होने पर यह 'वत्सप्री' [मन्त्र का ऋषि] (श्रीणां उदारः) = धनों के विषय में उदारतावाला होता है। धन के विषय में कृपण नहीं होता। लोकहित के लिये उदारतापूर्वक दान देनेवाला होता है। वस्तुतः इस दानवृत्ति के कारण यह (रयीणां धरुणः) = धनों का धारक बनता है । 'दक्षिणां दुहते सप्तमातरम्' =दान से उसका यह धन सप्तगुणित होकर वृद्धि को प्राप्त होता है। [२] यह (मनीषाणां प्रार्पण:) = बुद्धियों का यह प्राप्त करानेवाला होता है। स्वयं अपनी बुद्धि को ठीक रखता हुआ यह औरों को ज्ञान देनेवाला बनता है। धन के विषय में उदारता के कारण, लोभवृत्ति से ऊपर उठने के कारण इसकी बुद्धि अविकृत रहती है और यह ज्ञान का प्रसार करनेवाला बनता है। [३] इस बुद्धि की अविकृतता के लिये यह (सोमगोपाः) = सोम का रक्षक बनता है। यह रक्षित सोम ही इसकी ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है। इस सोम के रक्षण से इसका स्वास्थ्य बिलकुल ठीक रहता है, यह वसुः उत्तम निवासवाला होता है । सहसः (सूनुः) = बल का पुत्र [पुञ्ज] बनता है। यह शरीरधारी 'बल' ही हो जाता है। [४] सोम के रक्षण के परिणामरूप ही यह (अप्सु राजा) = कर्मों के विषय में बड़ा व्यवस्थित [regirlated] होता है । व्यवस्थित कर्मों के कारण यह चमक उठता है । (विभाति) = शरीर, मन व बुद्धि के स्वास्थ्य की दीप्ति से यह विशेषरूप से दीप्त होता ही है । यह (उषसां अग्रे) = [early in the morning] बहुत ही सवेरे-सवेरे (इधान:) = उस प्रभु को अपने में दीप्त करनेवाला होता है । प्रभु स्मरण के द्वारा प्रभु की भावना को अपने में जगाता है, प्रभु के प्रकाश को देखने का प्रयत्न करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु प्रिय व्यक्ति धन-सम्पन्न होता हुआ उदार बनता है । सोम की रक्षा के द्वारा अपने जीवन को सुन्दर व सशक्त बनाता है ।

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    विषय

    प्राभातिक सूर्यवत् राजा का स्वरूप।

    भावार्थ

    वह राजा, विद्वान्, प्रभु, (श्रीणाम् उत्-आरः) नाना ऐश्वर्यों और आश्रितों को उन्नत करने वाला, (रयीणां धरुणः) नाना धनों को धारण करने वाला, (मनीषाणां प्रार्पणः) उत्तम बुद्धियों को देनेवाला, (सोम-गोपाः) ऐश्वर्यों का रक्षक है। वह (वसुः) सब को बसाने वाला, (सहसः) बलवान् सैन्य को (सूनुः) सन्मार्ग पर चलानेहारा, (अप्सु राजा) प्रजाओं में तेजस्वी राजा (इधानः) देदीप्त होकर (उषसाम् अग्रे विभाति) प्रभात वेलाओं के अग्र भाग में सूर्य के समान, विशेषरूप से शोभा देता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्वत्सप्रिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१—५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ त्रिष्टुप्। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ९-१२ विराट् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (श्रीणाम्-उदारः) एष सूर्यरूपोऽग्निः प्राणानाम् “प्राणाः श्रियः” [श० ६।१।१।४] उत्प्रेरक उन्नायकः (रयीणां धरुणः) पुष्टीनां धारको धारयिता (मनीषाणां प्रार्पणः) बुद्धीनां प्रेरयिता (सोमगोपाः) सवनीयानामुत्पद्यमानानां गोपायिता रक्षकः (वसुः) वासयिता (सहसः सूनुः) बलस्य-उत्प्रेरकः (अप्सु राजा) अन्तरिक्षे आकाशे पिण्डानां राजेव (उषसाम्-अग्रे-इधानः-विभाति) उषसां प्रभाते भवानां ज्योतीरेखानामग्रे-अनन्तरं विशिष्टं दीप्यते ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Liberal source giver of light, beauty and life’s graces, treasure home of wealths, honours and excellences, harbinger of intellectual smartness and fulfilment, protector and promoter of the soma energies of life, shelter home of peace and comfort, child as well as energiser of strength and courage, and the ruling inspirer of the soul in will and actions, Agni, kindled and rising, shines in advance of the dawns at the horizon.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सूर्य जगात प्राणशक्तीचा प्रेरक आहे. विविध प्रकारची पुष्टी देणारा आहे. बुद्धीचा प्रेरक, उत्पन्न होणाऱ्या पदार्थांना वाढविणारा, बलवर्धक, आकाशातील पिंडांना प्रकाश देणारा, उष:कालानंतर प्रकाशित होणारा किंवा उदित होणारा उपयोगी पिंड आहे. ॥५॥

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