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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 48 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 48/ मन्त्र 3
    ऋषिः - इन्द्रो वैकुण्ठः देवता - इन्द्रो वैकुण्ठः छन्दः - पादनिचृज्ज्गती स्वरः - निषादः

    मह्यं॒ त्वष्टा॒ वज्र॑मतक्षदाय॒सं मयि॑ दे॒वासो॑ऽवृज॒न्नपि॒ क्रतु॑म् । ममानी॑कं॒ सूर्य॑स्येव दु॒ष्टरं॒ मामार्य॑न्ति कृ॒तेन॒ कर्त्वे॑न च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मह्य॑म् । त्वष्टा॑ । वज्र॑म् । अ॒त॒क्ष॒त् । आ॒य॒सम् । मयि॑ । दे॒वासः॑ । अ॒वृ॒ज॒न् । अपि॑ । क्रतु॑म् । मम॑ । अनी॑कम् । सूर्य॑स्यऽइव । दु॒स्तर॑म् । माम् । आर्य॑न्ति । कृ॒तेन॑ । कर्त्वे॑न । च॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मह्यं त्वष्टा वज्रमतक्षदायसं मयि देवासोऽवृजन्नपि क्रतुम् । ममानीकं सूर्यस्येव दुष्टरं मामार्यन्ति कृतेन कर्त्वेन च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मह्यम् । त्वष्टा । वज्रम् । अतक्षत् । आयसम् । मयि । देवासः । अवृजन् । अपि । क्रतुम् । मम । अनीकम् । सूर्यस्यऽइव । दुस्तरम् । माम् । आर्यन्ति । कृतेन । कर्त्वेन । च ॥ १०.४८.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 48; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (मह्यम्) मुझे प्रदर्शित करने को (त्वष्टा-आयसं वज्रम्-अतक्षत्) सूर्य अपने ज्योतिःस्वरूप ओज को प्रकट करता है (मयि) मेरे लिए (देवासः-क्रतुम्-अपि-अवृजन्) मुमुक्षुजन कर्म-अध्यात्मकर्म-ध्यान समर्पित करते हैं (मम-अनीकं सूर्यस्य-इव दुष्टरम्) मेरा बल-तेजोबल सूर्य जैसा अतितीक्ष्ण है (कृतेन कर्त्वेन च माम्-आर्यन्ति) पिछले किये कर्म और आगे किये जानेवाले कर्म के द्वारा मुझे प्राप्त होते हैं, फल पाने के लिए ॥३॥

    भावार्थ

    सूर्य अपने तापप्रकाश के देनेवाले परमात्मा को प्रदर्शित करता है। मुमुक्षुजन स्तुति-प्रार्थना-उपासना ईश्वर के प्रति समर्पित करते हैं तथा कर्म करनेवाले मनुष्य फल पाने के लिए भी परमात्मा के अधीन हैं ॥३॥

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    विषय

    सबको बल का दाता, सबका अध्यक्ष सबके फलों का देने-दिलाने वाला।

    भावार्थ

    (त्वष्टा) उत्तम शिल्पी, वा तेजस्वी जन वा सूर्यादि (मह्यम्) मेरे ही (वज्रम्) बल को (अतक्षत्) प्रकट करता है। (मयि) मेरे आश्रय होकर (देवासः) विद्वान ज्ञानी जन (क्रतुम् अपि अवृजन्) अपने समस्त कर्म मेरे लिये त्यागते वा करते हैं। (मम अनीकम्) मेरा स्वरूप वा बल, (सूर्यस्य इव दुस्तरं) सूर्य के समान दुस्तर, असह्य है। समस्त लोक (कृतेन कर्त्वेन च) किये सत् कर्म से (माम् आर्यन्ति) मुझे ही प्राप्त होते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    इन्द्रो वैकुण्ठ ऋषिः॥ देवता—इन्द्रो वैकुण्ठः॥ छन्द:- १, ३ पादनिचृज्जगती। २, ८ जगती। ४ निचृज्जगती। ५ विराड् जगती। ६, ९ आर्ची स्वराड् जगती। ७ विराट् त्रिष्टुप्। १०, ११ त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    कर्म द्वारा प्रभु प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] प्रभु कहते हैं कि (मह्यम्) = मेरे लिये, अर्थात् मेरी प्राप्ति के लिये (त्वष्टा) = [त्विषेर्वा स्याद् दीतिकर्मणः नि०] ज्ञान से अपने को दीप्त करनेवाला भक्त (आयसं वज्रम्) = लोहे के बने हुए वज्र को (अतक्षत्) = बनाता है। 'वज्र' का अर्थ है क्रियाशीलता [वज गतौ] 'आयस' का अभिप्राय है अनथक क्रियाशीलता । 'इसकी टांगें तो मानो लोहे की बनी हुई हैं' इस वाक्य प्रयोग में यह भाव स्पष्ट है। प्रभु की प्राप्ति के लिये जहाँ ज्ञान आवश्यक है, वहाँ क्रियाशीलता नितान्त आवश्यक है । अकर्मण्य जीवनवाला प्रभु को कभी नहीं प्राप्त होता । [२] (मयि) = मेरे में (देवासः) = देववृत्ति के लोग (क्रतुम्) = यज्ञादि उत्तम कर्मों को (अवृजन्) = छोड़ते हैं । अर्थात् वे कर्म करते हैं और उन कर्मों को मेरे अर्पण करते चलते हैं, [३] (मम) = मेरा (अनीकम्) = तेज (सूर्यस्य इव) = सूर्य के तेज की तरह (दुष्टरम्) = दुस्तर है । जैसे सूर्य के तेज का रोग - कृमियों से पराभव नहीं होता, इसी प्रकार प्रभु के तेज को वासनाएँ आक्रान्त नहीं कर पातीं। जिस हृदय में प्रभु का वास है, वहाँ वासना का प्रदेश नहीं । प्रभु के तेज में वासनाएँ विदग्ध हो जाती हैं। [४] (माम्) = मुझे ये ज्ञानी भक्त (आर्यन्ति) = प्राप्त होते हैं, (कृतेन) = अब तक किये हुए कर्मों से (च) = और (कर्त्वन) = आगे किये जानेवाले कर्मों से । कर्म से ही प्रभु का पूजन होता है। यह कर्मों के द्वारा प्रभु का पूजन ही हमें मोक्ष को प्राप्त कराता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का पूजन कर्मों से ही होता है । यही मोक्ष प्राप्ति का मार्ग है, 'कर्म करना, पर उसका गर्व न करना'।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (मह्यम्) मदर्थ मां द्योतयितुम् (त्वष्टा-आयसं वज्रम् अतक्षत्) सूर्यः “त्वष्टारं छेदनकर्तारं सूर्यम्” [यजु० २२।९ दयानन्दः] तेजोमयं ज्योतिर्मयम् “आयसं तेजोमयम्” [ऋ० १।८०।११२ दयानन्दः] वज्रमोजो बलं करोति “तक्षति करोतिकर्मा” [निरु० ४।१९] (मयि) मदर्थं (देवासः-क्रतुम्-अपि-अवृजन्) मुमुक्षवः कर्माध्यात्मकर्मध्यानं समर्पयन्ति (मम-अनीकं सूर्यस्य-इव दुष्टरम्) मम बलं तेजोबलं सूर्यस्य यथा तीक्ष्णतरं भवति तद्वत् (कृतेन कर्त्वेन च माम्-आर्यन्ति) कृतेनाथ कर्त्तव्येन करिष्यमाणेन च मां प्राप्नुवन्ति फलाय ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    For me, Tvashta, formative faculty of divine nature, creates the thunderbolt of steel. For me, the divinities of nature and humanity perform their tasks and surrender them unto me. My blazing power is insurmountable like the sun’s, and all actions past, present and future in nature or humanity must come to me for effectual fulfilment.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सूर्य आपल्या प्रकाशाद्वारे परमेश्वराला प्रदर्शित करतो. मुमुक्षू जन स्तुती-प्रार्थना-उपासना ईश्वराला समर्पित करतात व कर्म करणारी माणसे फल प्राप्त करण्यासाठी परमात्म्याच्या अधीन असतात. ॥३॥

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