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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 48 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 48/ मन्त्र 9
    ऋषिः - इन्द्रो वैकुण्ठः देवता - इन्द्रो वैकुण्ठः छन्दः - स्वराडार्चीजगती स्वरः - निषादः

    प्र मे॒ नमी॑ सा॒प्य इ॒षे भु॒जे भू॒द्गवा॒मेषे॑ स॒ख्या कृ॑णुत द्वि॒ता । दि॒द्युं यद॑स्य समि॒थेषु॑ मं॒हय॒मादिदे॑नं॒ शंस्य॑मु॒क्थ्यं॑ करम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । मे॒ । नमी॑ । सा॒प्यः । इ॒षे । भु॒जे । भू॒त् । गवा॑म् । एषे॑ । स॒ख्या । कृ॒णु॒त॒ । द्वि॒ता । दि॒द्युम् । यत् । अ॒स्य॒ । स॒मि॒थेषु॑ । मं॒हय॑म् । आत् । इत् । ए॒न॒म् । शंस्य॑म् । उ॒क्थ्य॑म् । क॒र॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र मे नमी साप्य इषे भुजे भूद्गवामेषे सख्या कृणुत द्विता । दिद्युं यदस्य समिथेषु मंहयमादिदेनं शंस्यमुक्थ्यं करम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । मे । नमी । साप्यः । इषे । भुजे । भूत् । गवाम् । एषे । सख्या । कृणुत । द्विता । दिद्युम् । यत् । अस्य । समिथेषु । मंहयम् । आत् । इत् । एनम् । शंस्यम् । उक्थ्यम् । करम् ॥ १०.४८.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 48; मन्त्र » 9
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (मे नमी साप्यः-इषे भुजे प्रभूत्) मेरा स्तुति करनेवाला जीवन्मुक्त, मेरा ज्ञान होने पर मोक्षसुखभोग में समर्थ होता है (गवाम्-एषे द्विता सख्या कृणुत) स्तुतियों के समर्पण करने पर दो प्रकार की मित्रताएँ अर्थात् संसार में प्रवृत्त मोक्ष में होनेवाली को मेरे साथ सम्पादित करो (अस्य) इस जीवन्मुक्त स्तुति करनेवाले के (समिथेषु) काम क्रोध आदि के संघर्षस्थलों में (यत्-दिद्युं मंहयम्) जब भी ज्ञानप्रकाश मैं देता हूँ (आत्-इत्-एनं शंस्यम्-उक्थ्यं करम्) अनन्तर ही इस प्रशंसनीय-सर्वत्र मनुष्यों द्वारा स्तुत्य करता हूँ ॥९॥

    भावार्थ

    परमात्मा की स्तुति करनेवाला मोक्षसुख प्राप्त करने में समर्थ या अधिकारी बन जाता है तथा निरन्तर स्तुतियों के द्वारा परमात्मा की मित्रता को प्राप्त करता है, जिससे मोक्षसुख के साथ सांसारिक सच्चा सुख भी प्राप्त करता है और काम क्रोध आदि भीतरी शत्रु भी उसके नष्ट हो जाते हैं। परमात्मा द्वारा ज्ञानप्रकाश प्राप्त कर मनुष्यों में प्रसिद्धि प्राप्त करता है ॥९॥

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    विषय

    प्रभु के साथ मैत्रीभाव रखने का उपदेश।

    भावार्थ

    (मे) मेरे आगे (नमा) विनयशील पुरुष (साप्यः) समवाय बनाने में कुशल, संघ का हितैषी (इषे भुजे) अन्न बल को प्राप्त करने और भोगने के लिये और (गवाम् एषे) गौओं और वेदवाणियों को प्राप्त करने के लिये (प्र भूत्) खूब समर्थ होता है। हे विद्वान् पुरुष ! आप लोग भी (द्विता सख्या कृणुत) दो प्रकार की मित्रता किया करो। (यत्) जो मैं (अस्य समिथेषु) इसको संग्रामों के अवसर पर (दिद्युम् मंहयम्) शत्रुखण्डक बड़ा भारी बल वा शस्त्रास्त्र प्रदान करता हूं, (आत् इत् एनं शंस्यम् उक्थम् करम्) और अनन्तर इसको में अति स्तुत्य और प्रसिद्ध कर देता हूं। बल और यश दोनों के लिये मेरे से मित्रता करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    इन्द्रो वैकुण्ठ ऋषिः॥ देवता—इन्द्रो वैकुण्ठः॥ छन्द:- १, ३ पादनिचृज्जगती। २, ८ जगती। ४ निचृज्जगती। ५ विराड् जगती। ६, ९ आर्ची स्वराड् जगती। ७ विराट् त्रिष्टुप्। १०, ११ त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    नमी-साप्य

    पदार्थ

    [१] प्रभु कहते हैं कि (नमी) = नमन व उपासन की वृत्तिवाला (साप्यः) = [सप्= to worship] प्रभु का आश्रय व सेवन करनेवाला मे मेरे द्वारा इषे प्रेरणा देने के लिये तथा (भुजे) = पालन के लिये (प्र भूद्) = प्रकर्षेण होता है। जो भी प्रभु का उपासन व आश्रय करता है प्रभु उसे प्रेरणा तो प्राप्त कराते ही हैं, उसके योगक्षेम का भी ध्यान करते हैं । उस प्रेरणा से उस उपासक की अध्यात्म उन्नति होती है और भोजन से भौतिक उन्नति । इस प्रकार यह उपासक अभ्युदय व निःश्रेयस दोनों को सिद्ध करनेवाला होता है । [२] (गवाम्) = इन्द्रियों के (एषे) = समन्तात् प्रेरण में, अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों को विविध ज्ञानों की प्राप्ति में तथा कर्मेन्द्रियों को यज्ञादि कर्मों में व्यापृत करने पर यह उपासक (सख्या) = उस मित्र प्रभु के साथ (द्विता कृणुत) = दोनों प्रकार से उन्नति करता है । अभ्युदय व निःश्रेयस दोनों को यह प्राप्त करनेवाला होता है। अकर्मण्य मनुष्य को प्रभु की सहायता नहीं प्राप्त होती । [३] प्रभु कहते हैं कि (यत्) = जब अस्य इस पुरुष को (समिथेषु) संग्रामों में (दिद्युम्) = ज्ञान- ज्योति रूप वज्र को (मंहयम्) = प्राप्त कराता हूँ [मंहतेर्दानकर्मणः] आत् (इत् एनम्) = तो इसे शीघ्र ही (शंस्यम्) = प्रशंसनीय जीवनवाला तथा (उक्थ्यम्) = स्तुति करनेवालों में उत्तम (करम्) = बनाता हूँ । प्रभु से ज्ञान को प्राप्त करके उपासक प्रभु का स्मरण करता है और प्रभु स्मरणपूर्वक उत्तम कर्मों को करनेवाला बनकर प्रशंसनीय होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम नमन व प्रभु का आश्रयण करनेवाले बनें। प्रभु हमें उत्तम प्रेरणा देंगे, हमारे योगक्षेम को सिद्ध करेंगे। प्रभु से ज्ञान वज्र को प्राप्त करके हम प्रशंसनीय जीवनवाले स्तोता बनें ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (मे नमी साप्यः-इषे भुजे प्रभूत्) मम नमते स्तौतीति नमी “सप्तनामा सप्तैनमृषयः स्तुवन्ति” [निरु० ४।२७] कर्मान्तकारी जीवन्मुक्तः “साप्यम्-कर्मान्तकारिणम्” [ऋ० ६।२०।६ दयानन्दः] मदीये ज्ञाने मोक्षसुखभोगे प्रभवति (गवाम्-एषे द्विता सख्या कृणुत) वाचां स्तुतीनामेषणे-प्रेषणे सति द्वितानि द्विविधानि सख्यानि ऐहिकानि संसारे प्रवृत्तानि मोक्षभवानि च कुरुत सम्पादयत (अस्य) स्तोतुर्जीवन्मुक्तस्य (समिथेषु) संग्रामेषु “समिथे सङ्ग्रामनाम” [निघ० २।१७] कामक्रोधादिविषयकेषु (यत्-दिद्युं मंहयम्) यत्खलु ज्ञानप्रकाशकमहं ददामि (आत्-इत्-एनं शंस्यम्-उक्थ्यं करम्) अनन्तरं हि-एतं प्रशंसनीयं सर्वत्र जनैर्वचनीयं स्तुत्यं करोमि ॥९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    My celebrant is worthy of love and honour, because he is for sustenance, enjoyment and procurement of knowledge for society. He is loved and honoured for two reasons: for friendship and for enlightenment. And when I have given him the light in abundance in the battles of life, only then I raise him to the position of praise and celebration.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म्याची स्तुती करणारा मोक्षसुख प्रापत करण्यात समर्थ किंवा अधिकारी बनतो व निरंतर प्रशंसेद्वारे परमात्म्याशी मैत्री करतो. ज्यामुळे मोक्षसुखाबरोबर सांसारिक खरे सुखही प्राप्त करतो. काम, क्रोध इत्यादी आंतरिक शत्रूही नष्ट होतात. परमात्म्याबरोबर ज्ञानप्रकाश प्राप्त करून तो माणसांमध्ये प्रसिद्ध होतो. ॥९॥

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