ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 48/ मन्त्र 4
ऋषिः - इन्द्रो वैकुण्ठः
देवता - इन्द्रो वैकुण्ठः
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
अ॒हमे॒तं ग॒व्यय॒मश्व्यं॑ प॒शुं पु॑री॒षिणं॒ साय॑केना हिर॒ण्यय॑म् । पु॒रू स॒हस्रा॒ नि शि॑शामि दा॒शुषे॒ यन्मा॒ सोमा॑स उ॒क्थिनो॒ अम॑न्दिषुः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒हम् । ए॒तम् । ग॒व्यय॑म् । अश्व्य॑म् । प॒शुम् । पु॒री॒षिण॑म् । साय॑केन । हि॒र॒ण्यय॑म् । पु॒रु । स॒हस्रा॑ । नि । शि॒शा॒मि॒ । दा॒शुषे॑ । यत् । मा॒ । सोमा॑सः । उ॒क्थिनः॑ । अम॑न्दिषुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अहमेतं गव्ययमश्व्यं पशुं पुरीषिणं सायकेना हिरण्ययम् । पुरू सहस्रा नि शिशामि दाशुषे यन्मा सोमास उक्थिनो अमन्दिषुः ॥
स्वर रहित पद पाठअहम् । एतम् । गव्ययम् । अश्व्यम् । पशुम् । पुरीषिणम् । सायकेन । हिरण्ययम् । पुरु । सहस्रा । नि । शिशामि । दाशुषे । यत् । मा । सोमासः । उक्थिनः । अमन्दिषुः ॥ १०.४८.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 48; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अहम्) मैं परमात्मा (एतं गव्ययम्-अश्व्यं पुरीषिणं पशुम्) इन्द्रियों में साधु, व्यापनशील मन में साधु-कुशल प्राणवान् द्रष्टा आत्मा को (सायकेन) पाप का अन्त करनेवाले (हिरण्ययम्) ज्ञानमय तेज से (पुरुसहस्रा) अतीव सहस्रगुणित धनलाभों को (नि शिशामि) निरन्तर देता हूँ (दाशुषे) आत्मसमर्पण करनेवाले के लिए (यत्) जो (मा) मेरे प्रति (उक्थिनः सोमासः-अमन्दिषुः) स्तुतिवाणीवाले के-स्तोता के उपासनारस हर्षित करते हैं ॥४॥
भावार्थ
इन्द्रियसंयमी मनोनिरोधक सावधान आत्मा के प्रति परमात्मा पापनाशक अपने तेज से सहस्रगुणित धनलाभ देता है तथा स्तुति करनेवाले उपासक के उपासनारसों से हर्षित होकर भी वह उन्हें धनलाभ देता है ॥४॥
विषय
आत्मा का ज्ञान-दाता, उद्धारक प्रभु।
भावार्थ
(यत्) जब (उक्थिनः सोमासः) उक्थ अर्थात् वेद-वचन को जानने वाले वीर्यवान्, उत्तम उपदेष्टा विद्वान् ब्रह्मचारी पुरुष (मा) मुझको (अमन्दिषुः) प्रसन्न करते, मुझ से प्रार्थना करते हैं तब मैं (पुरु सहस्रा) अनेक सहस्रों ऐश्वर्य (दाशुषे नि शिशामि) दानशील आत्मसमर्पक के लाभार्थ प्रदान करता हूँ। और (अहम्) मैं (एतं) इस (गव्ययम्) वाणियों, ज्ञानेन्द्रियों के स्वामी, वा स्वयं भोक्ता रूप, (पुरीषिणं) नाना ऐश्वर्यों के स्वामी रूप, (हिरण्ययम्) सुवर्णवत् उज्ज्वल तेज स्वरूप (पशुं) द्रष्टा आत्मा को (सायकेन) बाण के समान तीक्ष्ण, अज्ञान का अन्त कर देने वाले ज्ञान से युक्त करता हूँ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
इन्द्रो वैकुण्ठ ऋषिः॥ देवता—इन्द्रो वैकुण्ठः॥ छन्द:- १, ३ पादनिचृज्जगती। २, ८ जगती। ४ निचृज्जगती। ५ विराड् जगती। ६, ९ आर्ची स्वराड् जगती। ७ विराट् त्रिष्टुप्। १०, ११ त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
सोमासः उक्थिनः [ सौम्य स्तोता ]
पदार्थ
[१] (अहम्) = मैं (एतम्) = इस (पशुम्) = प्राणी को, जो प्रारम्भ में पशुओं के समान ही है, इस पशु-तुल्य मनुष्य को (सायकेन) = [षोऽन्तकर्माणि] वासनाओं का अन्त करने के द्वारा (गव्यम्) = उत्तम ज्ञानेन्द्रियोंवाला [गौ:- ज्ञानेन्द्रिय], (अश्वयम्) = उत्तम कर्मेन्द्रियोंवाला, (पुरीषिणम्) = रेतस् के रूप से शरीर में रहनेवाले जलवाला, (हिरण्यम्) = ज्योतिर्मय - ज्ञान की ज्योतिवाला करता हूँ। प्रभु के उपासन से पूर्व पुरुष एक पशु की तरह ही होता है । उपासना उसकी [क] ज्ञानेन्द्रियों को उत्तम बनाती है, [ख] कर्मेन्द्रियों को सशक्त करती है, [ग] उसको शरीर में रेतस् की ऊर्ध्वगति के लिये समर्थ करती है और [घ] उसकी ज्ञान ज्योति को बढ़ाती है। इस प्रकार यह पशु-स्थिति से ऊपर उठकर उत्तम मनुष्य बनता हुआ देव कोटि में प्रवेश करता है। [२] यह देव प्रभु के प्रति अपना अर्पण करता है, इसी से यह 'दाश्वान्' कहलाता है। इस (दाशुषे) = प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाले के लिये (पुरु सहस्त्रा) = शरीर का पालन व पूरण करनेवाले [पुरु= पृ] शतशः अवयवों को (निशिशामि) = तीव्र शक्तिवाला करता हूँ । इस प्रभु भक्त के सब अंग अपना-अपना कार्य करने में पूर्ण समर्थ होते हैं, इसका शरीर विकारों से रहित होता है। प्रत्येक अंग सुसंस्कृत होता है। [३] यह सब होना तभी है (यत्) = जब कि (सोमासः) = सोम का शरीर में रक्षण करनेवाले (उक्थिनः) = स्तोत्रों का उच्चारण करनेवाले लोग (मा) = मुझे (अमन्दिषुः) = प्रसन्न करते हैं । वस्तुतः जैसे पुत्र वही है जो अपने सुचरितों से पिता को प्रीणित करे, इसी प्रकार प्रभु का प्रिय वही है जो [क] सोम शक्ति का रक्षण करके सौम्य स्वभाववाला बनता है तथा वाणी से प्रभु के स्तोत्रों का ही उच्चारण करता है । उसकी वाणी व्यर्थ के शब्दों का उच्चारण नहीं करती।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु की उपासना हमें पशु से देव बना देती है। इससे हमारा एक-एक अंग निर्विकार हो जाता है ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अहम्) अहं परमात्मा (एतं गव्ययम्-अश्व्यं पुरीषिणं पशुम्) एतं गोषु-इन्द्रियेषु साधुं तथाश्वे व्यापनशीले मनसि साधुं कुशलं पुरीषवन्तं प्राणवन्तम् “स एष प्राण एव यत्पुरीषम्” [श० ८।७।३।६] द्रष्टारमात्मानम् (सायकेन) पापस्यान्तकारकेण “स्यन्ति क्षयन्ति येन” [ऋ० १।८४।११ दयानन्दः] (हिरण्ययम्) हिरण्ययेन ज्ञानमयेन तेजसा ‘विभक्तिव्यत्ययः’ (पुरुसहस्रा) अतीव सहस्रगुणितधनलाभान् (निशिशामि) नितरां निरन्तरं वा ददामि “शिशीति दानकर्मा” [निरु० ५।२३] (दाशुषे) आत्मसमर्पणं कृतवते (यत्) यतः (मा) माम् (उक्थिनः सोमासः-अमन्दिषुः) तस्य स्तुतिवाग्वतः-उपासनारसा मोदयन्ति हर्षयन्ति ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
When men of soma peace and piety chant hymns of praise in gratitude to cosmic divinity, it pleases me, and this man of perceptive senses, thinking mind, penetrative vision, energetic character and a golden heart, I vest with the abundance of a thousand capacities and capabilities of refinement for rooting out sin and evil.
मराठी (1)
भावार्थ
इंद्रियसंयमी मनोनिरोधक सावधान आत्म्यासाठी परमात्मा पापनाशक तेजाने सहस्रगुणित धनलाभ करून देतो व स्तुती करणाऱ्या उपासकाच्या उपासनारसांनी हर्षित होऊनही तो त्यांना धनलाभ करून देतो. ॥४॥
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