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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 48 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 48/ मन्त्र 7
    ऋषिः - इन्द्रो वैकुण्ठः देवता - इन्द्रो वैकुण्ठः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒भी॒३॒॑दमेक॒मेको॑ अस्मि नि॒ष्षाळ॒भी द्वा किमु॒ त्रय॑: करन्ति । खले॒ न प॒र्षान्प्रति॑ हन्मि॒ भूरि॒ किं मा॑ निन्दन्ति॒ शत्र॑वोऽनि॒न्द्राः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । इ॒दम् । एक॑म् । एकः॑ । अ॒स्मि॒ । नि॒ष्षाट् । अ॒भि । द्वा । किम् । ऊँ॒ इति॑ । त्रयः॑ । क॒र॒न्ति॒ । खले॑ । न । प॒र्षान् । प्रति॑ । ह॒न्मि॒ । भूरि॑ । किम् । मा॒ । नि॒न्द॒न्ति॒ । शत्र॑वः । अ॒नि॒न्द्राः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभी३दमेकमेको अस्मि निष्षाळभी द्वा किमु त्रय: करन्ति । खले न पर्षान्प्रति हन्मि भूरि किं मा निन्दन्ति शत्रवोऽनिन्द्राः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । इदम् । एकम् । एकः । अस्मि । निष्षाट् । अभि । द्वा । किम् । ऊँ इति । त्रयः । करन्ति । खले । न । पर्षान् । प्रति । हन्मि । भूरि । किम् । मा । निन्दन्ति । शत्रवः । अनिन्द्राः ॥ १०.४८.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 48; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (एकः-निष्षाट्-इदम्-अस्मि) यद्यपि मैं अभिभूत करनेवाला परमात्मा अकेला हूँ, तथापि (एकम्-अभि) एक निन्दक या नास्तिक वर्ग को भी अभिभूत करता हूँ-अपने अधीन करके दण्ड देता हूँ (द्वा-अभि) दो वर्गों को भी दण्ड दे देता हूँ यद्वा (त्रयः किम्-उ करन्ति) अथवा तीन नास्तिक वर्ग भी क्या कर सकते हैं-क्या करेंगे ? उनको भी मैं अभिभूत करता हूँ, दण्ड देता हूँ (खले न पर्षान् भूरि प्रतिहन्मि) जैसे संग्राम में उसके भर देनेवाले योद्धाओं को हनन किया जाता है, ऐसे नास्तिकों-निन्दकों का हनन करता हूँ अथवा खलिहान में जैसे गाहे जाते हुए पूलों का विदारण किया जाता है, ऐसे विदारण करता हूँ (अनिन्द्राः शत्रवः किं मा निन्दन्ति) वे जो मुझ इन्द्र को-ऐश्वर्यवाले परमात्मा को जो नहीं जानते और मानते, ऐसे नास्तिक-शत्रु-विरोधी मेरी क्यों निन्दा करते हैं, अतः वे दण्डभागी होंगे ॥७॥

    भावार्थ

    परमात्मा एक है, परन्तु वह अकेला भी अनेक या बहुतेरे निन्दकों नास्तिकों-पापियों के वर्गों को दण्ड दे सकता है, जैसे संग्रामस्थल में सैनिक हताहत कर दिये जाते हैं या जैसे खलिहान में अन्नपूलों को चूर-चूर कर दिया जाता है, ऐसे ही परमात्मा उन वर्गों को चूर-चूर देता है। वे निन्दक या नास्तिक परमात्मा का कुछ नहीं बिगाड़ सकते हैं ॥७॥

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    विषय

    सर्वोपरि शक्तिशाली प्रभु।

    भावार्थ

    मैं (निः-षाट्) शत्रुओं को सर्वथा पराजित करने वाला (इदम् एकः एकम् अभि अस्मि) अकेला ही यह, एक के प्रति एक, पराजित करने में समर्थ हूँ। (एकम् माम् अभि) अकेले के प्रति (द्वा किमु त्रयः करिष्यन्ति) दो या तीन भी क्या कर सकेंगे ? मैं (पर्षान्) कठोर शत्रुओं को (खलेन) खलिहान में पड़े सूखे जो गेहूं के पौदों के समान (भूरि प्रतिहन्मि) बहुतों को मुकाबले पर बहुत ताड़ित करूं। (अनिन्द्राः) ऐश्वर्यहीन, शत्रुनाशक स्वामी वा दृढ़ नायक से रहित (शत्रवः) शत्रु लोग (मा किं निन्दन्ति) मेरी क्या निन्दा करते हैं ?

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    इन्द्रो वैकुण्ठ ऋषिः॥ देवता—इन्द्रो वैकुण्ठः॥ छन्द:- १, ३ पादनिचृज्जगती। २, ८ जगती। ४ निचृज्जगती। ५ विराड् जगती। ६, ९ आर्ची स्वराड् जगती। ७ विराट् त्रिष्टुप्। १०, ११ त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    काम-क्रोध व लोभ

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार प्रभु की शक्ति से शक्ति सम्पन्न होकर के (इन्द्र) = जीवात्मा कहता है कि (एकम्) = इस शत्रुओं के मुखिया अकेले काम को तो (इत्) = निश्चय से (एक:) = अकेला ही मैं (अभि अस्मि) = [भवामि ] अभिभूत कर लेता हूँ । (निष्षाट्) = मैं इसका पूर्णरूप से पराभव करनेवाला हूँ। [२] इस काम के साथ यदि क्रोध आ जाता है तो (द्वा) = इन दोनों को भी अभी मैं अभिभूत करता हूँ। (उ) = और ठीक बात तो यह है कि इन दो के साथ लोभ भी आ जाता है तो (त्रयः) = ये तीन भी (किं करन्ति) = मेरा क्या बिगाड़ पाते हैं। मैं इन तीनों का भी समाप्त करनेवाला होता हूँ। और भूरि प्रति (हन्मि) = एक-एक को खूब ही मार डालता हूँ। उसी प्रकार इन्हें पीस डालता हूँ (न) = जैसे कि (खले) = अन्न को भूसे से पृथक् करनेवाले फर्श पर (पर्षान्) = अन्न को पूलियों को [ पार्सल्स को] । उस फर्श पर अन्न की पूलियों को डालकर बैलों से उनका गाहना होता है । उन बैलों के पाँव तले वे सब पिस-पिसा जाती हैं, अन्न व भूसा अलग-अलग हो जाता है। इसी प्रकार इन काम-क्रोध-लोभ रूप शत्रुओं को भी मैं पीस डालता हूँ। [३] ये (अनिन्द्रा:) = [ इन्द् to be fowerful] अशक्त (शत्रवः) = कामादि शत्रु (किं मां विन्दन्ति) = क्या मेरी निन्दा कर सकते हैं ? प्रभु की शक्ति से शक्ति-सम्पन्न बने हुए मुझे ये पराभूत नहीं कर सकते। इन नरक के द्वारभूत 'काम- क्रोध-लोभ' को समाप्त करके मैं अपने जीवन को स्वर्गोपम बना पाता हूँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु की शक्ति से शक्ति सम्पन्न होकर मैं कामादि का विनाश करनेवाला होता हूँ ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (एकः-निष्षाट्-इदम्-अस्मि) यद्यपि खलु निष्षहमानः परमात्माऽहमेकोऽस्मि, “इदं वाक्यालङ्कारे” तथापि (एकम्-अभि) एकं वर्गं निन्दकं नास्तिकमभिभवामि-स्वाधीनीकृत्य दण्डयामि (द्वा-अभि) द्वौ वर्गौ दण्डयामि यद्वा (त्रयः किम्-उ करन्ति) यद्वा त्रयो नास्तिकवर्गा अपि किं हि कुर्वन्ति-करिष्यन्ति, तानपि खल्वभिभवामि-दण्डयामि (खले न पर्षान् भूरि प्रति हन्ति) संग्रामे “खले संग्रामनाम” [निघ० २।१७] तस्य पूरकान् संग्रामकारिण इव निन्दकाय नास्तिकान् यद्वा खले शस्यसञ्चयस्थाने गाह्यमाने पूलकानिव भूरि-अतिशयेन बहून् वा प्रतिहन्ति विदारयामि (अनिन्द्राः शत्रवः किं मा निन्दन्ति) ये खल्विन्द्रं न विदुः, इन्द्रमैश्वर्यवन्तं न जानन्ति मन्यन्ते नास्तिकाः शत्रवः-विरोधिनः किम्-कथं मां ते निन्दन्ति, दण्डभागिनो भविष्यन्ति ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I am one, the absolute without a second. I am destroyer of the enemies who do not recognise me, Indra, centrality of the system. Those who challenge me, I destroy, whether it is one or two or three. I crush them all as sheaves of com on the threshing floor. It is a pity they revile me.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा एक आहे; परंतु तो एकटाच अनेकांना किंवा पुष्कळ निंदक नास्तिकांना, पापी लोकांना दंड देऊ शकतो. जसे युद्धात सैनिक हताहत होतात किंवा खळ्यामध्ये धान्याची मळणी होते, तसेच परमात्मा अशा लोकांना नष्टभ्रष्ट करतो. निंदक किंवा नास्तिक परमात्म्याचे काही बिघडवू शकत नाहीत. ॥७॥

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