ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 52/ मन्त्र 3
अ॒यं यो होता॒ किरु॒ स य॒मस्य॒ कमप्यू॑हे॒ यत्स॑म॒ञ्जन्ति॑ दे॒वाः । अह॑रहर्जायते मा॒सिमा॒स्यथा॑ दे॒वा द॑धिरे हव्य॒वाह॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । यः । होता॑ । किः । ऊँ॒ इति॑ । सः । य॒मस्य॑ । कम् । अपि॑ । ऊ॒हे॒ । यत् । स॒म्ऽअ॒ञ्जन्ति॑ । दे॒वाः । अहः॑ऽअहः । जा॒य॒ते॒ । मा॒सिऽमा॒सि । अथ॑ । दे॒वाः । द॒धि॒रे॒ । ह॒व्य॒ऽवाह॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं यो होता किरु स यमस्य कमप्यूहे यत्समञ्जन्ति देवाः । अहरहर्जायते मासिमास्यथा देवा दधिरे हव्यवाहम् ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । यः । होता । किः । ऊँ इति । सः । यमस्य । कम् । अपि । ऊहे । यत् । सम्ऽअञ्जन्ति । देवाः । अहःऽअहः । जायते । मासिऽमासि । अथ । देवाः । दधिरे । हव्यऽवाहम् ॥ १०.५२.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 52; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अयं यः-होता किः-उ सः) यह जो ज्ञान का ग्रहण करनेवाला किस प्रकार का है, कैसा है, उत्तर में कहा जाता है (यमस्य कम्-अपि-ऊहे) मैं आत्मा कर्मफल के नियन्ता के ज्ञानविषय को वहन करता हूँ (यत्) जिससे (देवाः समञ्जन्ति) विद्वान् जिसको अपने में संयुक्त करते हैं (अहः-अहः-अथ मासि मासि जायते) जो दिन-दिन अर्थात् प्रतिदिन अथवा मास-मास-प्रतिमास प्रसिद्ध होता है, ज्ञानप्रकाश से पूर्ण होता है, जैसे-प्रतिदिन सूर्य प्रकाश से पूर्ण प्रकट होता है और चन्द्रमा प्रतिमास प्रकाश से पूर्ण होता है (देवाः-हव्यवाहं दधिरे) जब कि विद्वान् आदातव्य ज्ञान के वहनशील मुझ चेतन आत्मा को अपनी शरण में धारण करते हैं-स्वीकार करते हैं ॥३॥
भावार्थ
आत्मा ज्ञान का ग्रहण करनेवाला चेतन पदार्थ है। कर्मानुसार फल को प्राप्त करता है। यह ज्ञान द्वारा ज्ञानप्रकाश से प्रकाशवान् होता जाता है। सूर्य और चन्द्रमा की भाँति इसका ज्ञानप्रकाश इसे प्रसिद्ध करता है, जब कि यह विद्वानों की संगति में रहकर ज्ञानग्रहण करता चला जाये ॥३॥
विषय
सूर्य चन्द्र के तुल्य ज्ञानदाता गुरु और ज्ञानार्थी शिष्यों का सम्बन्ध। प्रतिमास चन्द्र में प्रकाशवत् विद्यार्थीगण में ज्ञानप्रकाश का धारण।
भावार्थ
(अयम्) यह (यः) जो (होता) ज्ञान को गुरु से ग्रहण करता है (किः उ सः) वह भला किस प्रकार का हो ? उसकी कैसी स्थिति होनी उचित है ? (देवाः यत् सम् अञ्जन्ति) देव विद्वान्गण उसको जो कुछ भी ज्ञान प्रकाशित करते हैं उससे (सः) वह (यमस्य) उस महान् नियन्ता प्रभु वा गुरु के (कम् अपि ऊहे) महान् सामर्थ्य के कुछ अंश को ही तर्क द्वारा जान पाता है। यह दशा शिष्य वा जिज्ञासु की सूर्य-चन्द्रवत् है। जैसे सूर्य (अहः अहः जायते) प्रतिदिन खूब उज्ज्वल रूप में प्रकट होता है, (अथ) और (देवाः) सूर्य के प्रकाशक किरण (मासि-मासि) चन्द्रमा में मास २ में (हव्य-वाहम् दधिरे) प्रकाशमय तेज को धारण कराते हैं, उसी प्रकार वह परमेश्वर वा गुरु सूर्य के समान अपार ज्ञानमय है परन्तु देव, विद्वान्गण वा इन्द्रियादि प्राणगण (मासि मासि) प्रत्येक जिज्ञासु में (हव्य-वाहम्) ग्रहण करने योग्य ज्ञान के धारक तेजोमय अग्नि को धारण कराते हैं, नया जीवन प्रदान करते हैं, उसे ज्ञानधारण में समर्थ करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्निः सौचीक ऋषिः। देवा देवताः॥ छन्द:- १ त्रिष्टुप्। २–४ निचृत् त्रिष्टुप्। ५, ६ विराट् त्रिष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥
विषय
'हव्यवाह' प्रभु
पदार्थ
[१] (अयम्) = यह (यः) = जो (होता) = सब पदार्थों को देनेवाला प्रभु है (स) = वह (उ) = निश्चय से (यमस्य) = संयमी पुरुष का ही (किः) = [कृ= to fill with ] धनों से भरनेवाला है । (यत्) = जब (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (समञ्जन्ति) = अपने जीवनों को सद्गुणों से अलंकृत करते हैं तो ये होता प्रभु ही (कम्) = आनन्द को (अपि) = भी (ऊहे) = प्राप्त कराते हैं । देवों को, देववृत्तिवाले पुरुषों को, प्रभु कृपा से आनन्द की प्राप्ति होती है । [२] वह प्रभु (अहरहः) = प्रतिदिन जायते प्रकट होते हैं, प्रतिदिन प्रादुर्भूत होनेवाले सूर्य में प्रभु की महिमा दिखती है । और (मासि मासि) = प्रत्येक मास में अथवा [मास् moon] चन्द्रमा में वे प्रभु प्रकट होते हैं। दिन का देवता सूर्य है, दिन का निर्माण इस सूर्य पर ही निर्भर करता है, इस सूर्य में तो वे प्रभु दिखते ही हैं। महीनों को बनानेवाले इस चन्द्रमा में भी वे प्रभु प्रकट होते हैं। (अथ) = इस प्रकार पूर्णरूप से (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (हव्यवाहम्) = हव्यों को प्राप्त करानेवाले प्रभु को (दधिरे) = धारण करते हैं। प्रभु का हृदय में ध्यान करते हैं, दिन में सूर्य- दर्शन उन्हें प्रभु का स्मरण कराता है तो रात्रि में चन्द्रमा उन्हें प्रभु प्रवण करनेवाला होता है। वे देव यही अनुभव करते हैं कि जो प्रभु सूर्य को दीप्ति देते हैं, जो चन्द्रमा को ज्योत्स्ना प्राप्त कराते हैं, वे ही प्रभु हमें भी सब हव्य पदार्थों व आनन्द को देनेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु संयमी पुरुष को सब आवश्यक धन प्राप्त कराके उसके जीवन को आनन्दमय करते हैं।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अयं यः होता किः उ सः) एष यो ज्ञानस्यादाता कः किञ्जातीयः स, इति प्रश्नः, ‘किम् शब्दात् सु स्थाने डिस् छान्दसः’, अथ-उत्तरम् (यमस्य कम्-अपि ऊहे) अहं देही-आत्मा कर्मफलस्य नियन्तुर्ज्ञानविषयं वहामि (यत्) यतः (देवः समञ्जन्ति) विद्वांसो यं सर्वं स्वस्मिन् संयोजयन्ति (अहः-अहः-अथ मासि मासि आयते) दिनं दिनं प्रतिदिनम्-अथवा मासे मासे जायते ज्ञानप्रकाशेन पूर्णः, यथा प्रतिदिनं सूर्यः प्रकाशेन पूर्णो जायते, चन्द्रमाश्च मासे मासे प्रतिमासं प्रकाशेन पूर्णः (देवाः-हव्यवाहं दधिरे) विद्वांसो यदा-आदातव्यस्य वहनशीलं चेतनमात्मानं मां स्वकीये शरणे धारयन्ति स्वीकुर्वन्ति ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Who is this hota, yajnic performer, who carries out any and all the powers and obligations of Yama, order and controller of the whole system, whom all the devas, brilliancies of the system, anoint, prepare and honour? He rises higher and higher day by day, month by month, and all the devas, divine powers, uphold and support him while he conducts the vital economy of the yajnic system.
मराठी (1)
भावार्थ
आत्मा ज्ञानाचे ग्रहण करणारा चेतन पदार्थ आहे. कर्मानुसार फल प्राप्त करतो. तो ज्ञानप्रकाशाने प्रकाशमान होतो. सूर्य व चंद्राप्रमाणे त्याचा ज्ञानप्रकाश त्याला प्रसिद्ध करतो. त्यासाठी विद्वानांच्या संगतीत राहून ज्ञान ग्रहण करावे. ॥३॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal