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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 52 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 52/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अग्निः सौचीकः देवता - देवाः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्रीणि॑ श॒ता त्री स॒हस्रा॑ण्य॒ग्निं त्रिं॒शच्च॑ दे॒वा नव॑ चासपर्यन् । औक्ष॑न्घृ॒तैरस्तृ॑णन्ब॒र्हिर॑स्मा॒ आदिद्धोता॑रं॒ न्य॑सादयन्त ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रीणि॑ । श॒ता । त्री । स॒हस्रा॑णि । अ॒ग्निम् । त्रिं॒शत् । च॒ । दे॒वाः । नव॑ । च॒ । अ॒स॒प॒र्य॒न् । औक्ष॑न् । घृ॒तैः । अस्तृ॑णन् । ब॒र्हिः । अ॒स्मै॒ । आत् । इत् । होता॑रम् । नि । अ॒सा॒द॒य॒न्त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रीणि शता त्री सहस्राण्यग्निं त्रिंशच्च देवा नव चासपर्यन् । औक्षन्घृतैरस्तृणन्बर्हिरस्मा आदिद्धोतारं न्यसादयन्त ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रीणि । शता । त्री । सहस्राणि । अग्निम् । त्रिंशत् । च । देवाः । नव । च । असपर्यन् । औक्षन् । घृतैः । अस्तृणन् । बर्हिः । अस्मै । आत् । इत् । होतारम् । नि । असादयन्त ॥ १०.५२.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 52; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 6
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (त्री सहस्राणि त्रीणि शता त्रिंशत् च नव च देवाः) तीन सहस्र तीन सौ तीस और नौ (३३३९) दिव्यशक्तियों या प्रधान नाडियाँ हैं अथवा बाहर के दिव्य पदार्थ हैं (असपर्यन्) वे आत्मा की परिचर्या करते हैं-परिरक्षण करते हैं (अस्मै घृतैः-औक्षन्-बर्हिः-अस्तृणन्) इस आत्मा के लिए तेजोमय सूक्ष्म रसों के द्वारा सिञ्चन करते हैं, बर्हणीय स्तर-फ़ैलाने योग्य स्तर को प्रसारित करते हैं (आत्-इत्-होतारं-न्यसादयन्त) अनन्तर रसादि के ग्रहण करनेवाले आत्मा को शरीर के अन्दर बिठाते हैं-स्थिर करते हैं ॥६॥

    भावार्थ

    तीन सहस्र तीन सौ उनतालीस शक्तियाँ, नाड़ियाँ या बाहरी दिव्य पदार्थ आत्मा की रक्षा करनेवाले हैं। भोजन के सूक्ष्म रसों के द्वारा आत्मा को तृप्त करते हैं। शरीर के अन्दर मांसादि के स्तर को फैलाते हैं-बढ़ाते हैं तथा आत्मा को स्थिर करते हैं ॥६॥

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    विषय

    यज्ञ में ३३३० देवों के तुल्य देह में ३३३० शक्तियों की प्राप्ति और यज्ञवत् जीवन यापन।

    भावार्थ

    (त्रीणि शता त्री सहस्राणि त्रिंशत् च) ३३३० [ तेतीस हज़ार तीन सौ तीस ] देवगण विजय के इच्छुक वीर (अग्निम्) सर्वाग्रणी की (असपर्यन) सेवा, करते हैं, उसकी सेवा में लगे हैं। वे (अस्मै) इसके लिये (बर्हिः अस्तृणन्) आसनवत् इस लोक प्रजाजन वा संघ को यज्ञ में कुशाओं के समान बिछा देते हैं। और उस अग्रणी को (घृतैः औक्षन्) जलों से अभिषेक करते हैं और (आत् इत्) अनन्तर उस (होतारम्) बल, वीर्य, ऐश्वर्य के ग्रहीता को (नि असादयन्त) नियम पूर्वक स्थापित करते हैं। इसी प्रकार इस बर्हिरूप देह में ३३३० दिव्य शक्तियां आत्मा को प्राप्त हैं जो उसको इस देह में स्थिर किये हैं। इति द्वादशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निः सौचीक ऋषिः। देवा देवताः॥ छन्द:- १ त्रिष्टुप्। २–४ निचृत् त्रिष्टुप्। ५, ६ विराट् त्रिष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    देवों द्वारा प्रभु-पूजन

    पदार्थ

    [१] (त्रीणि शता) = तीन सौ (त्री सहस्राणि) = तीन हजार (त्रिंशत् च) = और तीस (नव च) = और नौ, अर्थात् ३३३९ (देवाः) = देव (अग्निम्) = उस अग्रणी प्रभु को (असपर्यन्) = पूजते हैं। ब्रह्माण्ड में जितने देव हैं वे सब के सब शरीर में भी छोटे रूप में रहते हैं 'सर्वा ह्यस्मिन् देवता गावो गोष्ठ इवासते'। सब देवों के निवास के कारण पुरुष 'देव' ही बन जाता है। इन देवों के अन्दर स्थित सब देव उस प्रभु का पूजन करनेवाले होते हैं। इनकी आँखें [सूर्य] प्रकृति में प्रभु की महिमा को देखती हैं। कान [दिशाएँ] पक्षियों के कलरवों में प्रभु की महिमा के गायन को सुनते हैं । वाणी [= अग्नि] प्रभु के गुणों का गान करती है। शरीर के अंग-प्रत्यंगों में स्थित सब देव प्रभु का पूजन करते हैं। [२] (घृतैः) = मलों के क्षरण व ज्ञान की दीप्ति से वे देव (औक्षन्) = अपने को सिक्त करते हैं। (अस्या) = इस प्रभु के लिये (बर्हिः) = वासनाओं का जिसमें से उद्बर्हण कर दिया गया है ऐसे हृदय के आसन को (अस्तृणन्) = बिछाते हैं और (आत् इत्) = इसके ठीक बाद (होतारम्) = सब हव्य पदार्थों के देनेवाले प्रभु को (न्यसादयन्त) = इस हृदय के आसन पर बिठाते हैं। प्रभु-पूजन के लिये आवश्यक है कि - [क] शरीर को निर्मल व नीरोग बनाया जाए [ क्षरण], [ख] मस्तिष्क को ज्ञान से दीप्त किया जाए [दीप्ति], [ग] हृदय को वासना शून्य निर्मल किया जाए [बर्हिः ] स्वस्थ शरीर कर्मकाण्ड को ठीक से करेगा, दीप्त मस्तिष्क ज्ञानकाण्ड का धारण करेगा व निर्मल हृदय उपासनामय होगा ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु-पूजन के लिये शरीर मस्तिष्क व मन तीनों को ठीक करना होता है। वस्तुतः इस त्रिलोकी में स्थित सभी देव प्रभु का पूजन करते हैं [शरीर = पृथिवीलोक, हृदय = अन्तरिक्षलोक, मस्तिष्क= द्युलोक] । इन देवों से प्रभु-पूजन होने पर ही हम सच्चे देव बनते हैं । सूक्त के प्रारम्भ में कहा है कि देव प्रभु का होतृरूपेण वरण करते हैं, [१] समाप्ति पर भी यही कहते हैं कि देव इस होता प्रभु को हृदय में आसीन करते हैं, [२] देव प्रभु को देखते हुए कहते हैं कि-

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (त्री सहस्राणि त्रीणि शता त्रिंशत् च नव च देवाः) त्रीणि सहस्राणि त्रीणि शतानि त्रिंशत् नव च देवाः-दिव्यशक्तयः प्रधाननाडीतन्तवो वा यद्वा बाह्यदिव्या देवाः (असपर्यन्) परिचरन्ति परिरक्षन्ति (अस्मै घृतैः-औक्षन्-बर्हिः-अस्तृणन्) अस्मै-आत्मने घृतैः सूक्ष्मै रसैस्तेजोमयैः सिञ्चन्ति बर्हणीयं स्तरं प्रसारयन्ति (आत्-इत्-होतारं-न्यसादयन्त) अनन्तरं रसादेर्ग्रहीतारमात्मानं निसादयन्ति नियतं कुर्वन्ति ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Three thousand three hundred thirty and nine are the divinities that serve this yajaka, Agni, shower it with brightest ghrta and cover the vedi with holy grass, and they seat the high priest over the yajna of the cosmos, nature, society, and also the individual living soul.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    तीन सहस्र तीनशे एकोणचाळीस शक्ती, नाड्या किंवा बाहेरचे दिव्य पदार्थ आत्म्याचे रक्षण करणारे आहेत. भोजनाच्या सूक्ष्म रसाद्वारे आत्म्याला तृप्त करतात. शरीरातील मांस इत्यादींचे स्तर पसरवितात, वृद्धिंगत करतात व आत्म्याला स्थिर करतात. ॥६॥

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