ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 64/ मन्त्र 11
र॒ण्वः संदृ॑ष्टौ पितु॒माँ इ॑व॒ क्षयो॑ भ॒द्रा रु॒द्राणां॑ म॒रुता॒मुप॑स्तुतिः । गोभि॑: ष्याम य॒शसो॒ जने॒ष्वा सदा॑ देवास॒ इळ॑या सचेमहि ॥
स्वर सहित पद पाठर॒ण्वः । सम्ऽदृ॑ष्टौ । पि॒तु॒मान्ऽइ॑व । क्षयः॑ । भ॒द्रा । रु॒द्राणा॑म् । म॒रुता॑म् । उप॑ऽस्तुतिः । गोभिः॑ । स्या॒म॒ । य॒शसः॑ । जने॑षु । आ । सदा॑ । दे॒वा॒सः॒ । इळ॑या । स॒चे॒म॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
रण्वः संदृष्टौ पितुमाँ इव क्षयो भद्रा रुद्राणां मरुतामुपस्तुतिः । गोभि: ष्याम यशसो जनेष्वा सदा देवास इळया सचेमहि ॥
स्वर रहित पद पाठरण्वः । सम्ऽदृष्टौ । पितुमान्ऽइव । क्षयः । भद्रा । रुद्राणाम् । मरुताम् । उपऽस्तुतिः । गोभिः । स्याम । यशसः । जनेषु । आ । सदा । देवासः । इळया । सचेमहि ॥ १०.६४.११
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 64; मन्त्र » 11
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(रण्वः) वह रमणीय परमात्मा (सन्दृष्टौ) साक्षात् दर्शन में (पितुमान्-इव क्षयः) अन्नभोगवान् निवास के समान है-आनन्दभण्डार है (रुद्राणां मरुताम्) उपदेष्टा जीवन्मुक्त विद्वानों का (उपस्तुतिः) अनुमोदनरूप आशीर्वाद (भद्रा) कल्याणकारी है (जनेषु-गोभिः-यशसः-आ स्याम) मनुष्यों में हम वाणी द्वारा यशस्वी प्रसिद्ध होवें (देवासः) हे विद्वानों ! (सदा-इळया सचेमहि) सदा स्तुतिवाणी से सङ्गत होवें ॥११॥
भावार्थ
परमात्मा रमणीय आनन्दभण्डार है। वह जीवन्मुक्त विद्वानों की अनुमोदनीय कल्याणकारी आशा है। उसकी स्तुति द्वारा मनुष्यों में यश और प्रसिद्धि के पात्र बन जाते हैं ॥११॥
विषय
सम्पन्न गृहवत् सुखदायी प्रभु। उत्तम जनों का सुखदायी उपदेश। यशः-सम्पदा आदि की कामना।
भावार्थ
(सं-दृष्टौ) सम्यग् दर्शन होने पर वह परमेश्वर (पितुमान् क्षयः इव) अन्नादि से समृद्ध निवासगृह के समान (रण्वः) अति सुखदायी होता है। (रुद्राणां) दुःखों के दूर करने वाले और दुष्टों के रुलाने वा सबको उपदेश करने वाले मनुष्यों का (उप-स्तुतिः) उपदेश भी (भद्रा) अति कल्याणकारी होता है। हम लोग (जनेषु) मनुष्यों के बीच (गोभिः यशसः स्याम) वाणियों, भूमियों और पशु-सम्पदाओं से यशस्वी होवें। और हे (देवासः) उत्तम विद्वान् जनो ! हम (सदा) सदा (इषा सचेमहि) अन्न, भूमि और वाणी से सदा युक्त होवें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गयः प्लातः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:- १, ४, ५, ९, १०, १३, १५ निचृज्जगती। २, ३, ७, ८, ११ विराड् जगती। ६, १४ जगती। १२ त्रिष्टुप्। १६ निचृत् त्रिष्टुप्। १७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तदशर्चं सुक्तम्॥
विषय
गौवें व इडा से यशस्वी बनना
पदार्थ
[१] गत मन्त्र में पितृरूपेण वर्णित प्रभु (संदृष्टौ रण्वः) = संदर्शन में रमणीय हैं, अर्थात् योगमार्ग से चलता हुआ भक्त जब प्रभु का दर्शन करता है तो प्रभु को रमणीय ही रमणीय पाता है। प्रभु इस प्रकार रमणीय हैं (इव) = जैसे कि (पितुमान् क्षयः) = अन्न से परिपूर्ण घर रमणीय प्रतीत होता है। जिस घर में अन्नाभाव रूप दरिद्रता का निवास नहीं होता वह सुन्दर ही सुन्दर लगता है। प्रभु भी सुन्दर हैं, घर की सुन्दरता भौतिक दृष्टिकोण से भी तो प्रभु का सौन्दर्य आध्यात्मिक दृष्टिकोण को लिये हुए है। और वस्तुतः प्रभु ही भक्त के लिये अन्नपूर्ण निवास स्थान के समान हैं। प्रभु भक्त को खान-पान की कमी नहीं रहती, इन नित्याभियुक्त व्यक्तियों के योगक्षेम को वे प्रभु चलाते ही हैं। [२] इन प्रभु भक्तों के जीवन में (रुद्राणाम्) = रोगों का द्रावण करनेवाले [रुत्-रोग द्रु=भगाना] (महताम्) = प्राणों का (उपस्तुतिः) = स्तवन (भद्रा) = कल्याणकर होता है । ये प्राणसाधना में चलते हैं । प्राणायाम करते हुए अपने शरीर को मलों से रहित करके नीरोग बनाते हैं । [२] इस प्राणसाधना से इन्द्रियों के दोष दूर होकर इन्द्रियाँ अपने-अपने कार्य करने में सशक्त होती हैं। इन (गोभिः) = ज्ञान प्राप्ति में समर्थ इन्द्रियों से हम (जनेषु) = लोगों में (यशसः स्याम) = यशस्वी हों । और (देवासः) = हे देवो ! हम (सदा) = हमेशा (इडया) = वेदवाणी से (आ सचेमहि) = सब प्रकार से संगत हों। हमारी इन्द्रियाँ निर्दोष होने से दीप्त हों और इन ज्ञान की वाणियों को खूब ग्रहण करनेवाली हों। इन प्रशस्त इन्द्रियों के कारण और ज्ञान के कारण हमारा सर्वत्र यश हो ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु के संदर्शन में आनन्द ही आनन्द है । प्राणसाधना हमारा कल्याण करती है । इसी से हमारी इन्द्रियाँ प्रशस्त होती हैं और ज्ञान बढ़ता है।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(रण्वः) रमणीयः स परमात्मा (सन्दृष्टौ) साक्षाद्दर्शने (पितुमान्-इव क्षयः) अन्नभोगवानिव निवासोऽस्ति “पितुः-अन्नम्” [निघ० २।७] (रुद्राणां मरुताम्) विदुषाम् “रुद्राः-विद्वांसः” [यजु० ११।४८ दयानन्दः] उपदेष्टॄणां जीवन्मुक्तानाम् ”मरुतो ह वै देवविशः” [कौ० ७।८] (उपस्तुतिः) उपप्रशस्तिरनुमोदनाशीः (भद्रा) कल्याणकारिणी भवति (जनेषु-गोभिः-यशसः-आ स्याम) मनुष्येषु वयं वाग्भिर्विद्याभिर्यशस्विनः समन्तात्प्रसिद्धा भवेम (देवासः) हे विद्वांसः ! (सदा-इळया सचेमहि) सर्वदा वाचा “इळा वाङ्नाम” [निघ० १।११] सङ्गच्छेम ॥११॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The celebration of Maruts and Rudras, scholars of the science of health and pranic energies, is full of blessings, joyous and beatific to the celebrant’s vision like a haven of peace and total fulfilment. O divinities, we pray, may we always adore you with holy songs of celebration, enjoy your love and friendship and, blest with honour and wealth, live happy among the people of the world.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा रमणीय आनंदाचे भांडार आहे. तो जीवनमुक्त विद्वानांची कल्याणकारी आशा आहे. त्याची स्तुती करण्याने माणसे यश व प्रसिद्धीच्या योग्य बनतात. ॥११॥
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