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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 64 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 64/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गयः प्लातः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    दक्ष॑स्य वादिते॒ जन्म॑नि व्र॒ते राजा॑ना मि॒त्रावरु॒णा वि॑वाससि । अतू॑र्तपन्थाः पुरु॒रथो॑ अर्य॒मा स॒प्तहो॑ता॒ विषु॑रूपेषु॒ जन्म॑सु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दक्ष॑स्य । वा॒ । अ॒दि॒ते॒ । जन्म॑नि । व्र॒ते । राजा॑ना । मि॒त्रावरु॑णा । वि॒वा॒स॒सि॒ । अतू॑र्तऽपन्थाः । पु॒रु॒ऽरथः॑ । अ॒र्य॒मा । स॒प्तऽहो॑ता । विषु॑ऽरूपेषु । जन्म॑ऽसु ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दक्षस्य वादिते जन्मनि व्रते राजाना मित्रावरुणा विवाससि । अतूर्तपन्थाः पुरुरथो अर्यमा सप्तहोता विषुरूपेषु जन्मसु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दक्षस्य । वा । अदिते । जन्मनि । व्रते । राजाना । मित्रावरुणा । विवाससि । अतूर्तऽपन्थाः । पुरुऽरथः । अर्यमा । सप्तऽहोता । विषुऽरूपेषु । जन्मऽसु ॥ १०.६४.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 64; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अदिते) हे अनश्वर परमात्मन् ! (दक्षस्य) संसार के भोगपदार्थ जिसके लिए समृद्ध-सम्पन्न किये जाते हैं, उस आत्मा के (जन्मनि व्रते) जन्मरूप कर्म में-जन्म होने पर (राजाना मित्रावरुणा) शरीर में वर्तमान प्राण और अपानों को (विवाससि) विशिष्टतया प्रकट करता है-अपनाता है (अतूर्तपन्थाः) जो आत्मा तुरन्त शरीर में चेतना मार्ग फैलानेवाला है (पुरुरथः) बहुत रमण साधन मनवाला (अर्यमा) शरीर का स्वामी (सप्तहोता) सर्पणशील प्राणोंवाला (विषुरूपेषु जन्मसु) भिन्न-भिन्न रूपोंवाले जन्मों में-योनियों में प्रवर्तमान होता है, यह आध्यात्मिक अर्थ है ॥५॥ आधिदैविक दृष्टि से–(अदिते) हे प्रातः प्रकट होनेवाली उषा देवता ! (दक्षस्य जन्मनि) अपने जन्म-उदय के अवसर पर या सूर्य के जन्म-उदय के अवसर पर (व्रते) कर्म में (राजाना मित्रावरुणा) राजमान-प्रकट हुए दोनों दिन-रातों को (विवाससि) साथ सेवन करती है (अतूर्तपन्थाः) एकरस मार्गवाला अविचलित (पुरुरथः) बहुत रमणस्थान वाला-प्रायः सर्वत्र आकाश में रमण करनेवाला (सप्तहोता) सात रङ्ग की किरणोंवाला (अर्यमा) सूर्य (विषुरूपेषु जन्मसु) विषमरूप उदयप्रसङ्गों में वर्तमान रहता है ॥५॥

    भावार्थ

    परमात्मा के नियमानुसार कर्मफल भोगने के लिए सृष्टि के भोग्य पदार्थ चेतन तत्त्व जीवात्मा के लिए हैं, उनके भोगार्थ वह देहधारण करता है। देह में प्रथम श्वास-प्रश्वास का प्रचालन करता है, जिससे उसकी प्रतीति होती है। वह भिन्न-भिन्न विषयों में रमण साधन मन से युक्त होता है तथा समस्त शरीर में अपनी चेतना का प्रसार प्राणों द्वारा करता है। वह शरीर का स्वामी भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म पाता है। आकाश में जब उषा-पीतिमा रात्रि के पश्चात् प्रकट होती है और सूर्य उदय होने को होता है, तो दिनरात युगलरूप में उनसे सङ्गत हुए प्रतीत होते हैं। सूर्य अपनी सात रङ्ग की किरणों से आकाशमण्डल में प्रकाश फैलाता है और प्रतिदिन भिन्न-भिन्न स्थितियों में उदय होता रहता है ॥५॥

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    विषय

    राजा के तुल्य आत्मा का नाना देहों में विचरण और भोग्य फल प्राप्ति।

    भावार्थ

    हे (अदिते) कभी नाश न होने वाले ! (दक्षस्य) ज्ञान, क्रिया और उत्साह से युक्त तेरे (जन्मनि) जन्म होने पर (व्रते) अपने कर्म से (मित्रा वरुणौ) परस्पर स्नेही और वरण करने वाले स्त्री पुरुषों के तुल्य (राजाना) देह के राजावत् मुख्य प्राण और अपान दोनों को सूर्य चन्द्रवत् (आ विवाससि) प्रकट करता है। उनको कर्म में नियुक्त करता है। (अर्यमा) अरों को अपने से बांधने वाले, नाभिवत् गतिशील प्राणों और इन्द्रियों को संयम में रखने वाला, (अतूर्त-पन्थाः) अविच्छिन्न मार्ग से जाता हुआ, (पुरु-रथः) नाना इन्द्रियों में रमण या सुख भोग करता हुआ, महारथी के तुल्य, (सप्त-होता) सात ऋत्विजों के द्वारा यज्ञ के कर्त्ता यजमानवत् सातों प्राणों को धारण करने वाला होकर (विषु-रूपेषु जन्मसु आविवाससि) नाना प्रकार के जन्मों, देहों में जाता है। इति षष्ठो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गयः प्लातः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:- १, ४, ५, ९, १०, १३, १५ निचृज्जगती। २, ३, ७, ८, ११ विराड् जगती। ६, १४ जगती। १२ त्रिष्टुप्। १६ निचृत् त्रिष्टुप्। १७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तदशर्चं सुक्तम्॥

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    विषय

    अतूर्तपन्थाः

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार प्रभु-स्तवन के लिये उत्कण्ठित 'गय प्लात' से प्रभु कहते हैं कि (अदिते) = हे स्वास्थ्य के पुञ्ज । पूर्ण स्वस्थ पुरुष ! (दक्षस्य जन्मनि) = शक्ति व उन्नति के जन्म के निमित्त (व्रते) = व्रत के धारण करने पर तू (राजाना) = दीप्त (मित्रावरुणा) = प्राणापानों को (विवाससि) = पूजित करता है। प्रभु के स्तवन के लिये पहली आवश्यक बात तो यह है कि [क] हम स्वस्थ बनें [अदिति], [ख] दूसरी बात यह कि हम शक्ति को उत्पन्न करने के लिये यत्नशील हों, [ग] तीसरे स्थान पर युक्तचेष्ट होने का व्रत लें और प्राणसाधना रूप योग का अभ्यास करें। [२] इस अभ्यास के परिणामरूप हम (अतूर्तपन्थाः) = अहिंसित मार्गवाले हों [तुर्वी हिंसायाम्], अर्थात् जीवन में कभी मार्गभ्रष्ट न हों । (पुरुरथः) = उस शरीर रूप रथवाले हों जिसका कि रोगों से रक्षण किया जाता है और जिसमें से वासनाओं के आक्रमण से आजानेवाली कमियों का पूरण किया जाता है। (अर्यमा) = [अरीन् यच्छति] काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं का नियमन करता है। इन (विषुरूपेषु जन्मसु) = विविध रूपोंवाले विकासों के निमित्त (सप्तहोता) = 'कान, नासिका, आँखें व मुख' रूप सात होताओंवाला बन । 'कर्णविमौ नासिके चक्षणी मुखम् ' । ये कान आदि इन्द्रियाँ जब ज्ञान की आहुति देनेवाली बनेंगी तभी तो हमारे जीवन में विविध शक्तियों का विकास होगा । विविध विकासों के लिये इन सातों होताओं का ठीक से कार्य करना नितान्त आवश्यक है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम अपने इस जीवन में प्राणसाधना के द्वारा कान आदि इन्द्रियों को पवित्र व शक्ति-सम्पन्न बनाते हुए सब ['शरीर, मन व बुद्धि' के] विकासों के करनेवाले हों ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अदिते) हे अनश्वर परमात्मन् ! (दक्षस्य) दक्ष्यन्ते समृद्ध्यन्ते यस्मै पदार्थाः स आत्मा तस्य “अथ यदस्मै तत्समृद्ध्यते स दक्षः” [श० ४।१।४।१] (जन्मनि व्रते) जन्मनि कर्मणि (राजाना मित्रावरुणा) शरीरे वर्तमानौ प्राणापानौ “प्राणापानौ वै मित्रावरुणौ” [काठ० २९।१] (विवाससि) विशिष्टतया वासयसि प्रकटयसि (अतूर्तपन्थाः) य आत्मा अत्वरणपन्थाः-गम्भीरमार्गकः (पुरुरथः) बहुरमणसाधनः (अर्यमा) शरीरस्य स्वामी (सप्तहोता) सप्ताः तृप्ताः सर्पणशीलाः प्राणा यस्य तथाभूतः (विषुरूपेषु जन्मसु) भिन्नभिन्नरूपेषु जन्मसु प्रवर्तमानोऽस्तीत्यध्यात्मम् ॥५॥ अथ दैवतम्−(अदिते) हे प्रातस्तनि-उषो देवते ! (दक्षस्य जन्मनि) स्वजन्मनि सूर्यस्य जन्मनि वा (व्रते) कर्मणि (राजाना मित्रावरुणा) राजमानौ-अहोरात्रौ “अहोरात्रौ मित्रावरुणौ” [तां० २५।१०।१०] (विवाससि) परिचरसि सेवसे (अतूर्तपन्थाः) अत्वरमाणपन्थाः-एकरसमार्गकोऽतिचालितमार्गकः (पुरुरथः) बहूनां रमणस्थानः (अर्यमा) आदित्यः “अर्यमाऽऽदित्यः” [निरु० ११।२३] (सप्तहोता) सप्तवर्णका रश्मयो यस्य रसाहरणशीलाः सः (विषुरूपेषु जन्मसु) विषुरूपेषु खलु कर्मसूदयेषु “विषमरूपेषु जन्मसु कर्मसूदयेषु” [निरु० ११।२३] दृश्यते ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And O mother Aditi, eternal nature, at the dawn of the day, you energise and illuminate both Mitra and Varuna, complementarities of unity and diversity of energy and light, both luminant and bound in law like day and night, and you bring into action the all ordaining cosmic law, Aryama, like the sun ordaining the day and night, which is unobstructed in its course, which commands the many chariots of the universe such as solar systems and galaxies, and which has seven high priests in the dynamic universal yajna, like the seven rays of the sun showing up the infinite forms of things as they come to light.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराच्या नियमानुसार चेतन जीवात्म्यासाठी कर्मफल भोगण्यासाठी सृष्टीचे भोग्य पदार्थ आहेत. त्यांना भोगण्यासाठी जीव देह धारण करतो. देहात प्रथम श्वास-प्रश्वास सुरू होतात. त्यामुळे त्याची प्रतीती होते. तो भिन्न-भिन्न विषयांमध्ये रमण करणाऱ्या मनयुक्त साधनाने रमण करतो. संपूर्ण शरीरात आपल्या चेतनेचा प्रसार प्राणाद्वारे करतो. तो शरीराचा स्वामी भिन्न-भिन्न योनीत जन्म घेतो.

    टिप्पणी

    जेव्हा आकाशात उषा रात्रीनंतर प्रकट होते व सूर्याचा उदय होणार असतो तेव्हा दिवस-रात्र युगलरूपाने त्याच्याबरोबरच असतात. असे वाटते, की सूर्य आपल्या सात रंगांच्या किरणांनी आकाश मंडलात प्रकाश फैलावतो व प्रत्येक दिवशी भिन्न-भिन्न स्थितीमध्ये उदित होत असतो. ॥५॥

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