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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 64 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 64/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गयः प्लातः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    क्र॒तू॒यन्ति॒ क्रत॑वो हृ॒त्सु धी॒तयो॒ वेन॑न्ति वे॒नाः प॒तय॒न्त्या दिश॑: । न म॑र्डि॒ता वि॑द्यते अ॒न्य ए॑भ्यो दे॒वेषु॑ मे॒ अधि॒ कामा॑ अयंसत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒तु॒ऽयन्ति॑ । क्रत॑वः । हृ॒त्ऽसु । धी॒तयः॑ । वेन॑न्ति । वे॒नाः । प॒तय॑न्ति । आ । दिशः॑ । न । म॒र्डि॒ता । वि॒द्य॒ते॒ । अ॒न्यः । ए॒भ्यः॒ । दे॒वेषु॑ । मे॒ । अधि॑ । कामाः॑ । अ॒यं॒स॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्रतूयन्ति क्रतवो हृत्सु धीतयो वेनन्ति वेनाः पतयन्त्या दिश: । न मर्डिता विद्यते अन्य एभ्यो देवेषु मे अधि कामा अयंसत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋतुऽयन्ति । क्रतवः । हृत्ऽसु । धीतयः । वेनन्ति । वेनाः । पतयन्ति । आ । दिशः । न । मर्डिता । विद्यते । अन्यः । एभ्यः । देवेषु । मे । अधि । कामाः । अयंसत ॥ १०.६४.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 64; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (हृत्सु) हृदयों में-मन आदि के अन्दर (क्रतवः-क्रतूयन्ति) सङ्कल्पधाराएँ सङ्कल्प-विकल्प करती हैं (धीतयः) बुद्धियाँ (वेनाः-वेनन्ति) कामनाधाराएँ विविध कामनाएँ करती हैं (दिशः-आपतयन्ति) उद्देश्यप्रवृत्तियाँ समन्तरूप से प्रवृत्त होती रहती हैं (एभ्यः-अन्यः-मर्डिता न विद्यते) इन देवों से अन्य सुखी करनेवाला कोई नहीं है (देवेषु मे कामाः-अयंसत) विद्वानों में मेरी कामनाएँ आश्रित हैं ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्यों के अन्दर कुछ भावनात्मक शक्तियाँ काम करती रहती हैं। जैसे मन आदि के अन्दर सङ्कल्पधाराएँ उठती हैं। कामनाएँ जैसे प्रवृत्त होती रहती हैं, नाना प्रकार की बुद्धियाँ भी चलती हैं, अनेक उद्देश्य दिशाएँ भी उभरती रहती हैं। यद्यपि ये सब मनुष्य के सुख साधन के लिए होती हैं, फिर भी विद्वानों की सङ्गति से उनको और अधिक उत्कृष्ट बनाना चाहिए, जिससे वे अधिक सुखदायी बनें ॥२॥

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    विषय

    ज्ञानार्थी और फलार्थी सब पर दयालु प्रभु।

    भावार्थ

    (हृत्सु धीतयः) हृदयों में विद्यमान, (क्रतवः) हमारे नाना संकल्प या बुद्धियां अथवा (हृत्सु धीतयः) हृदयों में ज्ञान धारण करने वाले (क्रतवः) उत्तम कर्मकुशल जन (क्रतूयन्ति) उत्तम कर्म और ज्ञान का सम्पादन करना चाहा करते हैं। और (वेनाः) तेजस्वी, नाना कामनावान् जन (वेनन्ति) नाना कामनाएं करते हैं। वे (दिशः आ पतयन्ति) नाना दिशाओं में जाते हैं। (एभ्यः), इन उक्त कर्म करने की इच्छा करने वाले फलाकांक्षी जीवों के लिये (अन्यः मर्डिता न विद्यते) और दूसरा कोई दयालु भी नहीं है। (देवेषु अधि) आंख आदि इन्द्रियों, रूप आदि ग्राह्य विषयों, विद्वानों और दिव्य पदार्थों, सूर्य, विद्युदादि के निमित्त ही (मे कामाः) मेरी अभिलाषाएं (अयंसत) बद्ध हो जाती हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गयः प्लातः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:- १, ४, ५, ९, १०, १३, १५ निचृज्जगती। २, ३, ७, ८, ११ विराड् जगती। ६, १४ जगती। १२ त्रिष्टुप्। १६ निचृत् त्रिष्टुप्। १७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तदशर्चं सुक्तम्॥

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    विषय

    क्रतवो क्रतूयन्ति

    पदार्थ

    [१] (क्रतवः) = हमारे कर्म संकल्प सदा (क्रतूयन्ति) = यज्ञादि उत्तम कर्मों के करने वाले होते हैं। हमारे में यज्ञादि कर्मों के संकल्प होते हैं और उन संकल्पों के अनुसार हमारे कर्म होते हैं । उन कर्मों को करते हुए (हृत्सु) = हमारे हृदयों में (धीतयः) = [ धीति] भक्ति की भावना होती है। इस धीति के कारण हमें उन कर्मों का गर्व नहीं होता। इस प्रकार गर्व रहित होकर कर्म करते हुए (वेना:) = [वेन्] ज्ञानी प्रभु-भक्त पुरुष (वेनन्ति) = उस प्रभु की ओर जाते हैं। (आदिशः) = प्रभु के आदेश ही (पतयन्ति) = इन्हें उन-उन कार्यों को करानेवाले होते हैं । प्रभु के आदेशों के अनुसार ही ये सारी क्रियाओं को करते हैं । [२] यह गय अनुभव करता है कि (एभ्यः) = उल्लिखित दिव्य वृत्तियों को छोड़कर (अन्यः) = अन्य कोई बात मर्डिता हमारे जीवन को सुखी करनेवाली (न विद्यते) = नहीं है । सो 'गय' निश्चय करता है कि (मे) = मेरी (कामाः) = इच्छाएँ (देवेषु अधि) = देवों के विषय में ही, दिव्यवृत्तियों के विषय में ही अयंसत नियमित होती हैं, अर्थात् मैं दिव्यगुणों को ही प्राप्त करने की कामना करता हूँ। इन दिव्यगुणों ने ही तो मेरे जीवन को सुखी बनाना है।

    भावार्थ

    भावार्थ-कर्म-संकल्प हमें यज्ञों में प्रवृत्त करें, हृदय में प्रभु भक्ति की भावना हो, मेधावी भक्त बनकर हम योगस्थ होकर कर्म करते हुए प्रभु की ओर चलें, प्रभु के आदेश ही हमें क्रियाओं में प्रेरित करनेवाले हों। ये दिव्य बातें ही हमारे जीवनों को सुखी करेंगे, सो हम इन्हीं को प्राप्त करने की कामना करें।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (हृत्सु) मनःप्रभृतिषु वर्तमानाः (क्रतवः-क्रतूयन्ति) सङ्कल्पाः सङ्कल्पयन्ति (धीतयः) प्रज्ञाः “धीतिः प्रज्ञाः” [निरु० १०।४०] (वेनाः-वेनन्ति) कामनाः कामयन्ते (दिशः-आपतयन्ति) देशनाः-उद्देशप्रवृत्तयः समन्तात् प्रवर्तन्ते (एभ्यः-अन्यः-मर्डिता न विद्यते) एभ्यो देवेभ्योऽन्यो न सुखयिता विद्यते (देवेषु मे कामाः-अयंसत) विद्वत्सु मम कामाः-आश्रिताः सन्ति ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Thoughts, desires and resolutions arise in the heart and mind anxious to do honour to divinity. Dedicated celebrants love the objects of their love and ambition and their desires and ambitions fly in various directions. For them, there is no other source of comfort and happiness than the object of these desires, be it divine, human or material. I pray may my desires, ambitions and prayers converge and concentrate on the divinities.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांमध्ये काही भावनात्मक शक्ती काम करत असतात. मनात संकल्प धारा उत्पन्न होतात, कामना प्रवृत्त होतात, नाना प्रकारची बुद्धीही चालते. अनेक दिशांनी उद्देश प्रकट होतात. जरी त्या सर्व माणसांच्या सुखसाधनांसाठी असतात तरीही विद्वानांच्या संगतीने त्यांना अधिक उत्कृष्ट बनविले पाहिजे. ज्यामुळे ते अधिक सुखी व्हावेत. ॥२॥

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