ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
इ॒मा अ॑ग्ने म॒तय॒स्तुभ्यं॑ जा॒ता गोभि॒रश्वै॑र॒भि गृ॑णन्ति॒ राध॑: । य॒दा ते॒ मर्तो॒ अनु॒ भोग॒मान॒ड्वसो॒ दधा॑नो म॒तिभि॑: सुजात ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒माः । अ॒ग्ने॒ । म॒तयः॑ । तुभ्य॑म् । जा॒ताः । गोभिः॑ । अश्वैः॑ । अ॒भि । गृ॒ण॒न्ति॒ । राधः॑ । य॒दा । ते॒ । मर्तः॑ । अनु॑ । भोग॑म् । आन॑ट् । वसो॒ इति॑ । दधा॑नः । म॒तिऽभिः॑ । सु॒ऽजा॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमा अग्ने मतयस्तुभ्यं जाता गोभिरश्वैरभि गृणन्ति राध: । यदा ते मर्तो अनु भोगमानड्वसो दधानो मतिभि: सुजात ॥
स्वर रहित पद पाठइमाः । अग्ने । मतयः । तुभ्यम् । जाताः । गोभिः । अश्वैः । अभि । गृणन्ति । राधः । यदा । ते । मर्तः । अनु । भोगम् । आनट् । वसो इति । दधानः । मतिऽभिः । सुऽजात ॥ १०.७.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अग्ने) हे अग्रणायक परमात्मन् ! (इमाः-मतयः) ये मनुष्यप्रजाएँ (तुभ्यम्) तेरे लिये (गोभिः-अश्वैः-जाताः) इन्द्रियों आशुगामी पवित्र अन्तःकरणों-मन, बुद्धि, चित्त अहंकारों से सुसम्पन्न हुए (राधः-अभिगृणन्ति) आराधनीय स्तुत्यवचन को पुनः-पुनः कहते-जपते हैं (यदा ते मर्तः) जब तेरे उपासक जन (भोगम्-अनु-आनट्) आनन्दरस के साथ व्याप्त है (वसो) हे बसानेवाले (सुजात मतिभिः-दधानः) हे सुप्रसिद्ध परमात्मन् ! हम उपासक प्रजाओं द्वारा धारण किया-गया उपासना में लाया हुआ तू हमें प्राप्त हो ॥२॥
भावार्थ
जो जन संयत इन्द्रियों और पवित्र अन्तःकरणों से सम्पन्न होकर परमात्मा के लिये आराधनीय स्तुतिवचन समर्पित करते हैं, उन ऐसे जनों द्वारा वह साक्षात् किया जाता है, ऐसे जन ही उसके आनन्दरस में विभोर होते हैं ॥२॥
विषय
प्रभुस्मरण पूर्वक 'प्रकृति पदार्थ प्रयोग'
पदार्थ
हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (इमाः मतयः) = ये मेरी बुद्धियाँ (तुभ्यम्) = आपके लिए अर्थात् आपके दर्शन के लिए (जाता:) = विकसित हो गई हैं। प्रभु का दर्शन इन बुद्धियों से ही तो होना है 'दृश्यते त्वग्र्या बुद्धया'। इस संसार में विचारशील पुरुष (गोभिः) = ज्ञानेन्द्रियों से तथा (अश्वैः) = कर्मेन्द्रियों से (राधः) = सब कार्यों के साधक आपका ही [राध्- असुन् नपुंसक] (अभिगृणन्ति) = स्तवन करते हैं। 'गमयन्ति अर्थान् इति गाव:' इस व्युत्पत्ति से 'गौ: ' ज्ञानेन्द्रियों का वाचक है, तथा 'अश्रुव ते कर्मसु ' इस व्युत्पत्ति से 'अश्व' शब्द कर्मेन्द्रियों का ज्ञान की वाणियों का स्वाध्याय यह ज्ञानेन्द्रियों से प्रभु का पूजन है, तथा यज्ञात्मक कर्मों में लगे रहना कर्मेन्द्रियों से प्रभु-पूजन है। (यदा) = जब (मर्तः) = मनुष्य (ते अनु) = तेरे स्मरण के पश्चात् (भोगम्) = भोग्य पदार्थों को आनट् प्राप्त करता है व भोगता है तो वह पुरुष हे (वसो) = उत्तम निवास के देनेवाले प्रभो ! (सुजात) = उत्तम विकास वाले प्रभो ! (मतिभिः दधान:) = बुद्धियों से धारण किया जाता है। अर्थात् इसकी बुद्धियाँ उन विषयों में न फँसकर अविकृत हों। बनी रहती हैं और इसका धारण करनेवाली होती हैं । प्रभु को भूलकर जब हम इन सांसारिक विषयों में जाते हैं तो उनमें प्रायः आसक्त हो जाते हैं । परिणामतः हमारी बुद्धि भी वासना के पर्दे से आवृत होकर मन्द प्रकाश वाली हो जाती है और यह हमें प्रभु दर्शन तो दूर रहा, संसार का स्वरूप भी ठीक रूप से नहीं दिखा पाती। इस प्रकार यह बुद्धि उस समय हमारा धारण नहीं कर रही होती ।
भावार्थ
भावार्थ - वेद के 'उरुशंसों' को सुनकर हमारी बुद्धि ठीक रूप में विकसित होती है और हमें प्रभुदर्शन के योग्य बनाती है, यह हमारा ठीक रूप में धारण करती है ।
विषय
स्तुत्य और मनोगम्य प्रभु।
भावार्थ
हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! स्वप्रकाशक ! (इमाः मतयः) ये वाणियें (तुभ्यं जाताः) तेरी स्तुति के लिये प्रकट हुईं (गोभिः अश्वेभिः राधः गृणन्ति) गौवों, अश्वों सहित समस्त धन (तुभ्यं) तेरा ही बतलाती हैं। (मर्त्तः) मनुष्य (यदा) जब (ते भोगम् अनु आनट्) तुझ से ही अपना सब भोग्य पदार्थ, भोजन आदि प्राप्त करता है, हे (वसो) सबको बसाने वाले ! हे (सुजात) उत्तम गुणों से प्रकाशित ! तब वह मनुष्य (मतिभिः दधानः) उत्तम मतियों से ही उसको प्राप्त करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रित ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:-१, ३, ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप्। २, ४ त्रिष्टुप्। विराट् त्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अग्ने) हे अग्रणायक परमात्मन् ! (इमाः-मतयः) एताः-मनुष्यप्रजाः-उपासकजनाः “प्रजा वै मतयः” [तै० आ० ५।६।८] (तुभ्यम्) त्वदर्थम् (गोभिः-अश्वैः-जाताः) इन्द्रियैराशुगमनशीलैर्मनोबुद्धिचित्ताहङ्कारैः सुसम्पन्नाः (राधः-अभिगृणन्ति) राधनीयं स्तुत्यं वचनं स्तुवन्ति (यदा ते मर्तः) यदा तव मनुष्यः-उपासक-जनः (भोगम्-अनु-आनट्) आनन्दरसेन सह व्याप्नोति (वसो) हे वासयितः ! (सुजात मतिभिः-दधानः) हे सुप्रसिद्ध परमात्मन् ! अस्माभिरुपासकप्रजाभिर्धार्यमाणः सन् प्राप्तो भव ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, Spirit of life and giver of light, these hymns of adoration spontaneously arisen in praise of your glory, with all our mind and senses, celebrate your gifts of success and achievement when, O shelter home of life and giver of wealth, the mortal receives his reward according to your law, bears and manages it with his mind and senses in order and feels the divine awareness vibrating in the soul.
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक संयमित इंद्रियांद्वारे व पवित्र अंत:करणाने संपन्न होऊन परमेश्वरासाठी आराधनीय स्तुतिवचन समर्पित करतात. अशा लोकांद्वारे तो साक्षात केला जातो. असे लोकच त्याच्या आनंदरसात विभोर होतात. ॥२॥
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