ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 5
द्युभि॑र्हि॒तं मि॒त्रमि॑व प्र॒योगं॑ प्र॒त्नमृ॒त्विज॑मध्व॒रस्य॑ जा॒रम् । बा॒हुभ्या॑म॒ग्निमा॒यवो॑ऽजनन्त वि॒क्षु होता॑रं॒ न्य॑सादयन्त ॥
स्वर सहित पद पाठद्युऽभिः॑ । हि॒तम् । मि॒त्रम्ऽइ॑व । प्र॒ऽयोग॑म् । प्र॒त्नम् । ऋ॒त्विज॑म् । अ॒ध्व॒रस्य॑ । जा॒रम् । बा॒हुऽभ्या॑म् । अ॒ग्निम् । आ॒यवः॑ । अ॒ज॒न॒न्त॒ । वि॒क्षु । होता॑रम् । नि । अ॒सा॒द॒य॒न्त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
द्युभिर्हितं मित्रमिव प्रयोगं प्रत्नमृत्विजमध्वरस्य जारम् । बाहुभ्यामग्निमायवोऽजनन्त विक्षु होतारं न्यसादयन्त ॥
स्वर रहित पद पाठद्युऽभिः । हितम् । मित्रम्ऽइव । प्रऽयोगम् । प्रत्नम् । ऋत्विजम् । अध्वरस्य । जारम् । बाहुऽभ्याम् । अग्निम् । आयवः । अजनन्त । विक्षु । होतारम् । नि । असादयन्त ॥ १०.७.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(द्युभिः-हितम्) ज्ञान-ज्योतियों से सम्पन्न (मित्रम्-इव प्रयोगम्) मित्रसमान प्रकृष्ट सहयोगकर्ता (प्रत्नम्) शाश्वतिक (अध्वरस्य जारम्-ऋत्विजम्) अहिंसनीय अध्यात्म-यज्ञ के अर्चनीय ऋत्विक्-सम्पादक को (बाहुभ्याम्-आयवः-अग्निम्-अजनन्त) उपासक जन बाहुओं के समान अभ्यास-वैराग्य द्वारा अग्रणायक परमात्मा को अपने अन्दर साक्षात् प्रकट करते हैं (विक्षु होतारं न्यसादयन्त) समस्त प्रजाओं में जीवन-दाता के रूप में विराजमान परमात्मा को स्वात्मा में बिठाते हैं ॥५॥
भावार्थ
ज्ञान-ज्योतियों से युक्त, मित्रसमान, अध्यात्म-यज्ञ के सम्पादक, समस्त प्रजाओं में व्यापक परमात्मा को अभ्यास-वैराग्य द्वारा उपासक जन साक्षात् अपने अन्दर बिठाते हैं ॥५॥
विषय
[ अध्वर का जार ] प्रेय + श्रेय
पदार्थ
गतमन्त्र के सात्त्विक अन्नों का सेवन करनेवाले व्यक्ति (आयव:) = [ एति ] गतिशील पुरुष (अग्निं) = उस अग्रेणी प्रभु को (अजनन्त) = अपने हृदयों में प्रादुर्भूत करते हैं और उन पवित्र हृदयों में (न्यसादयन्त) = इस प्रभु को बिठाते हैं, जो प्रभु (द्युभिः हितम्) = ज्ञान की ज्योतियों से स्थापित किया जाता है। अर्थात् प्रभु का प्रकाश बुद्धि की सूक्ष्मता का संपादन करके ज्ञान के वर्धन से ही होता है । (मित्रम् इव प्रयोगम्) = वे प्रभु सदा सच्चे स्नेही की तरह प्रकृष्ट मेल वाले हैं। मित्रता का उत्कर्ष स्वार्थ की क्षीणता के अनुपात में होता है। प्रभु का स्वार्थ क्योंकि शून्य है, तो प्रभु की मित्रता पूर्ण है। प्रभु की मित्रता में कभी टूट जाने का भय नहीं । वे प्रभु प्रत्नम् (ऋत्विजम्) = सनातन ऋत्विज हैं। उस उस ऋतु में ऋतु के अनुकूल पदार्थों का हमारे साथ संगतिकरण करनेवाले हैं। (अध्वरस्य जारम्) = हमारे से किये जानेवाले हिंसा शून्य लोकहितकारी यज्ञात्मक कर्मों के [समापयितारम्] अन्त तक पहुँचानेवाले हैं। प्रभु कृपा से ही सब यज्ञ पूर्ण हुआ करते हैं । (विक्षु होतारम्) = प्रजाओं में सब आवश्यक पदार्थों के प्राप्त करानेवाले हैं प्रभु ही संसार के सब पदार्थों का हमारी उन्नति के लिये निर्माण करते हैं। इस प्रभु को (आयवः) = प्रगतिशील पुरुष अपने हृदयों में प्रकाशित व स्थापित करते हैं। किस प्रकार ? (बाहुभ्याम्) = प्रयत्नों से वह द्विवचन का प्रयोग यह संकेत कर रहा है कि हमारे प्रयत्न केवल शारीरिक उन्नति के लिये न होकर बौद्धिक उन्नति के लिये भी हों। ये प्रयत्न प्रेय व श्रेय दोनों के साधक हों, इनमें इहलोक व परलोक दोनों का स्थान हो, ये अभ्युदाय व निःश्रेयस दोनों की प्राप्ति के लिए हों। हमारे प्रयत्न प्रकृति व परमात्मा को दोनों को प्राप्त करने के दृष्टिकोण से हो। उनमें प्रकृति विद्या व आत्मविद्या दोनों का स्थान हो । वे व्यक्तिवाद व समाजवाद दोनों दृष्टिकोणों से किये जाएँ ।
भावार्थ
भावार्थ-वे प्रभु ज्ञान के प्रकाश में दिखते हैं, सच्चे मित्र हैं, सनातन काल से सब कुछ दे रहे हैं, हमारे यज्ञों को पूर्ण करनेवाले हैं। प्रजाओं को सब कुछ देनेवाले हैं। इन प्रभु को प्राप्त करने के लिये हमें प्रेय व श्रेय दोनों के लिए प्रत्नशील होना है ।
विषय
यज्ञाग्निवत् प्रभु की स्तुति। उसी प्रकार मथे अग्नि के समान ही राजा का प्रदुर्भाव।
भावार्थ
(द्युभिः हितम्) दीप्तियों, प्रकाशों से युक्त, (मित्रम् इव प्रयोगं) स्नेही मित्र के समान उत्तम योग करने योग्य, योग द्वारा प्राप्य, (प्रत्नम्) अनादि, पुराण, (ऋत्विजम्) ऋतु २ में यज्ञ करने वाले, काल में उत्तम सुखद फल के दाता, (अध्वरस्य) अविनाशी यज्ञ, जगत् के (जारम्) विनाश करने वाले वा अविनाशी यज्ञ के उपदेष्टा, (अग्निम्) सर्वप्रकाशक अग्नि को (बाहुभ्याम् अजनयन्त) जिस प्रकार मथ कर बाहुओं से प्रकट करते हैं उसी प्रकार उस प्रभु को (बाहुभ्यां अजनन्त) बाहुएं फैला कर याचना करते हुए उसकी महत्ता को प्रकट करते हैं। और उसी (होतारं) सर्वदाता प्रभु को (विक्षु) समस्त प्रजाओं में (नि असादयन्त) प्राप्त करते हैं। भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः। उप०॥ (२) इसी प्रकार तेजस्वी, प्रजास्नेही, उत्तम प्रयोक्ता, नियन्ता तेजस्वी पुरुष को वीर लोग (बाहुभ्याम्) अपने बाहुबलों के पराक्रमों से बनावें और प्रजाओं में सिंहासन पर राजा बनाकर स्थापित करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रित ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:-१, ३, ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप्। २, ४ त्रिष्टुप्। विराट् त्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(द्युभिः-हितम्) ज्ञानज्योतिभिः सम्पन्नम् (मित्रम्-इव प्रयोगम्) मित्रसदृशं प्रकृष्टं योगकर्तारम्-सहयोगदातारम् (प्रत्नम्) शाश्वतिकम् (अध्वरस्य जारम्-ऋत्विजम्) अहिंसनीयस्याध्यात्मयज्ञस्य स्तोतव्यम् “जरति-अर्चतिकर्मा” [निघ० ३।१४] (बाहुभ्याम्-आयवः-अग्निम्-अजनन्त) उपासकजनाः “आयवः-मनुष्य-नाम”२।३] बाहुभ्यामिव-[निघ० अभ्यासवैराग्याभ्यामग्रणायकं परमात्मानं साक्षात्कृतवन्तः (विक्षु होतारं न्यसादयन्त) समस्तप्रजासु होतृत्वेन विराजमानं जीवनदातारं तमुपासका जनाः स्वात्मनि निष्ठापयन्ति ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Refulgent with lights of life and knowledge, helpful and cooperative as a friend, ancient and eternal, constant yajaka by seasons, lover and accomplisher of yajna, such is Agni. People generate it with dexterity of hands, awaken it in the soul with constant practice and renunciation, and establish it among people as giver of life and sustenance.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्ञानज्योतींनी युक्त, मित्राप्रमाणे अध्यात्म-यज्ञाचा संपादक, संपूर्ण प्रजेत व्यापक, अशा परमात्म्याला उपासक लोक अभ्यास, वैराग्याद्वारे साक्षात आपल्यामध्ये पाहतात. ॥५॥
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