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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 6
    ऋषिः - त्रितः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स्व॒यं य॑जस्व दि॒वि दे॑व दे॒वान्किं ते॒ पाक॑: कृणव॒दप्र॑चेताः । यथाय॑ज ऋ॒तुभि॑र्देव दे॒वाने॒वा य॑जस्व त॒न्वं॑ सुजात ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्व॒यम् । य॒ज॒स्व॒ । दि॒वि । दे॒व॒ । दे॒वान् । किम् । ते॒ । पाकः॑ । कृ॒ण॒व॒त् । अप्र॑ऽचेताः । यथा॑ । अय॑जः । ऋ॒तुऽभिः॑ । दे॒व॒ । दे॒वान् । ए॒व । य॒ज॒स्व॒ । त॒न्व॑म् । सु॒ऽजा॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वयं यजस्व दिवि देव देवान्किं ते पाक: कृणवदप्रचेताः । यथायज ऋतुभिर्देव देवानेवा यजस्व तन्वं सुजात ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्वयम् । यजस्व । दिवि । देव । देवान् । किम् । ते । पाकः । कृणवत् । अप्रऽचेताः । यथा । अयजः । ऋतुऽभिः । देव । देवान् । एव । यजस्व । तन्वम् । सुऽजात ॥ १०.७.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 6
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 6
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (देव) हे परम इष्टदेव परमात्मन् ! (दिवि देवान् स्वयं यजस्व) द्युलोक में वर्तमान सूर्यादि को तू स्वयं सङ्गति कर सङ्गत करता है-सम्प्रेरित करता है (अप्रचेताः-पाकः-ते किं कृण्वत्) अप्रकृष्ट ज्ञानवाला-अल्पयज्ञ तुझ से ज्ञान पाकर पक्का बननेवाला जीवात्मा तेरी क्या सहायता कर सकता है ? कुछ भी नहीं कर सकता, यद्यपि जीवात्मा तेरे जैसा नित्य, चेतन और सृष्टि के देवों-सूर्य आदि से पूर्व वर्तमान होता है (देव) हे उपास्यदेव परमात्मन् ! (यथा-ऋतुभिः-देवान्-अयजः) तू जैसे उस उसके कालों से सूर्यादि देवों को स्व-स्व दिव्यगुणों से संसृष्ट करता है, (एव) इसी प्रकार (सुजात तन्वं यजस्व) हे सुप्रसिद्ध पमात्मन् ! अपने अङ्गरूप मुझ आत्मा को गुणों से संसृष्ट कर ॥६॥

    भावार्थ

    परमात्मा ने आकाश के सूर्य आदि पदार्थों को उन-उन गुणों से युक्त उन-उन के समयानुसार रचा। यद्यपि जीवात्मा उनके रचने से पूर्व वर्त्तमान रहता है, परन्तु वह अल्पज्ञ-अल्पशक्ति होने से उनके रचने में उसका सहायक नहीं बन सकता, अपितु परमात्मा अपनी कृपा से ज्ञान दर्शन देकर जीवात्मा को गुणवान् और कर्म करने में समर्थ बनाता है ॥६॥

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    विषय

    देवों व महादेव का यजन

    पदार्थ

    प्रभु से जीव प्रार्थना करता है कि हे (देव) = सब दिव्यगुणों के पुञ्ज, दीप्ति वाले द्योतित करनेवाले प्रभो! आप (स्वयं) = अपने आप ही (दिवि) = ज्ञान के प्रकाश में रहनेवाले (देवान्) = देवों को, दिव्यगुणों को (यजस्व) = हमारे साथ संगत करिये। 'दिव्यगुणों का वास' ज्ञान के प्रकाश के ही साथ है। ज्ञान होने पर ही दिव्यगुण पनपते हैं । हे प्रभो ! (ते पाकः) = आपका यह पक्तव्य प्रज्ञा वाला (अप्रचेताः) = नासमझ शिष्य (किं कृणवत्) = क्या कर सकता है ? अर्थात् प्रभु से अनधिष्ठित जीव में तो कोई शक्ति ही नहीं । हे (देव) = सब दिव्यताओं के अधिष्ठान प्रभो ! (यथा) = जैसे (ऋतुभिः) = समय-समय पर (देवान् अयजः) = अपने दिव्य गुणों से हमारा सम्पर्क किया है, (एवा) = इसी प्रकार से (सुजात) = [शोभनं जातं यस्मात्] शोभन विकास को प्राप्त करानेवाले प्रभो ! आप (तन्वम्) = [आत्मानम् अपि] अपने को भी (यजस्व) = हमारे साथ संगत करिये । अर्थात् हमारे साथ जहाँ देवों का यजन हो, वहाँ उस महादेव प्रभु का भी यजन हो। हम दिव्यगुणों को प्राप्त करते हुए प्रभु को पानेवाले हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु कृपा से परिपक्व प्रज्ञा वाले 'प्रचेता' बनकर हम देवों व महादेव के सम्पर्क में निवास करनेवाले बनें ।

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    विषय

    प्रभु का आत्मयज्ञ।

    भावार्थ

    हे (देव) सुखों के दातः ! हे प्रकाशस्वरूप ! तू (देवान्) समस्त सूर्यादि लोकों का (स्वयं यजस्व) स्वयं यज्ञ करता है, उनको तू ही प्रकाश देता है। (अप्रचेताः) अविद्वान् (पाकः) अपक्व बुद्धि वाला पुरुष वा दुःखों से तप्त पुरुष (ते किं कृणवत्) तेरी क्या उपासना करेगा ? हे (देव) देव ! दानशील ! तू (ऋतुभिः) ऋतुओं से (यथा देवान् अयजः) जिस प्रकार सूर्य वायु जलादि की परस्पर संगति करता है (एवा) उसी प्रकार हे (सु-जात) सर्वोत्तम प्रकाशक ! (तन्वं) इस महान् ऐश्वर्य या विश्व वा देह को भी तू (यज) सुसंगत कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रित ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:-१, ३, ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप्। २, ४ त्रिष्टुप्। विराट् त्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (देव) हे परमेष्टदेव ! (दिवि देवान् स्वयं यजस्व) द्युलोके वर्तमानान् सूर्यादीन् “देवो-द्युस्थानो भवतीति वा” [निरु० ७।१५] त्वं स्वयं सङ्गमय सम्यक् गुणवतः कृत्वा संस्थापय प्रेरय च-सङ्गमयसि-संस्थापयसि प्रेरयसि च (अप्रचेताः-पाकः- ते किं कृण्वत्) यः खल्वप्रकृष्टचेताः-अल्पज्ञस्त्वया च पक्तव्यो ज्ञानदानेन “पाकः पक्तव्यो भवति” [निरु० ३।१२] जीवात्मा तव किं साहाय्यं कुर्यात् ? न किमपि कर्त्तुमर्हति, यद्यपि जीवात्माऽपि त्वद्वन्नित्यश्चेतनश्चास्ति (देव) हे-उपास्यदेव परमात्मन् ! (यथा-ऋतुभिः-देवान्-अयजः) यथा खलु त्वमृतुभिः-उचितकालैस्तान् दिव्यगुणान् देवान् तत्तद्गुणैः समसृजत्-संसृजति (एव) एवम् (सुजात तन्वं यजस्व) हे सुप्रसिद्ध परमात्मदेव ! स्वतनूं मामात्मानं यजस्व योग्यं सम्पादय ज्ञानदर्शनदानेन “वृणते तनूं स्वाम्” [मुण्डकोप० ३।३] “आत्मा वै तनूः” [श० ६/७/२/६] ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O self-refulgent spirit of the universe, by yourself you energise the divine forces of nature in the higher regions of life and conduct the yajna of evolution. What can man, limited in knowledge, accomplish for you in this cosmic yajna? O lord omnipotent, as you have eternally carried the yajna according to time and seasons, similarly, O lord, carry on the yajna of the cosmic body.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराने आकाशात सूर्य इत्यादी पदार्थ त्या त्या गुणांनी युक्त त्या त्या कालानुसार उत्पन्न केले. जरी जीवात्मा ते निर्माण करण्यापूर्वी वर्तमान असतो तरी तो अल्पज्ञ व अल्पशक्ती असल्यामुळे ते पदार्थ उत्पन्न करण्यात परमात्म्याचा सहायक बनू शकत नाही. एवढेच नव्हे, तर परमेश्वर आपल्या कृपेने ज्ञान दर्शन करवून जीवात्म्याला गुणवान व कर्म करण्यास समर्थ बनवितो. ॥६॥

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