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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 4
    ऋषिः - त्रितः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सि॒ध्रा अ॑ग्ने॒ धियो॑ अ॒स्मे सनु॑त्री॒र्यं त्राय॑से॒ दम॒ आ नित्य॑होता । ऋ॒तावा॒ स रो॒हिद॑श्वः पुरु॒क्षुर्द्युभि॑रस्मा॒ अह॑भिर्वा॒मम॑स्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सि॒ध्राः । अ॒ग्ने॒ । धियः॑ । अ॒स्मे इति॑ । सनु॑त्रीः । यम् । त्राय॑से । दमे॑ । आ । नित्य॑ऽहोता । ऋ॒तऽवा॑ । सः । रो॒हित्ऽअ॑श्वः । पु॒रु॒ऽक्षुः । द्युऽभिः॑ । अ॒स्मै॒ । अह॑ऽभिः । वा॒मम् । अ॒स्तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सिध्रा अग्ने धियो अस्मे सनुत्रीर्यं त्रायसे दम आ नित्यहोता । ऋतावा स रोहिदश्वः पुरुक्षुर्द्युभिरस्मा अहभिर्वाममस्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सिध्राः । अग्ने । धियः । अस्मे इति । सनुत्रीः । यम् । त्रायसे । दमे । आ । नित्यऽहोता । ऋतऽवा । सः । रोहित्ऽअश्वः । पुरुऽक्षुः । द्युऽभिः । अस्मै । अहऽभिः । वामम् । अस्तु ॥ १०.७.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अग्ने) अग्रणायक परमात्मन् ! (अस्मे) हमारी (धियः सनुत्रीः-सिध्राः) स्तुतियाँ तेरे साथ या तेरी सङ्गति से तेरे समागम को प्राप्त हुई सिद्ध सफल हों (दमे नित्यहोता यम्-आ त्रायसे) हृदय-घर में समन्तात् नित्य उपास्य हुआ तू जिसकी सुरक्षा करता है-निज आश्रय देता है (सः-ऋतावा) वह सत्यवान्-जीवनयज्ञ को सफल किया हुआ, तथा (रोहिदश्वः) तेजस्वी इन्द्रियोंवाला, शुद्ध इन्द्रियोंवाला (पुरुक्षुः) बहुत अन्नादि भोगवाला हो जाता है (अस्मै) इस उपासक के लिये (द्युभिः-अहभिः-वामम्-अस्तु) प्रकाशमान दिनों के द्वारा वननीय सुख प्राप्त होता है ॥४॥

    भावार्थ

    जो प्रतिदिन परमात्मा की स्तुति करता है, उसकी स्तुतियाँ सफल हो जाती हैं, वह तेजस्वी और अच्छे दिनोंवाला होता है ॥४॥

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    विषय

    बुद्धि का साधन

    पदार्थ

    हे (अग्ने) = परमात्मन्! आप (अस्मे) = हमारे लिये (सुनुत्री:) = सदा संविभाग करनेवाली (धियः) = बुद्धियों को (सिध्राः) = सिद्ध करिये । वस्तुतः प्रभु हमारा रक्षण इसी प्रकार करते हैं कि वे हमें संविभाग वाली बुद्धि प्रदान करते हैं। देवों ने जिसका भी रक्षण करना होता है वे उसकी बुद्धि को स्वस्थ बना देते हैं। बुद्धि का नाम 'मेधा' है 'मे'- मेरा 'धा' धारण करनेवाली । हे प्रभो ! (आप यं) = जिस भी पुरुष को (त्रायसे) = रक्षित करते हैं वह (दमे) = इस शरीर रूप गृह में (नित्यहोता) = सदा (होता) = दानपूर्वक अदन करनेवाला बनता है। यह 'नित्यहोतृत्व' ही वस्तुतः उसका प्रभु-पूजन होता है और इसी के कारण वह विषयों में न फँसकर अपना रक्षण भी कर पाता है। यह धी-सम्पन्न व्यक्ति (ऋतावा) = ऋत का अवन-रक्षण करता है। इसका जीवन सत्य-सम्पन्न होता है। इसके जीवन में सब क्रियाएँ ठीक समय व ठीक स्थान पर होती हैं । (स) = वह (ऋतावा 'रोहिदश्व:') = वृद्धिशील इन्द्रियरूप अश्वों वाला होता है। इसकी इन्द्रियों की शक्तियाँ क्षीण नहीं होती । यह (पुरुक्षुः) = बहुत अन्न वाला होता है अर्थात् इसे अन्न की कमी नहीं होती और यह अन्न का खूब पाचन कर सकता है। अथवा यह पालक व पूरक [पृ पालनपूरणयोः] अन्न वाला होता है। यह उसी सात्त्विक अन्न का सेवन करता है जो अन्न कि इसके शरीर व मन में कमी को नहीं आने देता। इस प्रकार सात्त्विक अन्न का सेवन करते हुए (अस्मा) = इसके लिये (द्युभिः अहभिः) = दिन-दिन से अर्थात् प्रतिदिन (वामम् अस्तु) = सौन्दर्य ही सौन्दर्य हो । अर्थात् इसके जीवन में दिनदूनी रात चौगुणी उन्नति हो । यह सदा फलता-फूलता चले, इसके जीवन का मार्ग उन्नति का ही हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हमें संविभाग बल और बुद्धि प्राप्त हो, इस बुद्धि का प्राप्त करके हम होता बनें, ऋत का पालन करते हुए इन्द्रियशक्ति को क्षीण न होने दें। पालक व पूरक अन्न का सेवन करते हुए दिन व दिन उन्नति पथ पर आगे बढ़ें।

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    विषय

    समृद्धि की प्रार्थना, परमेश्वर के अनुग्रह की विभूति।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! प्रकाशस्वरूप ! (अस्मे धियः) हमारी बुद्धियां स्तुतियां और हमारे किये काम (सिध्राः) सिद्ध होकर (अस्मे सनुत्रीः) हमें उत्तम २ फलदायक हों। तू (नित्य-होता) सदा, नित्य ,ऐश्वर्यों का देने वाला, प्रभु (यं दमे त्रायसे) जिसको गृह में या अपने शासन में रख कर उसकी रक्षा करता है (सः ऋतावा) वह सत्य ज्ञान और धन का स्वामी, (रोहित्-अश्वः) लाल अश्वों का स्वामी, नायक और वह (पुरु-क्षुः) बहुत से अन्नों का स्वामी होजाता है। हे प्रभो ! (द्युभिः अहभिः) तेजोयुक्त सब दिनों (अस्मा वामम् अस्तु) हमें उत्तम धन प्राप्त हो और हमारा कल्याण हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रित ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:-१, ३, ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप्। २, ४ त्रिष्टुप्। विराट् त्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अग्ने) हे अग्रणायक परमात्मन् ! (अस्मे) अस्माकम् (धियः सनुत्रीः-सिध्राः) स्तुतिवाचः “वाग्वै धीः” [का० श० ४।२।४।१] त्वया सह त्वत्सङ्गत्या वा सम्भक्त्र्यस्तव समागमं प्राप्तवत्यः सिद्धाः सफलाः सन्ति, सन्तु वेति शेषः (दमे नित्यहोता यम्-आ त्रायसे) हृदये प्रतिदिनोपास्यः सन् त्वं यमुपासकं समन्तात् त्रायसे निजाश्रयं ददासि (सः-ऋतावा) स खलु सत्यवान् जीवनयज्ञं सफलं कृतवान् भवति, तथा (रोहिदश्वः) तेजस्वीन्द्रियाश्ववान् “इन्द्रियाणि हयानाहुः” [कठो० व० ३।४] (पुरुक्षुः) बह्वन्नादिभोगवान् भवति “क्षु-अन्ननाम” [निघ० २।७] (अस्मै द्युभिः-अहभिः-वामम्-अस्तु) अस्मै खलूपासकाय प्रकाशमयैर्दिनैः सह वननीयं सुखं भवतु-भवति ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, may our thoughts, prayers and adorations be effectual and give us fulfilment. O constant giver of light and life, home mate in yajna, whoever you protect and promote, grows higher in dedication to truth, divine law and yajnic living, blest with holy and bright sense and mind, abundance of food, energy and life’s joy. We pray may our life be good and prosperous with brightness day by day.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो प्रत्येक दिवशी परमेश्वराची स्तुती करतो, त्याची स्तुती सफल होते, तो तेजस्वी बनतो व अतुल सुख प्राप्त करतो. ॥४॥

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