ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 74/ मन्त्र 3
ऋषिः - गौरिवीतिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिगार्चीत्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इ॒यमे॑षाम॒मृता॑नां॒ गीः स॒र्वता॑ता॒ ये कृ॒पण॑न्त॒ रत्न॑म् । धियं॑ च य॒ज्ञं च॒ साध॑न्त॒स्ते नो॑ धान्तु वस॒व्य१॒॑मसा॑मि ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒यम् । ए॒षा॒म् । अ॒मृता॑नाम् । गीः । स॒र्वऽता॑ता । ये । कृ॒पण॑न्त । रत्न॑म् । धिय॑म् । च॒ । य॒ज्ञम् । च॒ । साध॑न्तः । ते । नः॒ । धा॒न्तु॒ । व॒स॒व्य॑म् । असा॑मि ॥
स्वर रहित मन्त्र
इयमेषाममृतानां गीः सर्वताता ये कृपणन्त रत्नम् । धियं च यज्ञं च साधन्तस्ते नो धान्तु वसव्य१मसामि ॥
स्वर रहित पद पाठइयम् । एषाम् । अमृतानाम् । गीः । सर्वऽताता । ये । कृपणन्त । रत्नम् । धियम् । च । यज्ञम् । च । साधन्तः । ते । नः । धान्तु । वसव्यम् । असामि ॥ १०.७४.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 74; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(एषाम्-अमृतानाम्) इन जीवन्मुक्त विद्वानों की (गीः सर्वताता) उपदेश की हुई वेदवाणी सर्वसुखद कर्मों के विस्तार करनेवाली है या हो (ये रत्नं कृपणन्त) जो विद्वान् रमणीय मोक्ष प्राप्त करने को हमें समर्थ करते हैं (धियं च यज्ञं च साधन्तः) वे प्रज्ञान को और अध्यात्मयज्ञ को साधते हुए (असामि वसव्यम् नः-धान्तु) पूर्ण धनों में श्रेष्ठ ज्ञान धन को हमारे लिए धारण करावें ॥३॥
भावार्थ
जीवन्मुक्त विद्वान् अपनी वाणी से सब सुखों को सिद्ध करने का उपदेश करें और मोक्षप्राप्ति के लिए समर्थ बनावें, जो सब धनों में श्रेष्ठ धन है ॥३॥
विषय
मोक्ष-साधकों के कर्त्तव्य उनको दान देने का धर्म।
भावार्थ
(ये) जो (रत्नं) रमणीय वचन प्रदान करते, (धियं च कृपणन्त) उत्तम कर्म करते और (यज्ञं च साधन्तः) यज्ञ, सर्वोपास्य सर्वप्रद प्रभु की साधना वा आराधना करते हैं (एषाम्) इन (अमृतानां) अमृत, मोक्षमार्गी, मुक्तवत् निस्पृह, परम हंस पुरुषों की (इयम्) यह (गीः) वेदवाणी (सर्वताता) सबका कल्याण करने वाली होती है। (ते) ऐसे ही वे महानुभाव जन सदा (नः) हमें (असामि) समस्त (वसव्यम्) वसने वाले जीवों के हितार्थ अनेक धन, वा ज्ञान (धान्तु) प्रदान करें ऐसे ही परोपकारी जन (नः वसव्यं धान्तु) हमारा धन प्राप्त करें, हम ऐसे ही सत्पात्रों को दान दें।
टिप्पणी
धनानि तु यथाशक्ति विप्रेषु प्रतिपादयेत्। वेदवित्सु विविक्तेषु मनु०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गौरिवीतिर्ऋषिः॥ इन्द्रो देवता। छन्दः- १, ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २, ५ निचृत त्रिष्टुप्। ३ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ६ विराट् त्रिष्टुप्॥
विषय
बुद्धि व यज्ञ
पदार्थ
[१] (एषां अमृतानाम्) = गत मन्त्र में वर्णित इन अमृत विषय वासनाओं के पीछे न मरनेवाले, देवों की (इयं गीः) = यह वेदवाणी होती है। वे इस वेदवाणी को अपनाते हैं। (ये) = जो देव इस वेदवाणी को अपनाते हैं वे सर्वताता यज्ञों के अन्दर (रत्नम्) = अपने रमणीय धनों को कृपणन्त = [कृपू सामर्थ्ये] शक्तिशाली बनाते हैं । वेदवाणी में दिये गये प्रभु के आदेश के अनुसार वे धनों का यज्ञों में विनियोग करते हैं और इस प्रकार इनके धन और अधिक पुष्ट होते हैं । [२] (ते) = वे देव (धियं च यज्ञं च) = बुद्धियों को तथा यज्ञादि उत्तम कर्मों को (साधन्तः) = सिद्ध करते हुए, अपने जीवन में ज्ञान व उत्तम कर्मों का सम्पादन करते हुए (नः) = हमारे लिये (असामि) = पूर्णरूप से [सामि = आधा] (वसव्यम्) = निवास के लिये आवश्यक तत्त्वों के समूह को (धान्तु) = धारण करें । वस्तुतः मनुष्य ज्ञानपूर्वक कर्मों में व्यापृत रहता है तो उसकी ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्मेन्द्रियाँ तो ठीक बनी ही रहती हैं, उसके ज्ञान व शक्ति में क्षीणता नहीं आती। इसी को इस रूप में कह सकते हैं कि इसके 'ब्रह्म व क्षत्र' का विकास होकर उसके शोभा की वृद्धि होती है ।
भावार्थ
भावार्थ - देव [क] वेदवाणी को अपनाते हैं, [ख] धनों का यज्ञों में विनियोग करते हैं,[ग] बुद्धि व यज्ञ का साधन करते हैं, [घ] निवास के लिये आवश्यक तत्त्वों को पूर्णरूप से धारण करनेवाले होते हैं ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(एषाम्-अमृतानां गीःसर्वताता) एतेषां जीवन्मुक्तानां विदुषामुपदिष्टा वेदवाक् सर्वसुखदकर्मविस्तारिका “सर्वताता सर्वासु कर्मततिषु” [नि० ११।२४] अस्ति भवतु (ये रत्नं कृपणन्त) ये विद्वांसो रमणीयं मोक्षं प्राप्तुमस्मान् समर्थयन्ति “कृपते समर्थयतु” [ऋ० १।११३।१० दयानन्दः] ‘कृपू सामर्थ्ये’ [भ्वादि०] ततः शप् श्ना च “विकरणद्वयं छान्दसम्” (धियं च यज्ञं च साधन्तः) ते प्रज्ञानं चाध्यात्मयज्ञं साधयन्तः ‘अन्तर्गतो णिजर्थः’ (असामि-वसव्यं नः धान्तु) पूर्णवसुषु भवं श्रेष्ठं ज्ञानधनमस्मासु धारयन्तु “धा धातोः श्लुविकरण औत्सर्गिको बहुलग्रहणान्न भवति” “ बहुलं छन्दसि” [अष्टा० २।४।७६] ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
This is the voice of song in adoration of these immortals who, in the general yajna of all humanity, create and bestow on us the jewel wealth of life, elevate ideas and actions and accomplish the corporate creative programmes of total humanity by yajna. May they, we pray, bear and bring unbounded wealth and honour for us all.
मराठी (1)
भावार्थ
जीवनमुक्त विद्वानांनी आपल्या वाणीने सर्व सुख सिद्ध करण्याचा उपदेश करावा व मोक्षप्राप्तीसाठी समर्थ बनवावे. मोक्ष हा सर्व धनात श्रेष्ठ धन आहे. ॥३॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal