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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 74 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 74/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गौरिवीतिः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    शची॑व॒ इन्द्र॒मव॑से कृणुध्व॒मना॑नतं द॒मय॑न्तं पृत॒न्यून् । ऋ॒भु॒क्षणं॑ म॒घवा॑नं सुवृ॒क्तिं भर्ता॒ यो वज्रं॒ नर्यं॑ पुरु॒क्षुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शची॑ऽवः । इन्द्र॑म् । अव॑से । कृ॒णु॒ध्व॒म् । अना॑नतम् । द॒मय॑न्तम् । पृ॒त॒न्यून् । ऋ॒भु॒क्षण॑म् । म॒घऽवा॑नम् । सु॒ऽवृ॒क्तिम् । भर्ता॑ । यः । वज्र॑म् । नर्य॑म् । पु॒रु॒ऽक्षुः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शचीव इन्द्रमवसे कृणुध्वमनानतं दमयन्तं पृतन्यून् । ऋभुक्षणं मघवानं सुवृक्तिं भर्ता यो वज्रं नर्यं पुरुक्षुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शचीऽवः । इन्द्रम् । अवसे । कृणुध्वम् । अनानतम् । दमयन्तम् । पृतन्यून् । ऋभुक्षणम् । मघऽवानम् । सुऽवृक्तिम् । भर्ता । यः । वज्रम् । नर्यम् । पुरुऽक्षुः ॥ १०.७४.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 74; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (शचीवः) हे कर्मवाले-कर्मकर्त्ता जनों ! (अवसे) रक्षा के लिये (पृतन्यून् दमयन्तम्) संग्राम करने के इच्छुक शत्रुओं को अपने वश में लेनेवाले (अनानतम्) जो किसी से भी वश न किया जा सके, उस महान् शक्तिमान् को (ऋभुक्षणम्) ऋभुओं मेधावी शिल्पियों के बसानेवाले (मघवानम्) धनवाले (सुवृक्तिम्) भली प्रकार दुःख से वर्जित करनेवाले हटानेवाले (इन्द्रं कृणुध्वम्) अपना राजा बनाओ (यः पुरुक्षुः) जो बहुत भोजनीय अन्नवाला (नर्यं वज्रं भर्त्ता) प्रजाजनों के लिये हितकर ओज का धारण करनेवाला है ॥५॥

    भावार्थ

    कर्मकर्त्ता राष्ट्र के कर्मठ जन संग्राम के इच्छुक शत्रुओं के दमन करनेवाले अन्य के वश में न आनेवाले विद्वानों और शिल्पियों को राष्ट्र में बसानेवाले प्रजाजनों के लिये अन्नादि की व्यवस्था करनेवाले को राजा बनाना चाहिए ॥५॥

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    विषय

    सेनापति और गुरु के उत्तम लक्षण।

    भावार्थ

    हे (शचीवः) उत्तम कर्म और वाणीरूप स्तुति करने वाले जनो ! आप लोग (यः) जो (नर्यं) सब मनुष्यों के हितकारी (वज्रं) ज्ञानोपदेश और (वज्रं) बल, वीर्य और शस्त्रबल को (भर्त्ता) धारण करता है जो (पुरु-क्षुः) अनेक शब्दमय वेद-मन्त्रों वा उपदेशों वा विद्या-वचनों को जानता है, (सु-वृक्तिम्) उत्तम स्तुति योग्य, (सु-वृक्तिम्) उत्तम रीति से कुमार्ग से वर्जने वाले (सु-वृक्तिम्) सुख से और सुष्ठु रीति से ग्रहण करने वाले (ऋ-भुक्षणम्) महान् सत्यसेवी, सत्यपालक, (मघवानम्) अनेक ऐश्वर्यों के स्वामी, (पृतन्यून् दमयन्तं) संग्राम करने वाले शत्रुजनों वा संग्राम के इच्छुक सैनिकों को भी दण्डित वा दमन करते हुए शत्रुओं का पराजय और स्व सैन्यों का दमन करने वाले (अनानतं) किसी के आगे न झुकने वाले, (इन्द्रं) ऐश्वर्यवान्, शत्रुविजयी को (अवसे) अपनी रक्षा, गति, कान्ति, इच्छा, स्नेह, समृद्धि आदि कार्यों के लिये राजा के लिये, सेनापति आदि पदों के लिये नियुक्त (कृणुध्वम्) करे। इसी प्रकार जो (शचीवः) कर्मकुशल हैं, वे बहुत अन्न धन वाले, धन स्वामी को प्राप्त करे। और शची अर्थात् वाणी वाले विद्यार्थी भी, महान् गुरु को चाहें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गौरिवीतिर्ऋषिः॥ इन्द्रो देवता। छन्दः- १, ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २, ५ निचृत त्रिष्टुप्। ३ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ६ विराट् त्रिष्टुप्॥

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    विषय

    'नर्य वज्र' का धारण

    पदार्थ

    [१] (शचीवः) = हे प्रज्ञा व कर्म सम्पन्न भक्त पुरुषो! (इन्द्रम्) = उस सर्वशक्तिमान् प्रभु को (अवसे) = रक्षण के लिये (कृणुध्वम्) = करो, अपना रक्षक जानो जो कि (अनानतम्) = कभी किसी से दबनेवाले नहीं हैं, (पृतन्यून् दमयन्तम्) = सेना से आक्रमण करनेवालों का दमन करनेवाले हैं, (ऋभुक्षणम्) = महान् हैं, (मघवानम्) = ऐश्वर्यवान् हैं और (सुवृक्तिम्) - दोषों को अच्छी प्रकार दूर करनेवाले हैं। इस प्रकार प्रभु जब रक्षक होते हैं तो किसी प्रकार का भय नहीं रहता । प्रभु रक्षण में काम-क्रोधादि के आक्रमण का तो सम्भव ही नहीं, लोभ जनित दोषों से हम बचे रहते हैं और सांसारिक दृष्टिकोण से भी हम असफल जीवनवाले नहीं होते । [२] हम प्रज्ञाकर्म सम्पन्न बनकर उस प्रभु को अपना रक्षक बनायें (यः) = जो कि (पुरुक्षुः) = [क्षु-शब्दे] पालक व पूरक प्रेरणात्मक शब्दोंवाले होते हुए (नर्य) = नर हितकारी (वज्रम्) = क्रियाशीलतारूप वज्र को (भर्ता) = भरण करनेवाले हैं। हृदयस्थित होते हुए वे प्रभु सदा प्रेरणा देते हैं, वह प्रेरणा हमें शरीर में रोगों से बचाती है तो मन में न्यूनताओं को नहीं आने देती । प्रभु इस प्रेरणा के द्वारा वज्र को हमारे हाथों में देते हैं, 'क्रियाशीलता' ही यह वज्र है। यह वज्र 'नर्य' है, नर हितकारी है। सदा क्रियाशील होने पर हम वासनाओं के शिकार नहीं होते । वस्तुतः क्रियाशील व्यक्ति शक्ति सम्पन्न बनता है, यह किसी से दबता नहीं [अनानत] बाह्य शत्रुओं का भी तेजस्विता से मुकाबिला करनेवाला होता है, अपने जीवन में महान् बनता है, दोषों को सदा दूर रख पाता है। इस प्रकार यह अपने उपास्य प्रभु का ही छोटारूप बन जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - क्रियाशीलतारूप वज्र को हाथों में लेकर हम शत्रुओं पर विजय पायें और अपने उपास्य प्रभु जैसा ही बनने का प्रयत्न करें।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (शचीवः) हे कर्मवन्तः कर्मकर्त्तारः ! “शची कर्मनाम” [निघ० २।१] ‘व्यत्ययेनैकवचनम्’ (अवसे) रक्षणाय (पृतन्यून् दमयन्तम्) सङ्ग्राममिच्छतः शत्रून् स्ववशे नयन्तं (अनानतम्) यः केनापि न-आनतीकर्त्तुं वशीकर्त्तुं शक्यस्तं महान्तं महच्छक्तिमन्तम् “अनानतस्य महतः” [निरु० १२।२०] (ऋभुक्षणं मघवानं सुवृक्तिम्) ऋभूनां मेधाविनां शिल्पिनां निवासकम्-“ऋभवः-मेधाविनः” [निघ० ५।१५] “ऋभू रथस्येवाङ्गानि सन्दधत् परुषापरुः” [अथर्व० ४।१२।७] प्रशस्तधनवन्तं सुष्ठु दुःखवर्जनकर्त्तारं (इन्द्रं कृणुध्वम्) स्वकीयं राजानं कुरुत (यः पुरुक्षुः) यो हि बहु भोजनीयान्नादिमान् “पुरुक्षुः पुरूंषि क्षून्यन्नानि यस्य सः” [ऋ० १।६५।५ दयानन्दः] (नर्यं वज्रं भर्त्ता) नरेभ्यः प्रजाजनेभ्यो हितकरमोजो धारयिता “वज्रो वा ओजः” [श० ८।४।१।२०] ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O yajakas, for your protection and progress, adore and exalt Indra, lord of wondrous power and action, undaunted subduer of enemies, glorious, majestic, admirable and abundantly generous friend of humanity. And he wields the thunderbolt of power, justice and dispensation.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कर्म करणाऱ्या कर्मठ लोकांनी युद्धात तत्पर, शत्रूंचे दमन करणारा, इतराच्या वशमध्ये न येणारा, विद्वानांना व कारागिरांना राष्ट्रात वसविणारा, प्रजेसाठी अन्न इत्यादीची व्यवस्था करणाऱ्याला राजा बनवावे. ॥५॥

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